बिंब और प्रतीक दोनों है सियासत-ए-खाट

Update:2016-09-11 11:36 IST
भारतीय लोकोक्तियों में खाट को लेकर तमाम बिंब और प्रतीक है। खाट को प्रतीक बनाकर बहुत सी बातें कह गयी है। मसलन खाट खडी होना, नींद न जाने टूटी खाट, खाट लग जाना, लेटे लेटे खाट तोड़ना, अकेला चले ना बाट झाड़ बैठे खाट आदि-इत्यादि। यह तो कुछ बानगी भर है। लेकिन जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जमीन तैयार करने के काम में लगे प्रशांत किशोर पांडेय राहुल गांधी की यात्राओं लिए खाट पंचायत का प्रबंधन कर रहे थे तो शायद उन्हें खाट को लेकर तमाम मुहावरे लोकोक्तियां और उनके अर्थ-रुढार्थ न पता हों। पर उन्हें यह जरुर इत्तिला रही होगी कि ड्राइंग रुम से होती हुई सियासत को रैली और रोड शो के मार्फत अगर किसी दिशा में आगे बढ़ाकर चर्चा के केंद्र में लाना हो तो खाट एक बड़ा बिंब और प्रतीक दोनों है।
शायद यही वजह है कि राहुल गांधी की खाट पंचायत इन दिनों सियासत मे जेरे-बहस है। मीडियो को भी इन दृश्यो में टीआरपी दिख रही है। आकर्षण नज़र आ रहा है। खाट पर बैठे किसान हों या खाट लेकर घर जाते लोग। सबमें दृश्य-श्रव्य माध्यम अपनी पौ-बारह कर ले रहे हैं।
राजनीति के बारे में कहा जाता है कि उसे तीन चीजें की अनिवार्य तौर पर दरकार है- चर्चा, खर्चा और पर्चा। राहुल गांधी की खाट पंचायत चर्चा भी बटोर रही और पर्चा में अखबारों की सुर्खियों में भी है। अपने पारंपरिक रोड शो, रैलियों से अधिक संदेश काग्रेस खाट पंचायत के जरिए देने में इन दिनों कांग्रेस कामयाब होती दिख रही है। उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस को मतदाताओं ने बड़ी मुश्किल से विधानसभा चुनाव में 8 से 11 फीसदी के बीच मत दिया है। सत्ता की चाभी  अपने पास रखने यानी त्रिशंकू विधानसभा के स्थिति में अपनी अहमियत जताने के लिए 16- 18 फीसदी वोट चाहिए। सत्ता पर काबिज होने के लिए करीब 30 फीसदी वोटों चाहिए। वर्ष 2012 में जब समाजवादी पार्टी ने स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई थी तो उसे 29.15 फीसदी वोट मिले थे। बसपा ने जब 2007 में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई तो तो उसे 30.43 फीसदी वोट मिले थे। यानी साफ है कि कांग्रेस के लिए शून्य से शिखर की यात्रा असंभव नहीं दुरूह है। ऐसी दुरूह कि उससे निपटने का कोई फार्मूला राहुल गाधी, उनकी कांग्रेस और प्रशांत किशोर को खडे करने की रणनीति में नहीं दिखता।
उत्तर प्रदेश में तकरबीन 11 फीसदी ब्राह्मण मतदाताओँ के लिए कांग्रेस को आकर्षण  का सबब बनाते हुए शीला दीक्षित को उम्मीदवार बताए जाने की एक झटके में तब हवा निकल गयी जब शीला दीक्षित का नाम शीला दीक्षित कपूर प्रचारित होने लगा। अपने दिल्ली के 15 साल के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश की सियासत के जुड़ा शायद ही कोई कांग्रेसी हो जो निरंतर शीला दीक्षित के संपर्क में रहा हो। वैसे भी ब्राह्मण मतदाताओँ में 2007 में मायवाती, 2012 में अखिलेश यादव को मतदान के बाद इस बार मोटे तौर पर भाजपा को अपलक निहारना शुरु कर दिया है। क्योंकि इस जमात के पूरे मतदाता भी अगर कांग्रेस के साथ खड़े हो जाएं तो भी बडे बदलाव की उम्मीद कांग्रेस में नहीं हो सकती है जबकि भाजपा में वह सुनहरे सपने देख और दिखा सकता है।
यही नहीं उत्तर प्रदेश के दो विधानसभा चुनाव में व्यापक जनसंपर्क के राहुल गांधी के अभियान कोई करिश्मा नहीं कर सके। उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी राहुल के साथ प्रियंका की मांग कर रहे हैं। पता नहीं किन कारणों से प्रियंका और राहुल के बीच कांग्रेस आगा पीछा का खेल खेल रही है। लेकिन शायद कांग्रेस के रणनीतकार यह भूल कर रहे हैं कि राहुल प्रियंका मिलकर एक और एक ग्यारह हो सकते है। प्रियंका को उत्तर प्रदेश के चुनाव में आजमाना इसलिए भी जरुरी है ताकि कांग्रेसी इस हकीकत से वाकिफ हो सकें कि राबर्ट वाड्रा प्रकरण गांधी नेहरू परिवार की विरासत पर कोई असर ड़ालता है या नहीं। लोकसभा में मोदी के खिलाफ कांग्रेस को प्रियंका को उतारना मजबूरी होगी क्योंकि सेहत की वजह से भी सोनिया उतनी सक्रिय नहीं रह सकती। उत्तर प्रदेश में प्रियंका को लेकर इंदिरा गांधी की छवि, बिटिया प्रियंका आदि-इत्यादि तमाम तरह के रिश्तों की जमापूंजी चलती है। लेकिन देश के दूसरे भागों में प्रियंका को लेकर रिश्तों की जमापूंजी वैसी नहीं है जैसी यूपी में है। अगर राबर्ट वाड्रा प्रकरण उत्तर प्रदेश के प्रचार के समय कांग्रेस पर प्रभावी हुआ तो इस रिश्तों की जमापूंजी से उसे मद्धिम या निष्तेज किया जा सकेगा पर देश के दूसरे हिस्सों में प्रियंका गांधी के खाते मे रिश्तों की यह जमा पूंजी नहीं है।
हालांकि यह बात और है कि प्रियंका के दौरान अथवा चुनाव के अलावा अमेठी या रायबरेली की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ सकी हैं। राबर्ट वाड्रा प्रकरण को परखने की जमीन उत्तर प्रदेश से ज्यादा माकूल और कहीं नहीं हो सकती है और वह भी तब जब अपना वजूद तलाश रही कांग्रेस राजनीति के मौलिक सिद्धांत चर्चा, खर्चा और पर्चा के केंद्र में आ गयी हो। अपनी खाट पंचायत के दौरान राहुल गांधी ने सिर्फ दृश्य और श्रव्य माध्यमों में ही जगह नहीं बनाई है बल्कि जो एजेंडा दिया है वह कांग्रेस में प्राणवायु का संचार करता है। राहुल अपने खाट पंचायतों के दौराना कर्जा माफ, बिजली हाफ और वाजिब समर्थन मूल्य की बात कह रहे हैं। जातीय खांचों में बंटी उत्तर प्रदेश की सियासत में कोई भी जाति कांग्रेसोन्मुख नहीं है। ऐसे में किसानों के सवाल उठाकर निःसंदेह कांग्रेस ने एक खाली पड़ी सियासी जगह में राहुल गांधी को बहुत ठीक से फिट कर दिया है। कांग्रेस किसानों का कर्जा माफ करने का काम करके दिखा चुकी है। हालांकि इस काम का से जनता ने 2009 की सरकार बनाकर ईनाम भी दे दिया था। लेकिन जब वह उद्योगपतियों के कर्ज माफी की बात करते हुए किसान कर्ज माफी का सवाल उठाते हैं तब किसानों की आंख मे विस्मय और उम्मीद दोनों जग जाती है राहुल एक आंकडा बताते हैं कि केंद्र सरकर ने एक लाख 10 हजार करोड़ रुपए उद्योगपतियों का माफ कर दिया। यह आकंडा कितना सच है इसकी पड़ताल कोई नहीं करता है पर इस पर यकीन की उम्मीद बढ़ने लगी है।
मनरेगा योजना का बजट 35 हजार करोड़ रुपये सालाना है। इस योजना ने गांव में युगांतकारी परिवर्तन किए हैं। इस योजना में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार के बावजूद गांव के लोगों में क्रय शक्ति आई है। मजदूर अपने श्रम का वाजिब  दाम पाने लगा है। हालांकि एक बड़ा तबका इससे नाराज है। क्योंकि मनरेगा के बाद उसके हाथ से शोषण करने के सारे सूत्र फिसल गए हैं। सचमुच उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में किसान सबसे बेबस और निरीह है। चरण सिंह के बाद देवीलाल और मुलायम सिंह उन नेताओ में शुमार रहे हैं जिन्होंने किसानों की समस्याओँ को अपनी सियासत का केंद्र बनाया। यही वजह है कि इनमे से कोई किसानो का मसीहा, कोई खैरख्वाह तो कोई धरतीपुत्र बन गया। किसानों की समस्याओं के सियासत से नाभि नाल के रिश्ते खत्म हो गये हैं। राहुल उसे पुनर्जीवित कर रहे हैं।
रैलियो में आम तौर पर नेता का श्रोता से संवाद नहीं होता। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्टाइल में बदलाव करते हुए इसकी शुरुआत की है। वह सवाल भी पूछते है और जवाब भी मांगते हैं। लेकिन अपनी खाट पंचायतों में राहुल गांधी उससे ज्यादा कनेक्ट हो रहे हैं। वह 2500 किलोमीटर की पूरी यात्रा में जाकर दलित गांव मे या तो खाना खाते हैं, या बिस्कुट खाते हैं या चाय पीते हैं तो हाथ से हाथी पर आए दलितों को एक निमंत्रण देते हैं। दलित भी इस बात से खुश होते हैं कि उनके गांव, उनके घर कोई बडा नेता आया है। कुछ तो यह भी कहते हैं कि इतना बड़ा आदमी गांव आयेगा तो सम्मान में वोट देंगे।
इस यात्रा में राहुल आमंत्रण, आश्वासन, आश्वस्ति के साथ ही जो भी बताते और जताते हैं उस पर आम आदमी कितना उम्मीद कर रहा है यह बताना तो मुश्किल है क्योंकि रैलियां, सभाएं, बैठकें किसी नेता की कमजोर नहीं होती। इसके बेहतर बनाने की तकनीक होती है और यह हर सियासी दल और उसका प्रबंधकर्ता जानता है परंतु उत्तर प्रदेश में जो सत्तारुढ दल से लड़ता दिखेगा वह मुनाफे में रहेगा। कांग्रेस इस लिहाज से बेहद निर्बल है। बसपा लड़ने की रणनीति को बेमानी मानती है। रैलियां और बहन जी के आप्त वाक्य सियासी हथियार हैं। सूबे की जनता के लिए भ्रष्टाचार से मुक्ति और कानून व्यवस्था की बदहाली से निजात का सपना है। कांग्रेस के पास इन दोनों को देने का कोई उस तरह का ट्रैक रिकार्ड नहीं है जैसा राहुल गांधी कर्जा माफ और बिजली हाफ के लिए पेश करते हैं। कांग्रेस की सफलता का ट्रैक हमेशा आमने सामने की लडाई में तैयार हुआ है। जहां भी लडाई त्रिकोणात्मक या चतुष्कोणीय हुई है कांग्रेस फिसड्डी साबित हुई है। फिलहाल उत्तर प्रदेश मे हालात यही हैं कि लडाई सिर्फ आमने सामने नहीं होगी।

 
 

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