कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके में एक स्वयंसेवी संगठन ने यह नारा लिखा था-
मिले अगर हवा पानी शुद्ध पैदा होंगे गौतम बुद्ध।
यह इलाका सीधे तौर से बुद्ध से जुड़ा है। हवा और पानी के शुद्ध करने की दिशा में हम भले पहल नहीं कर पाये। आगे नहीं बढ़ पाये, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस नारे का मतलब ठीक से समझ लिया। इस दिशा में आगे बढ़ गईं। उन्होंने हवा और पानी के ऐसे बड़े कारोबार पैदा कर लिये कि जिस देश में पानी का रिश्ता वरूण देव से हो उस देश में पानी बाजार की वस्तु बन गया। हवा जो सबके लिए एक सरीखी उपलब्ध है उसकी भी कोटियां गढ़ दी गईं। कनाडा की एक कंपनी ने शुद्ध हवा के नाम पर चांदी काटने की लम्बी तैयारी कर ली है।
पानी का कारोबार कितना पसर गया है यह इसी से समझा जा सकता है कि गांव में बोतलबंद पानी जगह बना ली है। स्टार्टअप के रूप में शुरू हुई। वाइटेलिटी कंपनी ने भारत में भी बोतलबंद शुद्ध हवा बेचने के लिए सर्वे शुरू करा दिया। जल्द ही दिल्ली के बाजार में यह कंपनी बोतलबंद हवा बेचना शुरू कर देगी। इसकी कीमत १४५० रूपये से लेकर २८०० रूपये तक होगी। हवा के इस कारोबार में एक सांस की कीमत तकरीबन १२.५० रूपये बैठेगी। जंगल और पहाड़ से यह हवा इक_ी की जायेगी। निरंतर बढ़ते प्रदूषण ने इस कारोबार को जगह दी है। हवा में ७८ फीसदी नाइट्रोजन, २१ फीसदी ऑक्सीजन, ०.०३ फीसदी कार्बनडाइआक्साइड और ०.९७ फीसदी अन्य गैसें होती हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक पृथ्वी के वायुमंडल में करीब ६ लाख अरब टन हवा है। हवा की अनिवार्यता इससे भी समझी जा सकती है कि आदमी रोजाना जो कुछ खाता-पीता है उसमें ७५ फीसदी हिस्सा हवा का होता है। एक आदमी रोज तकरीबन २२ हजार बाद सांस लेता है। इस लिहाज से रोज वह ३५ गैलन हवा गटक जाता है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के २० प्रदूषित शहरों में से १८ एशिया में हैं। इसमें १३ अकेले भारत में हैं। देश के १२१ शहरों में वायु प्रदूषण का आंकलन करने वाला केन्द्रिय प्रदूषण मंडल की माने तो किसी भी शहर की आवोहवा अब विशुद्ध नहीें रह गई है। इस लिहाज से बोतलबंद हवा के करोबार के विस्तार की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगी। इस कंपनी ने प्रयोग के तौर पर वर्ष २०१४ में हवा भरी थैलियां बेचने की शुरूआत की थी। कंपनी के संस्थापक मोसेजलेम के मुताबिक थैलियों की पहली खेप हाथों हाथ बिक गई। इसी ने उनके हौसलों को पंख लगा दिया। भारत ही नहीं, अमेरिका और मध्य पूर्व के देश बोतलबंद हवा के बड़े खरीददार नजर आ रहे हैं। चीन में तो पहले से तो यह कारोबार फल-फूल रहा है।
वर्ष २०१५ की गर्मियों में कनाडा के कालागेरी जंगलों में आग गई। नतीजतन, चारों ओर धुंआ फैल गया और लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी। यहीं से हवा के बाजारीकरण के सपने हकीकत में तब्दील होने लगे। रिसर्च फर्म वैल्यूनोट्स के मुताबिक वर्ष २०१८ तक भारत में पानी का कारोबार १६ हजार करोड़ रूपये तक पहुंचने का अनुमान है। देश में बोतलबंद पानी का सालाना कारोबार तकरीबन २२ फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है। यह कारोबार अभी उन तकरीबन ७.६ करोड़ लोगों तक नहीं पहुंच पाया है जिन्हें पीने
का पानी मयस्सर ही नहीं है, क्योंकि इनकी क्रय शक्ति पानी खरीदने की नहीं है। १९४७ में एक आदमी के हिस्से ६०४२ क्यूबीक मीटर पानी उपलब्ध था। आज यह घटकर १४९५ क्यूबीक मीटर रह गया है। पानी के कारोबार की शुरूआत महज २७ साल पहले १९९० में बिसलेरी ने की थी। बोतलबंद पानी के बाजार का ६७ फीसदी हिस्सा बिसलेरी, पेप्सीको, कोकाकोला, धारीवाल और पार्ले के पास है।
शुद्ध हवा बेचने वाली करोबारियों को पानी से अधिक हवा के कारोबार और बाजार की उम्मीद है। यह उम्मीद बेमानी भी नहीं है। समाज को बाजार और आदमी को आर्थिक मानव बनाने में जुटी कंपनियां हवा और पानी के बाजारीकरण तक ही खुद को रोक लेतीं, तो शायद उन्हें क्षमा किया जा सकता था, लेकिन वर्ष १९५१ में खाड़ी युद्ध के बाद नई विश्व व्यवस्था के नाम पर अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश सीनियर की अगुवाई में अमेरिका ने भूमंडलीयकरण का जो ताना-बाना बुना, जिसे हमने विश्व ग्राम के नाम पर अपनाया और आगे बढ़ाया। जिसे लेकर हम खुश होते रहे कि एक क्लिक पर पूरी दुनिया हमारी लेकिन नृशंस बाजारवाद ने हमारी मानवीय संवेदनाओं को इस कदर रौंदकर रख दिया कि अब मां के दूध के कारोबार भी शुरूआत हो गई है। कम्बोडिया की लाचार और गरीब महिलाओं के दूध को इक_ा कर अमेरिकी माताओं के लिए निर्यात किया जा रहा है। बच्चे के लिए अमृत तुल्य यह दूध विवश माताएं बेच रही हैं। हालांकि यूनिसेेफ ने इस करोबार के खिलाफ आवाज उठाई है। कम्बोडिया के यूटा स्थित कंपनी अम्ब्रोसिया ने इस नायाब कामकाज को अंजाम देना शुरू किया। इसने कम्बोडिया मानव ब्रेस्ट मिल्क खोला। १४७ मिलीलीटर यह दूध २० डॉलर में बेचा जाता है।
कारोबार की बढ़ती यह प्रवृत्ति और प्रकृति तथा मशीनीकरण के इस युग में यह तो साबित होता ही जा रहा है कि पैसा निरंतर बड़ा आकार ग्रहण कर रहा है। हर चीज को मूल्य से जोड़ा जा रहा है। प्रकृति ने हवा,
पानी, समय सबको एक सरीखे दिये थे। सांस के लिए सभी जीव को हवा चाहिए थी। सभी जीव का पानी चाहिए था। सभी मनुष्यों को निश् िचत और निर्धारित २४ घंटे ही दिये गये थे। पर मनुष्य ने प्रकृति के इन नियमों से अगल खड़े होने की ठानी है। उसने इस दिशा में कुछ मील के पत्थर भी गाड़े हैं, पर कई मील के पत्थर जम़ीदोज भी किये हैं। उससे जिस तरह समूचे समाज को आर्थिक ताने-बाने के गिरफ्त में जकड़ लिया है उससे मानव से मानव के बीच रिश्ते, समाज में आपसी रिश्तों के आधार, एक दूसरे के सुख-दुख बांटने का चलन, सब खिर रहे हैं। हवा, पानी, मां का दूध यह सब कारोबार के हिस्से हो जायेंगे तो आम लोगों को मयस्सर नहीं होंगे। जब से पानी का कारोबार करने देशी-विदेशी कंपनियां उतरीं तब से हमारे ताल-तलैया, पोखर सूख गये। नदियों की धारा का जल प्रवाह कम हो गया। यह हमारे लिये दुर्भाग्य नहीें तो और क्या है कि हम जिस-जिस चीज को सहेजने की कोशिश करते हैं वह और खत्म होती जाती है। हमने हिन्दी को सहेजने की कोशिश की उसकी दुर्दशा आम है। हमने संस्कारों को सहेजने की कोशिश की वह निरंतर कम हुआ। हमने लड़की बचाने की कोशिश शुरू की बेटियां-औरतें गायब होने लगीं। हमने प्रदूषण पर चिंता जताई निरंतर बढऩे लगा। हमने गाय और गंगा को बचाने के जितने भी वायदे किये उतनी ही ये हमसे दूर होती गईं। ऐसे में पिछली नियति से सबकुछ बचाने की जगह नई नियति गढऩी चाहिए, क्योंकि जब हमारे पूर्वजों ने गाय, गंगा, पानी, पेड़, अन्न को भगवान के साथ जोड़ा था, जानवरों को भगवान की सवारी बताई थी तब ये निरंतर बढ़ रहे थे और संरक्षित थे।