कन्नौज से लोकसभा का चुनाव लड़ते समय ड़ा राममनोहर लोहिया कि पराजित कराने के लिए कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओँ ने एक मौलवी से एक सवाल पुछवाया। सवाल था- ‘मुस्लिम समाज में चार शादियों के प्रति आपकी क्या राय है?’ कांग्रेस का लक्ष्य था कि डा लोहिया पक्ष में बोंलेंगे तो चुनाव हार जायेंगे विपक्ष में बोलेंगे तो वादाखिलाफी का आरोप उन पर चस्पा किया जा सकेगा। डा लोहिया खुद वादाखिलाफ भ्रष्टाचार मानते थे। इस सवाल के जवाब के बाद लोहिया को प्रचार करने के लिए जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय के संसदीय क्षेत्र जौनपुर आना था। लोहिया के लोगों ने लोहिया को जौनपुर जाने से रोकना चाहा और दीनदयाल उपाध्याय के लोगों ने चाहा कि वह डा लोहिया को रोकें, दीनदयाल उपाध्याय के लोगों का मानना था कि डा लोहिया के आने से चुनाव पर असर पड़ेगा। 1967 का यह चुनाव डा लोहिया किसी तरह तकरीबन 500 वोटों से जीत पाए थे। उनकी पार्टी का सफाया हो गया था। दीनदयाल उपाध्याय जी चुनाव ही नहीं जीत पाए पर डा लोहिया की स्वीकार्यता मुस्लिम महिलाओँ में बढ़ गई। वजह साफ थी कि किसी भी ऐसे समाज में जहां अधिकांश लोग एक पत्नीव्रत का पालन करते हों वहां दूसरे समाज की चार स्त्रियों का एक पुरुष को वरण करना जरुर किसी विवशता का संदेश माना जाएगा। यह समाजार्थिक संरचना की अनिवार्य शर्त भी है कि समाज के पारस्परिक रिश्ते धर्म, जाति से बाहर निकल एक सदृश्य हों। यह चाहत भी होती है और अनिवार्यता भी पर धर्म, जाति, कुनबे, तमाम तरह की बंदिशें पैदा करके ऐसी स्थितियां पैदा करती है ताकि अस्वीकार्य को स्वीकार किया जा सकते। तर्क गढ़ती हैं ताकि असहय को सहा जा सके।
इसकी पुष्टि इसी महीने सीरिया की एक घटना से होती है। सीरिया के एक प्रांत मनबिज में आतंकी संगठन आईएसआईएस का कब्जा चल रहा था। सीरिया डेमोक्रेटिक फोर्स ने अमरीका की मदद से एलेप्पो गर्वरनरेट के अंतरगर्त आने वाले मनबिज को खाली कराने में सफलता हासिल कर ली। इस शहर में आईएस ने तकरीबन 2000 नागरिकों को बंधक बना रखा था। आईएस यहां बंधक बनाए गये महिलाओं, बच्चों और अन्य लोगों को ढाल बनाकर अपना बचाव कर रहा था। इस शहर पर फतह आईएस के खिलाफ लडाई की एक बड़ी उपलब्धि इसलिए भी कही जाएगी क्योंकि इसके बाद जिस रक्का शहर को अपनी राजधानी घोषित कर रखा है उस तक पहुंचना आसाना हो गया है।
यह तो आतंक के खिलाफ जंग में बडी उपलब्धि है पर इससे बड़ी एक और बड़ी दूसरी उपलब्धि भी है जब मनबिज शहर आईएस के कब्जे से मुक्त हुआ तब बंधक बनाई गयी महिलाओँ ने अपने बुर्के उतार कर जला दिए। पुरुषों ने दाढियां कटवा लीं। वह जो कुछ कर रहे थे कि उसमें उन्हें एक अद्भुत स्वतंत्रता का बोध हो रहा था। मनबिज शहर के उस दृश्य को देखें तो किसी भी देश के नागरिकों के आजादी के उल्लास का स्मृत हो जाना सहज है। यह दृश्य वही पुष्ट करता है जो डा लोहिया ने कहा था। दृश्य बताता है कि बंदिशों की आड़ में ओढाई गई मजबूरियां केचुल की तरह उतार फेंकने को समाज व्यग्र है।
अगर मुंबई की हजरत अली दरगाह की मजार तक मुस्लिम महिलाओं के जाने की कानून छूट मिलती है तब भी ऐसा ही दृश्य देखा जाता है। क्योंकि मुस्लिम महिलाओँ ने ही यह मांग की थी कि इक्कीसवी सदी के इस भौतिकवादी और प्रगतिशील युग के दौर में उन्हें पुरुषों के अधिकार से वंचित करना अथवा स्त्री पुरुष अधिकार की अलग-अलग लक्ष्मण रेखा तैयार करना उचित नहीं। यह बाद दीगर है कि कठमुल्ला विचारधारा वाले लोग इसे लेकर फिर से विरोध करने की तैयारी में खड़े दिख रहे हैं। उन्होंने इस बात का विरोध शुरु कर दिया है कि कब्र या मजार तक महिलाओँ के जाने की इजाजत उनका धर्म नहीं देता है। यह बात दीगर है कि जिस फैसले के तहत इन्हें यह अधिकार मिला है उस केस में यह कठमुल्ला एक भी ऐसी आयत नहीं दिखा रखे जो महिलाओँ को इस तरह की पाबंद करती हो। कुछ इसी तरह की धारणा काफी पहले हिंदू धर्म में भी थी कि शमशान घाट तक महिलाएँ नहीं जा सकती हैं। पर, इस में देश काल परिस्थिति के हिसाब से स्वतः बदलाव हुए कोई नई धार्मिक इबारत नहीं लिखनी पड़ी। अनिवार्य होता है तो महिलाएं शमशान तक जाती है। परिजनों को कंधा देने लगीं। मुखाग्नि भी देने लगीं। इलाहाबाद में तो 30-35 साल पहले शमशान घाट की मालकिन ही महिला थी। इस बदलाव के लिए न तो कोई क्रांति हुई, न चेतना लाने की जरुरत हुई, न आंदोलन हुआ, न तो इस बदलाव को लेकर किसी प्रकार का विवाद हुआ।
सवाल यह उठता है कि आखिर बदलाव कि यह बयार उसी देशकाल और परिस्थिति में रहने वाले दूसरे धर्म में क्यों नहीं आने दी जी रही है। कौन लोग हैं इसके जिम्मेदार। किन्हें शाहबानो की भूख और रामरती की भूख में अंतर नज़र आता है। जिनके पास विरोध की एक भी आयत नहीं है वह भी किस बल के आधार विरोध के लिए विरोध का सिलसिला चलाए जा रहे हैं। हर छोटी बड़ी बात पर महिलाओँ पर बंदिश लगाने का काम या तो खाप पंचायतें कर रही है अथवा फतवा जारी करने वाले मौलाना कर रहे हैं। हद तो यह है कि फतवा जारी करने और फतवा दिए जाने का सामान्य सी प्रक्रिया भी यह पूरी नहीं करते।
हाल फिलहाल तहवीज-ए-तलाक के मसले पर देवबंदी उलेमा के फतवे ने हर्ष और विषाद के माहौल को और पेंचीदा बना दिया है। जो हर्ष का सबब का बनाया गया है वह इतना क्षणिक है कि उसमें हर्ष ढूंढते ही विषाद हाथ लग जाता है। इस फतवे में भी महिला भी तलाक-तलाक-तलाक कहकर अपने नापसंद पुरुष से रिश्ते तोड़ सकती है। प्रथम दृष्टया यह कौम में महिलाओं की आजादी की बड़ी बानगी कही जा सकती है। लेकिन बराबरी का हक नहीं देने और आधी आबादी के खुशी के पल स्थाई न हो इस मनोवृत्ति से ग्रसित लोगों ने जो नुक्ता चीनी करके फतवे की आगे की इबारत लिखी है उसमें फिर स्त्री को विकलांग बना दिया है। स्त्री को पुरुष की बैसाखी पर खड़ा कर दिया है। तीन तलाक देने का अधिकार भी स्त्री पुरुष से ही हासिल करेगी। वह भी एक मियाद के लिए। तलाक के सुलगते मसले पर आई यह परिभाषा कोई उम्मीद नहीं जगाती बल्कि यह अचानक जग गई उम्मीद पर घड़ों पानी ड़ाल देती है।
इमराना की घटना और गुड़िया का प्रकरण भी महिलाओं के विषाद में रखने की मानसिकता की बानगी है। संचार के अतिआधुनिक युग, सोशल मीडिया के संपर्क क्रांति युग और पारदर्शिता के इस कालखंड मे अगर किसी भी समाज के खानपान, रहन-सहन, जीवन जीने, कलासंस्कृति में एक सरीखापन नहीं होगा तो खटकेगा खलेगा। दोनों को , जो लीक पीट रहे है उन्हें भी जो लीक छोड़ चुके हैं उन्हें भी। यह बात और है कि लीक पर चलने को विवश करने के खिलाफ बोलने वाला न तो डा लोहिया का स्वर है न ही उनकी उपस्थिति से पराजय से भय से ड़र जाने वाली दीनदयाल उपाध्याय का लीक तोड़ने का साहस। पर इस तथ्य और सत्य से आंख नहीं मूंदा जा सकता है कि इनकी अनुपस्थिति को नजरअंदाज कर लीक पर चलने का चलन जारी रखने की विवशता बनाए रखी गयी तो मनबिज के दोहराए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता। आईएस के कब्जे से मुक्ति के बाद के मनबिज के दृश्यों की पुनरावृत्ति जारी रहेगी।
इसकी पुष्टि इसी महीने सीरिया की एक घटना से होती है। सीरिया के एक प्रांत मनबिज में आतंकी संगठन आईएसआईएस का कब्जा चल रहा था। सीरिया डेमोक्रेटिक फोर्स ने अमरीका की मदद से एलेप्पो गर्वरनरेट के अंतरगर्त आने वाले मनबिज को खाली कराने में सफलता हासिल कर ली। इस शहर में आईएस ने तकरीबन 2000 नागरिकों को बंधक बना रखा था। आईएस यहां बंधक बनाए गये महिलाओं, बच्चों और अन्य लोगों को ढाल बनाकर अपना बचाव कर रहा था। इस शहर पर फतह आईएस के खिलाफ लडाई की एक बड़ी उपलब्धि इसलिए भी कही जाएगी क्योंकि इसके बाद जिस रक्का शहर को अपनी राजधानी घोषित कर रखा है उस तक पहुंचना आसाना हो गया है।
यह तो आतंक के खिलाफ जंग में बडी उपलब्धि है पर इससे बड़ी एक और बड़ी दूसरी उपलब्धि भी है जब मनबिज शहर आईएस के कब्जे से मुक्त हुआ तब बंधक बनाई गयी महिलाओँ ने अपने बुर्के उतार कर जला दिए। पुरुषों ने दाढियां कटवा लीं। वह जो कुछ कर रहे थे कि उसमें उन्हें एक अद्भुत स्वतंत्रता का बोध हो रहा था। मनबिज शहर के उस दृश्य को देखें तो किसी भी देश के नागरिकों के आजादी के उल्लास का स्मृत हो जाना सहज है। यह दृश्य वही पुष्ट करता है जो डा लोहिया ने कहा था। दृश्य बताता है कि बंदिशों की आड़ में ओढाई गई मजबूरियां केचुल की तरह उतार फेंकने को समाज व्यग्र है।
अगर मुंबई की हजरत अली दरगाह की मजार तक मुस्लिम महिलाओं के जाने की कानून छूट मिलती है तब भी ऐसा ही दृश्य देखा जाता है। क्योंकि मुस्लिम महिलाओँ ने ही यह मांग की थी कि इक्कीसवी सदी के इस भौतिकवादी और प्रगतिशील युग के दौर में उन्हें पुरुषों के अधिकार से वंचित करना अथवा स्त्री पुरुष अधिकार की अलग-अलग लक्ष्मण रेखा तैयार करना उचित नहीं। यह बाद दीगर है कि कठमुल्ला विचारधारा वाले लोग इसे लेकर फिर से विरोध करने की तैयारी में खड़े दिख रहे हैं। उन्होंने इस बात का विरोध शुरु कर दिया है कि कब्र या मजार तक महिलाओँ के जाने की इजाजत उनका धर्म नहीं देता है। यह बात दीगर है कि जिस फैसले के तहत इन्हें यह अधिकार मिला है उस केस में यह कठमुल्ला एक भी ऐसी आयत नहीं दिखा रखे जो महिलाओँ को इस तरह की पाबंद करती हो। कुछ इसी तरह की धारणा काफी पहले हिंदू धर्म में भी थी कि शमशान घाट तक महिलाएँ नहीं जा सकती हैं। पर, इस में देश काल परिस्थिति के हिसाब से स्वतः बदलाव हुए कोई नई धार्मिक इबारत नहीं लिखनी पड़ी। अनिवार्य होता है तो महिलाएं शमशान तक जाती है। परिजनों को कंधा देने लगीं। मुखाग्नि भी देने लगीं। इलाहाबाद में तो 30-35 साल पहले शमशान घाट की मालकिन ही महिला थी। इस बदलाव के लिए न तो कोई क्रांति हुई, न चेतना लाने की जरुरत हुई, न आंदोलन हुआ, न तो इस बदलाव को लेकर किसी प्रकार का विवाद हुआ।
सवाल यह उठता है कि आखिर बदलाव कि यह बयार उसी देशकाल और परिस्थिति में रहने वाले दूसरे धर्म में क्यों नहीं आने दी जी रही है। कौन लोग हैं इसके जिम्मेदार। किन्हें शाहबानो की भूख और रामरती की भूख में अंतर नज़र आता है। जिनके पास विरोध की एक भी आयत नहीं है वह भी किस बल के आधार विरोध के लिए विरोध का सिलसिला चलाए जा रहे हैं। हर छोटी बड़ी बात पर महिलाओँ पर बंदिश लगाने का काम या तो खाप पंचायतें कर रही है अथवा फतवा जारी करने वाले मौलाना कर रहे हैं। हद तो यह है कि फतवा जारी करने और फतवा दिए जाने का सामान्य सी प्रक्रिया भी यह पूरी नहीं करते।
हाल फिलहाल तहवीज-ए-तलाक के मसले पर देवबंदी उलेमा के फतवे ने हर्ष और विषाद के माहौल को और पेंचीदा बना दिया है। जो हर्ष का सबब का बनाया गया है वह इतना क्षणिक है कि उसमें हर्ष ढूंढते ही विषाद हाथ लग जाता है। इस फतवे में भी महिला भी तलाक-तलाक-तलाक कहकर अपने नापसंद पुरुष से रिश्ते तोड़ सकती है। प्रथम दृष्टया यह कौम में महिलाओं की आजादी की बड़ी बानगी कही जा सकती है। लेकिन बराबरी का हक नहीं देने और आधी आबादी के खुशी के पल स्थाई न हो इस मनोवृत्ति से ग्रसित लोगों ने जो नुक्ता चीनी करके फतवे की आगे की इबारत लिखी है उसमें फिर स्त्री को विकलांग बना दिया है। स्त्री को पुरुष की बैसाखी पर खड़ा कर दिया है। तीन तलाक देने का अधिकार भी स्त्री पुरुष से ही हासिल करेगी। वह भी एक मियाद के लिए। तलाक के सुलगते मसले पर आई यह परिभाषा कोई उम्मीद नहीं जगाती बल्कि यह अचानक जग गई उम्मीद पर घड़ों पानी ड़ाल देती है।
इमराना की घटना और गुड़िया का प्रकरण भी महिलाओं के विषाद में रखने की मानसिकता की बानगी है। संचार के अतिआधुनिक युग, सोशल मीडिया के संपर्क क्रांति युग और पारदर्शिता के इस कालखंड मे अगर किसी भी समाज के खानपान, रहन-सहन, जीवन जीने, कलासंस्कृति में एक सरीखापन नहीं होगा तो खटकेगा खलेगा। दोनों को , जो लीक पीट रहे है उन्हें भी जो लीक छोड़ चुके हैं उन्हें भी। यह बात और है कि लीक पर चलने को विवश करने के खिलाफ बोलने वाला न तो डा लोहिया का स्वर है न ही उनकी उपस्थिति से पराजय से भय से ड़र जाने वाली दीनदयाल उपाध्याय का लीक तोड़ने का साहस। पर इस तथ्य और सत्य से आंख नहीं मूंदा जा सकता है कि इनकी अनुपस्थिति को नजरअंदाज कर लीक पर चलने का चलन जारी रखने की विवशता बनाए रखी गयी तो मनबिज के दोहराए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता। आईएस के कब्जे से मुक्ति के बाद के मनबिज के दृश्यों की पुनरावृत्ति जारी रहेगी।