ये कहां जा रहे हैं हम, क्या रुकेंगे......

Update:2017-04-25 12:35 IST
वर्ष 1963 में बर्मिंघटम जेल में अमरीका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था- ‘जस्टिस टू लांग डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’  इसका सीधा और सपाट अर्थ लगाया जाय तो इसका मतलब है कि -विलंबित न्याय न्याय की कोटि में नहीं आता है। उस समय सचमुच न्यायपालिका में एक ही खामी थी कि लोगों को न्याय बहुत देर से मिलता था। कई बार देर से मिले न्याय का लाभ पीड़ित पक्ष को नहीं मिल पाता था। लेकिन आज न्यायपालिका इस एक कमजोरी से बहुत आगे निकल गयी है। सभी तंत्रों और व्यवस्थाओं ने काल की गति के साथ विकास की जो यात्रा की उसमें पुरानी आदतों, गलतियों, समस्याओं को तजा। यह बात दूसरी है कि, नई तरह की कई तरह की समस्याएं जन्मीं पर न्यायापालिका के क्षेत्र में विलंबित न्याय की समस्याओं के अलावा भी नई समस्याओं ने जन्म लिया।
पुरानी और नई समस्याओं के साथ-साथ होने की वजह से अदालत के तमाम फैसले, कई न्यायाधीश अपने काम काज के जरिए विवाद के केंद्र में बने हैँ। यह मुट्ठीभर भले हों पर अदालत की साख पर बड़ा बट्टा लगाते हैं। बीते दिनों लखनऊ सत्र न्यायालय में सूबे के बहुचर्चित और विवादित पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति को जमानत थमा दी, यह बात दूसरी है कि अन्य कई मामलों में वांछित गायत्री जमानत का लुत्फ नहीं ले पाए। महज 5-7 साल में दीन से कुबेर तक की यात्रा करने वाले गायत्री प्रजापति समाजवादी पार्टी के विघटन के न्यूक्लिस कहे जा सकते हैं। पार्टी में सभी मतभेद और अखिलेश सरकार के प्रति उरजी उपेक्षा का केंद्र भी गायत्री ही थे। पर इन सबके साथ सबूतों गवाहों को दरकिनार करते हुए एक जज ने सेवानिवृति के चंद दिन पहले उन्हें जमानत दे दी। हालांकि उत्तर प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश डी बी भोसले ने इस फैसले के प्रकाश में आते ही न्यायाधीश के खिलाफ कार्रवाई के आदेश दे दिए।
उत्तर प्रदेश के इससे पहले के न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने तमाम दागी जजों की छुट्टी कर दी थी। यह कार्रवाओई भले ही न्यायपालिका के लिए शुभ संकेत मानी जाए पर जनता को नज़र में यह एक बीमारी का उपचार है जो खत्म होने वाली नहीं है। इसकी वजह भी साफ है हमने अभी तक अदालतों को गंगा की तरह पवित्र मान रखा है। अदालतों के मानहानि की ऐसी विस्तृत और समर्थ व्याख्या है कि उसके सामने बड़े बड़े लोग असमर्थ हो जाते हैं। आप कल्पना करें कि अयोध्या के मंदिर विवाद का मालिकाना हक का मुकदमा एक अदालत में चलता और अदालत फैसले में तीन पक्षकारों को बराबर हिस्सा देने का ऐलान कर देती है। अनुसूचित जाति के लोगों को प्रोन्नति में आरक्षण न मिले इसका फैसला सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यों की पीठ सर्वसममति से देती है। सेवानिवृति होने के बाद उसी में से एक न्यायाधीश प्रोन्नति में आरक्षण का अभियान चलाता है। इनका नाम के जी बालकृष्णन है जो भारत में मुख्य न्यायाधीश भी थे।
मायावती ने मुलायम के खिलाफ तमाम जिलो में अनगिनत मुकदमे लिखवाए। उत्तर प्रदेश मे उच्चन्यायालय की दो पीठें- लखनऊ और इलाहाबाद हैं। इनके कार्यक्षेत्र जिले के हिसाब से बंटे हैं। पर एक न्यायाधीश ने कार्यक्षेत्र में बंटवारे की परवाह किए बिना सूबे के सभी जिलों में दर्ज मुकदमे एक ही फैसले में खत्म कर दिए। मार्कंडेंय काटजू को शायद आसानी से नहीं भूला जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय से सेवावनिवृत्ति के बाद मार्कंडेय काटजू ने कैटरीना कैफ को राष्ट्रपति बनाने की पैरवी शुरु कर दी, महात्मा गांधी पर अभद्र टिप्पणी कर ड़ाली। हत्या की एक आरोपी उत्तरप्रदेश के राजनैतिक परिवार के एक सदस्य ने अदालत से अपने से सिर्फ जमानत मांगी थी पर मेहरबानी इतनी बरसी कि उन्हें हत्या के आरोप से छुटकारा ही मिल गया।
6 दिसंबर 1992 में जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्राहन की अगुवाई में एक आयोग बनाया गया। मामले की जांज 17 साल चली पर लिब्राहन साहब कभी मौका-ए-वारदात यानी अयोध्या ही नहीं गये। राजस्व के अधिकांश मामले अदालत के चलते पीढियां निगल जाते हैं। चेक बाउंस होने के हालिया कानून को देखें तो दिल्ली और उत्तर प्रदेश की अदालतें अलग-अलग तरह का स्टैंड रखती हैं। दिल्ली की अदालत तुरंत न्याय दिलाती है। उत्तर प्रदेश में पांच-पांच साल तक मुकदमें चलते है। हालांकि इन मुकदमों को निपटाने के लिए सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश को दोबारा पुनर्नियोजित किया गया है।
सवाल यह उठता है कि एक ही कानून की कई व्याख्या कैसे हो सकती है। अनंत व्याख्या कैसे हो सकती है। किताब में लिखा हआ कानून हर आदमी को अलग अलग न्याय क्यों और कैसे दिलाता है। जो लोग भी अदालत गए होंगें उनसे मिलिए और पूछिए। जिन्हें अदालत ने राहत पहुंचाई वह खर्च की मार से परेशान होंगो और जिन्हें राहत नहीं उनकी शिकायत लाजमी है। यानी अदालत से लौटा हर शख्स परेशान सा है।
सवाल मौजूं है कि- हर शख्स परेशान क्यूं है? इसका जवाब अदालत को ही देना होगा। भोसले और चंद्रचूड़ ने जो कुछ भी किया वह इसी का जवाब थो, लेकिन मद्रास हाईकोर्ट के पदस्थापित न्यायाधीश करनन जब प्रधानमंत्री को 20 भ्रष्ट जजों की सूची सौंपने की बात की, सीबीआई को 26 जजों के खिलाफ जांच करन पड़ती हो इनमें निचली अदालत के 12, हाईकोर्ट के 6 अवकाश प्राप्त और 7 वर्तमान जजों साथ ही साथ सुप्रीम कोर्ट के एक जज का नाम शामिल हो, तो समझा जा सकता है कि बीमारी कितनी गहरी है। कितनी पसर चुकी है। मार्कंडेय काटजू ने तो अपने ब्लाग में 50 फीसदी भारतीय जजों को भ्रष्ट बताकर हंगामा खड़ा कर दिया था। वर्ष 2001 ने  मुख्यन्यायाधीश भरुच ने 20 फीसदी जजों के प्रति सवाल उठाए थे। जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने यह टिप्पणी की थी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ गलत हो रहा है।
शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर कहा था पूर्व के 16 न्यायाधीश ठीक नहीं थे। शांति भूषण एक्टोविस्ट है। सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील है। देश के कानून मंत्री भी रह चुके हैं। भारत में महाभियोग क नितांत दुरूह प्रक्रिया है, असंभव सी भी कह सकते है। बावजूद इसके राज्यसभा ने इन दोनों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित कर दिया। सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी वी दिनकरन के खिलाफ महाभियोग को तैयारी चल रही थी कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
यह सब महज लक्षण नहीं है यह बताते हैं कि बीमारी कितनी पसरी हुई है। कितनी गहरे तक बैठ गयी है। यह भी हैरत अंगेज है कि इस बीमारी को समूल नष्ट करने के लिए कोई आवाज अंदर से नहीं उठ रही है। जो आवाजें उठाई भी जा रही है वे मानहानि की चाबुक से इतनी भयभीत है जो कुछ हो रहा है उसका अंश बाहर आ रहा है। आखिर क्यों तकरीबन सवा तीन करोड़ मुकदमे लंबित होने के बाद भी समर और विंटर और वैकेशन ली जानी चाहिए। क्यों नहीं आगे बढ़कर काम के घंटे बढ़ाकर जनता को राहत पहुंचाई जानी चाहिए। इनमें एक करोड़ मुकदमे तो महज ऐसे हैं जो बेजा चल रहे हैं। वादी अथवा प्रतिवादी मिलीभगत से चला रहे है।
इस पूरे खेल में अदालत तक बात पहुंचाने की मध्यस्था करने और कानून की व्याख्या की जिम्मेदारी ढोने वाला वकील तबका भी कम जिम्मेदार नहीं है। भारत मे सबसे अधिका हड़ताल, धरना प्रदर्शन करने वालों मे वकील अगुवा है। अब तो ट्रेड यूनियन भी हड़ताल धरना प्रदर्शन नहीं करती हैं। जो तबका जनता के एक दम अलग है, समाज की भागीदारी से बचा रहे, जो तबका अपनी निजता की प्रतिष्ठा से ऊपर न उठ सके। जिस तबके की जवाबदेही की लक्ष्मणरेखा अनंत हो उस तबके के लिए अनिवार्य हो जाता है कि जनता का ट्रायल हो, मीडिया का ट्रायल हो। इन सबसे न्यायपालिका को बचाकर रखा गया है। आखिऱ लोकतंत्र का एक स्तंभ इतना सुरक्षित क्यों हो। इसी सवाल का जवाब न्यायपालिका की साख की पुनर्स्थपना करेगा और मार्टिन लूथ किंग के चिंताओं को दूर भी करेगा।
 

 

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