महज एक साल पहले अमरीका ने जम्मू कश्मीर में हुई कुछ वारदातों को लेकर सहिष्णुता का पाठ पढाया था। अमरीकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रहे जाने केर्वी ने कश्मीर में निर्दोष नागरिकों की मौत का सवाल उठाते हुए कहा था कि दोनों पक्षों को चाहिए कि विवाद का शांतिपूर्ण हल निकालें। भारत में दलितों और अल्पसंख्यकों को लेकर भारत की असहिष्णुता का जिक्र उन्होंने किया था। आज जब पूर्व नौसैनिक कर्मी द्वारा अमरीका के कंसास में मारे गए इंजीनियर श्रीनिवास कुचिभोटला की बार मे गोली मारकर हत्या कर दी गयी। अभी भारत अपने इस जख्म को अमरीकी रिश्तों के तहज भूलने की कोशिश करता कि इसी बीच साउथ कौरोलिना के घर के बाहर हर्निश पटेल को गोलीमार कर मौत की नींद सुला दिया गया। जब तक कोई इससे उबर पाता इस घटना के 24 घंटे के भीतर ही 39 वर्षीय एक सिख व्यक्ति के हाथ में गोली लगी है और हमलावर उन्हें 'अपने देश वापस लौटने के लिए' कह रहा था. घायल सिख की पहचान दीप राय के तौर पर हुई है। उन्होंने से बताया कि वह शुक्रवार को रात आठ बजे ड्राइववे पर अपनी गाड़ी ठीक कर रहे थे कि तभी एक अनजान व्यक्ति उसके पास आया और किसी बात पर उनके बीच बहस हुई। छह फीट लंबे हमलावर का बदन गठीला और गोरा था ।उसने नकाब से चेहरे के निचले आधे हिस्से को ढक रखा था।केंट पुलिस ने इस सिलसिले में एफ़बीआई और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों से संपर्क किया है। केंट के पुलिस चीफ केन थॉमस ने इसे एक गंभीर घटना के तौर पर देखने की बात की है।
यह घटनाएं सचमुच निर्दोष की हत्या का प्रमाण हैं। अमरीका में जम्मू-कश्मीर में जिन लोगों को निर्दोष बताया और जताया था वे वस्तुतः भारत विरोध के पक्ष थे। कुचिभोटला और पटेल न तो अमरीका विरोध के स्वर थे न ही जब उनकी हत्या की गयी तब वह उस देश का कोई कानून तोड़ रहे थे। यही नहीं अमरीका में रहते हुए। उनकी गतिविधियों को लेकर कभी कोई शिकायत कानून लिहाज और फिर समाजिक लिहाज से नहीं मिली है। इनकी गलती महज इतनी थी कि ये अमरीका गए थे। पूर्व नौसैनिक एडम पुरिन्टन ने कुचिभोटला पर गोलीबारी करते समय कहा था , ‘मेरे देश से बाहर चले जाओ’। बार मे शराब पी रहे कुचिभोटला और आलोक मदसानी को एडम ने आतंकवादी भी कहा था। अब अमरीका को समझना चाहिए कि सहिष्णुता का पाठ किसे पढना है और किसे पढ़ाना है।
यह उस देश में हो रहा है जो मूलतः अप्रवासियों का देश है। जहां दुनिया भर से लोग काम, मनोरंजन और पढाई के लिए आते हैं। ऐसे लोगों का यह देश इस्तेकबाल भी करता है। जब बराक ओबामा इस देश के राष्ट्रपति बने थे तो मार्टिन लूथर किंग को याद करते हुए अमरीका ने अपने खाते में उपलब्धियों का एक ऐसा पहाड़ जोड़ा था जिसने उसे वैश्विक राजनीति का अगुवा बना देता है। लेकिन जो कुछ भी इन दोनों भारतीयों के साथ हुआ, पश्चिमी एशिया से आए प्रवासी समझकर जो कुछ हो रहा है, जिस तरह काम करने का वीजा देने के नियम कठोर किए जा रहे हैं, तमाम देशों के अमरीकी प्रवेश पर प्रतिबंध आयद किए जा रहे हैं। उससे यह साबित होता है कि बराक ओबामा का राष्ट्रपति होना सफेद राष्ट्रवाद का कोई बदलाव नहीं था वह एक अप्रत्याशित और मजबूरी का एक ऐसा विकल्प था जिसे चुनना गोरा राष्ट्रवाद की मजबूरी थी। अगर मजबूरी की जगह यह कोई बदलाव होता तो डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद वहां प्रखर राष्ट्रवाद लोगों की बलि नहीं लेता।
मनोविज्ञान के एक सिद्धांत के मुताबिक 21 दिन लगातार कुछ भी करते रहिए तो न केवल आप का दिमाग उसके लिए खुद को तैयार कर लेता है बल्कि शरीर भी उसकी आदी हो जाती है। पर ओबामा पूरे आठ साल राष्ट्रपति रहे पर अमरीका में राष्ट्रवाद को लेकर रंचमात्र बदलाव नहीं हुआ। वहां क्षेत्रवाद की मानसिकता इस कदर दिख रही है जैसे भारत में मनसे जैसी पार्टियां मुंबई के बाहर के लोगों के खिलाफ राजनीति कर अपने सियासी वजूद को बचाने की जोड़ जुगत करते रहते हैं।
अमरीका में कोई बदलाव ऐसा नहीं है जिसके चलते वह हमें सहिष्णुता का पाठ पढाएं जिसके चलते वह दुनिया के सामने सभ्य होने की दुहाई दें। खुद अमरीकी आंकडों के मुताबिक हिंसक अपराधो में 2015 में करीब चार फीसदी (3.9)की बढत हुई है। यह एफबीआई की वार्षिक है रिपोर्ट जिसमें अपराध प्रवर्तन एजेंसियों ने देश भर में यूनीफार्म क्राइम रिपोर्टिंग प्रोग्राम के तहत आकंडे रिलीज किए थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक 1197704 में हिंसक अपराध के मामले बढे हैं। इसी रिपोर्ट के आंकडे कहते हैं कि अमरीका में 15696 हत्या हुईं हैं। इसी साल 90185 दुराचार हुए और 327374 लूट की घटनाएं हुईँ। अमरीका में हुई कुल हत्याओं में 71.5 फीसदी हत्याओं में असलहों का इस्तेमाल किया गया।
ट्रंप के प्रचार के दौर में ही यह दिखने लगा था कि अमरीका वैश्विक नेतृत्व करने की जगह खुद की खोल में सिमटने की ज्यादा कोशिश कर रहा है। य़ही वजह थी कि अमेरिका फर्स्ट जैसे नारे, मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने का जिक्र हुआ, आतंकवादियों की जगह मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया जो अमरीका भारत को पाठ पढ़ाता है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले अत्याचार असहिष्णुता के प्रतीक हैं उसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि हर अल्पसंख्यक आतंकवादी नहीं होता है। उसे आतंकवादी और अल्पसंख्यक में अंतर समझना होगा। यह बात दूसरी है कि आतंकवाद की जड़ में खाद पानी ड़ालने का काम करने वालों में अमरीका का भी नाम शुमार है। पाकिस्तान के मदरसों में पढ रहे बच्चों के हाथ में एके 47 पकड़ाकर उन्हें रूस के खिलाफ तालिबानी ताकत बनाने में अमरीका का कम योगदान नहीं है या फिर ओसामा बिन लादेन को आतंकवाद का ककहरा भी अमरीकी सियासी विचारधारा और विदेशनीति से ही मिला है।
अमरीका फर्स्ट नीति महान नहीं बनाती वह असहिष्णुता पैदा करती है। आप किसी से खुद को इतर और बड़ा बताते है तो यह साफ होता है कि आप इसके लिए कुछ ऐसा नहीं कर रहे हैं कि लोग खुद ही बडा बताएं।
रामचरित मानस में अपने मुख से अपने करनी को कहना अच्छा नहीं बताया गया है। प्रखर राष्ट्रवाद, अमरीका फर्स्ट, खुद को खुश कर लेता तो कोई बात नहीं। वह दूसरों को आहत भी करता है। भारत को अमरीकी नसीहत की जरुरत नहीं रही है। किसी भी देश पर अपनी सीमाओं से बाहर हमला करने का कोई ज्ञात भारतीय इतिहास नहीं है। भारत जब विश्व गुरु था तो महज इसलिए कि वह और उसकी संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम् यानी दुनिया को परिवार मानती थी। वह सबके कल्याण की कामना करता है। हमारी संस्कृत भाषा में ऐसे तमाम श्लोक हैं जो अपने लिए नहीं समाज के लिए, देश के लिए और दुनिया के लिए मंगलगान करते हैं।
भारत में जो अल्पसंख्यकों को जो ओहदा, सामाजिक हैसियत, राजनीतिक ताकत और भाईचारा हासिल है वह दुनिया के किसी देश में अल्पसंख्यकों को मयस्सर नहीं है। मनुष्यता सिर्फ भौतिक शोध से संभव नहीं है। केवल इसी से जीवन नहीं चल सकता। जीवन और समाज के लिए भावात्मक, संवेदनात्मक सौंदर्यबोध, सांस्कृति स्त्रोत और सहअस्तित्व भी चाहिए। इसका अमरीका में सर्वथा अभाव दिख रहा है। दिक्कत यह है कि इस अभाव को भाव में बदलने, अपनी इस कमी को दूर करने के लिए अमरीका तैयार भी नहीं दिख रहा है। तभी व्हाइट हाउस के उप प्रेस सचिव सैंडर्स ने अपने बयान में इस पूरी घटना की निंदा करने के साथ यह कह दिया कि भारतियों को स्पष्ट रुप से गलती से पश्चिम एशिया से आए प्रवासी समझ लिया था। खुद को अमरीका सबसे पुराना लोकतंत्र बताता है, भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र जबकि उसे यह जानना चाहिए कि भारत ही सबसे पुराना और सबसे बड़ा लोकतंत्र है। उसके लोकतंत्र में अतिथि देवो भव है। उसके लोकतंत्र में धर्मांतरण है ही नहीं, उसके लोकतंत्र में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की विभाजक रेखा रही ही नहीं है। जो विसंगतियां हममे आईं और समाई वह भी तभी जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनियों के नुमांइदे भारत में आए और उन्होंने गोरों की सत्ता कायम करा दी।
माओत्से तुंग के बाद 1978 के कम्युनिस्ट पार्टी के एक सम्मेलन में यह स्वीकार किया था कि हमसे गलतियां हुईँ और उसने अपना रास्ता बदला। तब आज जाकर चीन दुनिया के लिए एक मिसाल बन गया। अमरीका को अगर मिसाल बने रहना है तो अपनी गलतियां माननी होगी।
दरअसल ‘आई हैव ए ड्रीम’ के नाम से प्रसिद्ध अमरीका के सबसे बड़े नेताओ में से एक मार्टिन लूथर किंग ने कहा था ‘‘मेरा एक सपना है कि एक दिन यह देश खड़ा होगा और अपने सिद्धांत के सच्चे मायनों को जिएगा। मेरा एक सपना है कि मेरे चार बच्चे एक दिन ऐसे देश में रहेंगे जहां उनके बारे में कोई फैसला उनकी त्वचा के रंग के आधार पर नहीं बल्कि उनके चरित्र के आधार पर होगा। आज मैं यह स्वप्न देखता हूं।’’ अब अमरीका को तय करना है कि उसे मार्टिन लूथर किंग के सपनों को जीना है या नहीं।
यह घटनाएं सचमुच निर्दोष की हत्या का प्रमाण हैं। अमरीका में जम्मू-कश्मीर में जिन लोगों को निर्दोष बताया और जताया था वे वस्तुतः भारत विरोध के पक्ष थे। कुचिभोटला और पटेल न तो अमरीका विरोध के स्वर थे न ही जब उनकी हत्या की गयी तब वह उस देश का कोई कानून तोड़ रहे थे। यही नहीं अमरीका में रहते हुए। उनकी गतिविधियों को लेकर कभी कोई शिकायत कानून लिहाज और फिर समाजिक लिहाज से नहीं मिली है। इनकी गलती महज इतनी थी कि ये अमरीका गए थे। पूर्व नौसैनिक एडम पुरिन्टन ने कुचिभोटला पर गोलीबारी करते समय कहा था , ‘मेरे देश से बाहर चले जाओ’। बार मे शराब पी रहे कुचिभोटला और आलोक मदसानी को एडम ने आतंकवादी भी कहा था। अब अमरीका को समझना चाहिए कि सहिष्णुता का पाठ किसे पढना है और किसे पढ़ाना है।
यह उस देश में हो रहा है जो मूलतः अप्रवासियों का देश है। जहां दुनिया भर से लोग काम, मनोरंजन और पढाई के लिए आते हैं। ऐसे लोगों का यह देश इस्तेकबाल भी करता है। जब बराक ओबामा इस देश के राष्ट्रपति बने थे तो मार्टिन लूथर किंग को याद करते हुए अमरीका ने अपने खाते में उपलब्धियों का एक ऐसा पहाड़ जोड़ा था जिसने उसे वैश्विक राजनीति का अगुवा बना देता है। लेकिन जो कुछ भी इन दोनों भारतीयों के साथ हुआ, पश्चिमी एशिया से आए प्रवासी समझकर जो कुछ हो रहा है, जिस तरह काम करने का वीजा देने के नियम कठोर किए जा रहे हैं, तमाम देशों के अमरीकी प्रवेश पर प्रतिबंध आयद किए जा रहे हैं। उससे यह साबित होता है कि बराक ओबामा का राष्ट्रपति होना सफेद राष्ट्रवाद का कोई बदलाव नहीं था वह एक अप्रत्याशित और मजबूरी का एक ऐसा विकल्प था जिसे चुनना गोरा राष्ट्रवाद की मजबूरी थी। अगर मजबूरी की जगह यह कोई बदलाव होता तो डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद वहां प्रखर राष्ट्रवाद लोगों की बलि नहीं लेता।
मनोविज्ञान के एक सिद्धांत के मुताबिक 21 दिन लगातार कुछ भी करते रहिए तो न केवल आप का दिमाग उसके लिए खुद को तैयार कर लेता है बल्कि शरीर भी उसकी आदी हो जाती है। पर ओबामा पूरे आठ साल राष्ट्रपति रहे पर अमरीका में राष्ट्रवाद को लेकर रंचमात्र बदलाव नहीं हुआ। वहां क्षेत्रवाद की मानसिकता इस कदर दिख रही है जैसे भारत में मनसे जैसी पार्टियां मुंबई के बाहर के लोगों के खिलाफ राजनीति कर अपने सियासी वजूद को बचाने की जोड़ जुगत करते रहते हैं।
अमरीका में कोई बदलाव ऐसा नहीं है जिसके चलते वह हमें सहिष्णुता का पाठ पढाएं जिसके चलते वह दुनिया के सामने सभ्य होने की दुहाई दें। खुद अमरीकी आंकडों के मुताबिक हिंसक अपराधो में 2015 में करीब चार फीसदी (3.9)की बढत हुई है। यह एफबीआई की वार्षिक है रिपोर्ट जिसमें अपराध प्रवर्तन एजेंसियों ने देश भर में यूनीफार्म क्राइम रिपोर्टिंग प्रोग्राम के तहत आकंडे रिलीज किए थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक 1197704 में हिंसक अपराध के मामले बढे हैं। इसी रिपोर्ट के आंकडे कहते हैं कि अमरीका में 15696 हत्या हुईं हैं। इसी साल 90185 दुराचार हुए और 327374 लूट की घटनाएं हुईँ। अमरीका में हुई कुल हत्याओं में 71.5 फीसदी हत्याओं में असलहों का इस्तेमाल किया गया।
ट्रंप के प्रचार के दौर में ही यह दिखने लगा था कि अमरीका वैश्विक नेतृत्व करने की जगह खुद की खोल में सिमटने की ज्यादा कोशिश कर रहा है। य़ही वजह थी कि अमेरिका फर्स्ट जैसे नारे, मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने का जिक्र हुआ, आतंकवादियों की जगह मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया जो अमरीका भारत को पाठ पढ़ाता है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले अत्याचार असहिष्णुता के प्रतीक हैं उसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि हर अल्पसंख्यक आतंकवादी नहीं होता है। उसे आतंकवादी और अल्पसंख्यक में अंतर समझना होगा। यह बात दूसरी है कि आतंकवाद की जड़ में खाद पानी ड़ालने का काम करने वालों में अमरीका का भी नाम शुमार है। पाकिस्तान के मदरसों में पढ रहे बच्चों के हाथ में एके 47 पकड़ाकर उन्हें रूस के खिलाफ तालिबानी ताकत बनाने में अमरीका का कम योगदान नहीं है या फिर ओसामा बिन लादेन को आतंकवाद का ककहरा भी अमरीकी सियासी विचारधारा और विदेशनीति से ही मिला है।
अमरीका फर्स्ट नीति महान नहीं बनाती वह असहिष्णुता पैदा करती है। आप किसी से खुद को इतर और बड़ा बताते है तो यह साफ होता है कि आप इसके लिए कुछ ऐसा नहीं कर रहे हैं कि लोग खुद ही बडा बताएं।
रामचरित मानस में अपने मुख से अपने करनी को कहना अच्छा नहीं बताया गया है। प्रखर राष्ट्रवाद, अमरीका फर्स्ट, खुद को खुश कर लेता तो कोई बात नहीं। वह दूसरों को आहत भी करता है। भारत को अमरीकी नसीहत की जरुरत नहीं रही है। किसी भी देश पर अपनी सीमाओं से बाहर हमला करने का कोई ज्ञात भारतीय इतिहास नहीं है। भारत जब विश्व गुरु था तो महज इसलिए कि वह और उसकी संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम् यानी दुनिया को परिवार मानती थी। वह सबके कल्याण की कामना करता है। हमारी संस्कृत भाषा में ऐसे तमाम श्लोक हैं जो अपने लिए नहीं समाज के लिए, देश के लिए और दुनिया के लिए मंगलगान करते हैं।
भारत में जो अल्पसंख्यकों को जो ओहदा, सामाजिक हैसियत, राजनीतिक ताकत और भाईचारा हासिल है वह दुनिया के किसी देश में अल्पसंख्यकों को मयस्सर नहीं है। मनुष्यता सिर्फ भौतिक शोध से संभव नहीं है। केवल इसी से जीवन नहीं चल सकता। जीवन और समाज के लिए भावात्मक, संवेदनात्मक सौंदर्यबोध, सांस्कृति स्त्रोत और सहअस्तित्व भी चाहिए। इसका अमरीका में सर्वथा अभाव दिख रहा है। दिक्कत यह है कि इस अभाव को भाव में बदलने, अपनी इस कमी को दूर करने के लिए अमरीका तैयार भी नहीं दिख रहा है। तभी व्हाइट हाउस के उप प्रेस सचिव सैंडर्स ने अपने बयान में इस पूरी घटना की निंदा करने के साथ यह कह दिया कि भारतियों को स्पष्ट रुप से गलती से पश्चिम एशिया से आए प्रवासी समझ लिया था। खुद को अमरीका सबसे पुराना लोकतंत्र बताता है, भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र जबकि उसे यह जानना चाहिए कि भारत ही सबसे पुराना और सबसे बड़ा लोकतंत्र है। उसके लोकतंत्र में अतिथि देवो भव है। उसके लोकतंत्र में धर्मांतरण है ही नहीं, उसके लोकतंत्र में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की विभाजक रेखा रही ही नहीं है। जो विसंगतियां हममे आईं और समाई वह भी तभी जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनियों के नुमांइदे भारत में आए और उन्होंने गोरों की सत्ता कायम करा दी।
माओत्से तुंग के बाद 1978 के कम्युनिस्ट पार्टी के एक सम्मेलन में यह स्वीकार किया था कि हमसे गलतियां हुईँ और उसने अपना रास्ता बदला। तब आज जाकर चीन दुनिया के लिए एक मिसाल बन गया। अमरीका को अगर मिसाल बने रहना है तो अपनी गलतियां माननी होगी।
दरअसल ‘आई हैव ए ड्रीम’ के नाम से प्रसिद्ध अमरीका के सबसे बड़े नेताओ में से एक मार्टिन लूथर किंग ने कहा था ‘‘मेरा एक सपना है कि एक दिन यह देश खड़ा होगा और अपने सिद्धांत के सच्चे मायनों को जिएगा। मेरा एक सपना है कि मेरे चार बच्चे एक दिन ऐसे देश में रहेंगे जहां उनके बारे में कोई फैसला उनकी त्वचा के रंग के आधार पर नहीं बल्कि उनके चरित्र के आधार पर होगा। आज मैं यह स्वप्न देखता हूं।’’ अब अमरीका को तय करना है कि उसे मार्टिन लूथर किंग के सपनों को जीना है या नहीं।