नेता शब्द नेतृत्व से आता है। नेतृत्व यानी दिशा देने की क्षमता। हर समाज में हर स्थिति में दिशा नायक देता है। पर यह दुर्भाग्य है हमारा दिशा देने वाला नायाक दिशाहीन हो गया है। दिशाहारा हो गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि उसने अपनी सफलता के लिए अनंत दिशाएँ खोल ली हैं। उसका साध्य और साधन सिर्फ सफलता हो गयी है सिर्फ सत्ता हो गयी है। यही वजह है कि राजनीति में ढंग-बेढंग के तमाम रंग दिखते हैं जो समाज के मानक प्रतिमानों से प्रायः बेहद दूर और ठीक उलट होते हैं।
सियासत में कोई अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव को बेदखल करता है। अपने चाचा शिवपाल यादव को लाचार कर देता है। अमिता सिंह और गरिमा सिंह रानी और पटरानी के रुप में आमने सामने होती हैं। मां और पुत्री के तौर पर कृष्णा पटेल और अनुप्रिया पटेल आमने समाने हैं। पति-पत्नी, ससुर दमाद के खिलाफ, बहू सास के खिलाफ, भाई-भाई के खिलाफ, पिता पुत्र के खिलाफ प्रतिशोध और अदावत की मुद्रा में इस कदर खड़ा है कि मानो पराजित करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। दिल बदलना और दल बदलना हमारे इन नायकों की आदत में शुमार हो गया है। मुलायम सिंह के साथ समाजवादी पार्टी शुरु करने वाले अंबिका चौधरी को मायावती की शरण सुहाने लगती है। बसपा की सदन में आवाज कहे जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य एक झटके में हाथी से उतर कर कमल थाम लेते हैं। और तो और अपने घर का रंग भी बसपाई नीले से बदलने में इन्हें सोचने की जहमत। रीता जोशी और उत्तराखंड के अजय भट्ट जो कांग्रेस के अपने अपने इलाकों में पर्याय हो गये थे वो पल भर में भगवा दुपट्टा ओढने में देर नहीं करते।
निष्ठाओं के बदलने का यह खेल सिर्फ व्यक्ति तक होता तो शायद राजनीति के इन नायको को बचाव के कुछ तर्क मिल जाते। पर यह व्यक्ति की सीमा की लांघ कर दल और विचारधारा तक जा चुका है। धुर विरोध की सियासत से उपजी समाजवादी पार्टी के नए निजाम अखिलेश यादव को एक नया साथ पसंद करवा रहे हैं। जिसमें दो किरदार अखिलेश और राहुल गांधी है। इसे सियासत की विवशता से ज्यादा जीत का जुगत कहा जा सकता है। तभी तो समाजवादी पार्टी से राह अलग कर अपनी मंजिल तय करने का मन बना चुके राजबब्बर अब सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। कभी वह मुलायम सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के साथ मंच साझा करते थे।
जीत के जुगत के लिए हमारे राजनेताओं ने पहले देश और प्रदेश को इलाकों बांटा, फिर भाषा से बांटा, फिर जातियों में बांटा और फिर धर्म में। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा राजनेताओं के हाथ लगते ही हथियार हो गये। सियासत मे दलों का चरित्र बीते जमाने की बात हो गया है। अब सत्ता और विपक्ष का सिर्फ चरित्र रह गया है। जब कोई पार्टी सत्ता में रहती है तो विपक्ष के समय के उसके मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं वह पुरानी सत्ताधारी पार्टी के मुद्दों को ही गति देने लगती है। भाजपा आधार कार्ड की विरोधी थी पर सत्ता में आते ही पक्षधर हो गयी। कांग्रेस ने जीएसटी बिल को सदन के पटल पर रखा। लेकिन विपक्ष में आते ही उसी की विरोधी हो गयी। ऐसे अनंत उदाहरण हैं। मायावती जनता से यह कहकर वोट मांगती हैं कि वह मुलायम-अखिलेश राज के भ्रष्टाचार की जांच कराएंगी जेल भेजेंगी। अखिलेश यादव भी माया राज के खिलाफ कुछ यही कह कर पिछला चुनाव जीत ले जाते हैं। पर मायावती के मंत्रियों के खिलाफ आई लोकायुक्त रिपोर्ट पर कार्यवाही की कलम तक नहीं चलाते।
विरोधाभासों के ऐसे अनेक उदाहरण हमारे राजनैतिक दलों और उनके रहनुमाओं के चरित्र में भरे पड़े हैं। सिसायत में संबंधों को व्यक्ति की सत्ता और प्रतिष्ठा के साथ जोड़ दिया गया है। रिश्ते अराजक हो गये हैं और राजनीतिक क्षितिज्ञ यथार्थ की जगह आभासी नज़र आने लगा है। शब्दों ने अपने अभिप्राय बदल दिए हैं वे नए अर्थ खोजने लगे हैं।नेता समाज का नहीं, मजहबी समूहों और जातियों का प्रतिनिधित्व करने लगे है। वे जातीयता के पक्षधर दिख रहे हैं। परिवारवाद और वंशवाद की बात बीते जमाने की हो गयी है। कल तक जिन पोस्टरों पर कुनबे नज़र आते थे अब वे परिवार तक सिमट गये हैं। सपा में मुलायम, अखिलेश, शिवपाल और रामगोपाल की जगह सिर्फ अखिलेश और डिंपल ने ले ली है। कांग्रेस में इंदिरा, राजीव, जवाहरलाल नेहरू की जगह राहुल और प्रियंका आ गये हैं। पोस्टरों से फिलहाल बची भाजपा ने टिकट बंटवारे में सारी कसर पूरी कर दी। तकरीबन डेढ़ दर्जन सीटों पर परिवारवाद की बेल को बढाया। जिताऊ की खोज में विचारधारा, काडर दोनों की बलि चढ़ा दी।
कोई भी ऐसा दल नहीं है जिसने बाहुबलियों से परहेज किया हो। उत्तर प्रदेश के पहले और दूसरे चरण पर नज़र डालें तो 1555 उम्मीदवारों के हलफनामे बताते हैं कि इनमें 217 ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके खिलाफ गंभीर अपराध हैं। बसपा ने सबसे ज्यादा ऐसे बाहुबली 53 हैं, भाजपा में 45 हैं, सपा में 26 और कांग्रेस के 6 उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध के कई मामले दर्ज हैं। हमारे नेताओं की आर्थिक हैसियत में इजाफे की गति को लेकर अनुमान लगाना मुश्किल है। तभी तो पहले चरण में खडे उम्मीदवारों की संपत्ति का औसत 2.66करोड़ रुपये उनका हलफनामा बयां कर रहा है। समाज में भले ही साक्षरता तेजी से बढ़ रही हो, लोग उच्चशिक्षा की ओर तेजी से मुखातिक हो रहे हों पर हमारे नेताओं ने ठीक उलट दिशा पकड़ रखी है। उनके पास बड़ी डिग्रियां तो हैं पर ज्ञान के मामले में उनके एमएलए का मतलब बताना, राज्यपाल का नाम बताना भी मुश्किल हो रहा है। ऐसे छोटी-छोटी तमाम जानकारियां बड़े बडे डिग्रीधारी तमाम नेताओं के हाथ नहीं हैं।
इन्हें ही हमारा प्रतिनिधित्व करना है। राजनीति ही अर्थव्यवस्था, कला, संस्कृति, साहित्य और समाज के हर आयाम की नियामक होती हैं। राजनीति के नायकों का चरित्र जब तक विरोधाभासों का समुच्य से इतर था वे चुनाव जीतने और हारने के बाद जाति, धर्म, संप्रदाय क्षेत्र से ऊपर उठकर सोचते थे। वे जीत हार से भी ऊपर उठकर सोचते थे तभी तो लोहिया जी दीनदयाल उपाध्याय के प्रचार में गए थे। नेहरु जी ने अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण सुनकर संसद में कहा था कि मैं देश के भावी प्रधानमंत्री को सुन रहा हूं। सरकार बनाने की सद्इच्छा होती थी कि विपक्ष भी मजबूत हो।
अपनी सरकार के खिलाफ पार्टी के नेता फरमान जारी करते थे। त्रावणकोर कोच्चि में समाजवादी सरकार थी। पट्टम थानु पिल्लै मुख्यमंत्री हुआ करते थे। उन दिनों डॉ लोहिया सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेट्री थे। पिल्लै की सरकार ने मजदूरो के प्रदर्शन पर गोली चला दी। लोहिया ने मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग कर डाली। कहा कि जो सरकार मजदूरों पर गोली चलवा दे उसे शासन करने का अधिकार नहीं है। ड़ा लोहिया पार्टी से निकाल दिये गये। हांलांकि उन्होंने साफ किया कि गोली सिर्फ तीन स्थितियों में चलवाई जा सकती है। पहला, व्यापक आगजनी हो रही हो। दूसरा, प्रदर्शनकारी सशस्त्र हों। तीसरा, बडे पैमाने पर जान माल की हानि का अंदेशा हो। इसके अलावा गोली चलाना गलत है।
नेताओं को सबसे बड़ा अभिनेता कहा जाता है पर नेताओं को अभिनेताओं से बहुत कुछ सीखना होगा। फिल्मों की बात की जाय तो लोग नायक, प्रतिनायक और चरित्र अभिनेता को तो याद रखते हैं पर उसे नहीं जो अपनी भूमिकाएं लगातार बदलता रहता है। यह नेताओं के लिए सबसे बड़ी सीख कही जा सकती है।
सियासत में कोई अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव को बेदखल करता है। अपने चाचा शिवपाल यादव को लाचार कर देता है। अमिता सिंह और गरिमा सिंह रानी और पटरानी के रुप में आमने सामने होती हैं। मां और पुत्री के तौर पर कृष्णा पटेल और अनुप्रिया पटेल आमने समाने हैं। पति-पत्नी, ससुर दमाद के खिलाफ, बहू सास के खिलाफ, भाई-भाई के खिलाफ, पिता पुत्र के खिलाफ प्रतिशोध और अदावत की मुद्रा में इस कदर खड़ा है कि मानो पराजित करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। दिल बदलना और दल बदलना हमारे इन नायकों की आदत में शुमार हो गया है। मुलायम सिंह के साथ समाजवादी पार्टी शुरु करने वाले अंबिका चौधरी को मायावती की शरण सुहाने लगती है। बसपा की सदन में आवाज कहे जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य एक झटके में हाथी से उतर कर कमल थाम लेते हैं। और तो और अपने घर का रंग भी बसपाई नीले से बदलने में इन्हें सोचने की जहमत। रीता जोशी और उत्तराखंड के अजय भट्ट जो कांग्रेस के अपने अपने इलाकों में पर्याय हो गये थे वो पल भर में भगवा दुपट्टा ओढने में देर नहीं करते।
निष्ठाओं के बदलने का यह खेल सिर्फ व्यक्ति तक होता तो शायद राजनीति के इन नायको को बचाव के कुछ तर्क मिल जाते। पर यह व्यक्ति की सीमा की लांघ कर दल और विचारधारा तक जा चुका है। धुर विरोध की सियासत से उपजी समाजवादी पार्टी के नए निजाम अखिलेश यादव को एक नया साथ पसंद करवा रहे हैं। जिसमें दो किरदार अखिलेश और राहुल गांधी है। इसे सियासत की विवशता से ज्यादा जीत का जुगत कहा जा सकता है। तभी तो समाजवादी पार्टी से राह अलग कर अपनी मंजिल तय करने का मन बना चुके राजबब्बर अब सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। कभी वह मुलायम सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के साथ मंच साझा करते थे।
जीत के जुगत के लिए हमारे राजनेताओं ने पहले देश और प्रदेश को इलाकों बांटा, फिर भाषा से बांटा, फिर जातियों में बांटा और फिर धर्म में। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा राजनेताओं के हाथ लगते ही हथियार हो गये। सियासत मे दलों का चरित्र बीते जमाने की बात हो गया है। अब सत्ता और विपक्ष का सिर्फ चरित्र रह गया है। जब कोई पार्टी सत्ता में रहती है तो विपक्ष के समय के उसके मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं वह पुरानी सत्ताधारी पार्टी के मुद्दों को ही गति देने लगती है। भाजपा आधार कार्ड की विरोधी थी पर सत्ता में आते ही पक्षधर हो गयी। कांग्रेस ने जीएसटी बिल को सदन के पटल पर रखा। लेकिन विपक्ष में आते ही उसी की विरोधी हो गयी। ऐसे अनंत उदाहरण हैं। मायावती जनता से यह कहकर वोट मांगती हैं कि वह मुलायम-अखिलेश राज के भ्रष्टाचार की जांच कराएंगी जेल भेजेंगी। अखिलेश यादव भी माया राज के खिलाफ कुछ यही कह कर पिछला चुनाव जीत ले जाते हैं। पर मायावती के मंत्रियों के खिलाफ आई लोकायुक्त रिपोर्ट पर कार्यवाही की कलम तक नहीं चलाते।
विरोधाभासों के ऐसे अनेक उदाहरण हमारे राजनैतिक दलों और उनके रहनुमाओं के चरित्र में भरे पड़े हैं। सिसायत में संबंधों को व्यक्ति की सत्ता और प्रतिष्ठा के साथ जोड़ दिया गया है। रिश्ते अराजक हो गये हैं और राजनीतिक क्षितिज्ञ यथार्थ की जगह आभासी नज़र आने लगा है। शब्दों ने अपने अभिप्राय बदल दिए हैं वे नए अर्थ खोजने लगे हैं।नेता समाज का नहीं, मजहबी समूहों और जातियों का प्रतिनिधित्व करने लगे है। वे जातीयता के पक्षधर दिख रहे हैं। परिवारवाद और वंशवाद की बात बीते जमाने की हो गयी है। कल तक जिन पोस्टरों पर कुनबे नज़र आते थे अब वे परिवार तक सिमट गये हैं। सपा में मुलायम, अखिलेश, शिवपाल और रामगोपाल की जगह सिर्फ अखिलेश और डिंपल ने ले ली है। कांग्रेस में इंदिरा, राजीव, जवाहरलाल नेहरू की जगह राहुल और प्रियंका आ गये हैं। पोस्टरों से फिलहाल बची भाजपा ने टिकट बंटवारे में सारी कसर पूरी कर दी। तकरीबन डेढ़ दर्जन सीटों पर परिवारवाद की बेल को बढाया। जिताऊ की खोज में विचारधारा, काडर दोनों की बलि चढ़ा दी।
कोई भी ऐसा दल नहीं है जिसने बाहुबलियों से परहेज किया हो। उत्तर प्रदेश के पहले और दूसरे चरण पर नज़र डालें तो 1555 उम्मीदवारों के हलफनामे बताते हैं कि इनमें 217 ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके खिलाफ गंभीर अपराध हैं। बसपा ने सबसे ज्यादा ऐसे बाहुबली 53 हैं, भाजपा में 45 हैं, सपा में 26 और कांग्रेस के 6 उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध के कई मामले दर्ज हैं। हमारे नेताओं की आर्थिक हैसियत में इजाफे की गति को लेकर अनुमान लगाना मुश्किल है। तभी तो पहले चरण में खडे उम्मीदवारों की संपत्ति का औसत 2.66करोड़ रुपये उनका हलफनामा बयां कर रहा है। समाज में भले ही साक्षरता तेजी से बढ़ रही हो, लोग उच्चशिक्षा की ओर तेजी से मुखातिक हो रहे हों पर हमारे नेताओं ने ठीक उलट दिशा पकड़ रखी है। उनके पास बड़ी डिग्रियां तो हैं पर ज्ञान के मामले में उनके एमएलए का मतलब बताना, राज्यपाल का नाम बताना भी मुश्किल हो रहा है। ऐसे छोटी-छोटी तमाम जानकारियां बड़े बडे डिग्रीधारी तमाम नेताओं के हाथ नहीं हैं।
इन्हें ही हमारा प्रतिनिधित्व करना है। राजनीति ही अर्थव्यवस्था, कला, संस्कृति, साहित्य और समाज के हर आयाम की नियामक होती हैं। राजनीति के नायकों का चरित्र जब तक विरोधाभासों का समुच्य से इतर था वे चुनाव जीतने और हारने के बाद जाति, धर्म, संप्रदाय क्षेत्र से ऊपर उठकर सोचते थे। वे जीत हार से भी ऊपर उठकर सोचते थे तभी तो लोहिया जी दीनदयाल उपाध्याय के प्रचार में गए थे। नेहरु जी ने अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण सुनकर संसद में कहा था कि मैं देश के भावी प्रधानमंत्री को सुन रहा हूं। सरकार बनाने की सद्इच्छा होती थी कि विपक्ष भी मजबूत हो।
अपनी सरकार के खिलाफ पार्टी के नेता फरमान जारी करते थे। त्रावणकोर कोच्चि में समाजवादी सरकार थी। पट्टम थानु पिल्लै मुख्यमंत्री हुआ करते थे। उन दिनों डॉ लोहिया सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेट्री थे। पिल्लै की सरकार ने मजदूरो के प्रदर्शन पर गोली चला दी। लोहिया ने मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग कर डाली। कहा कि जो सरकार मजदूरों पर गोली चलवा दे उसे शासन करने का अधिकार नहीं है। ड़ा लोहिया पार्टी से निकाल दिये गये। हांलांकि उन्होंने साफ किया कि गोली सिर्फ तीन स्थितियों में चलवाई जा सकती है। पहला, व्यापक आगजनी हो रही हो। दूसरा, प्रदर्शनकारी सशस्त्र हों। तीसरा, बडे पैमाने पर जान माल की हानि का अंदेशा हो। इसके अलावा गोली चलाना गलत है।
नेताओं को सबसे बड़ा अभिनेता कहा जाता है पर नेताओं को अभिनेताओं से बहुत कुछ सीखना होगा। फिल्मों की बात की जाय तो लोग नायक, प्रतिनायक और चरित्र अभिनेता को तो याद रखते हैं पर उसे नहीं जो अपनी भूमिकाएं लगातार बदलता रहता है। यह नेताओं के लिए सबसे बड़ी सीख कही जा सकती है।