किसी भी समाज के सुसभ्य और संस्कृत होने का सबसे बड़ा पैमाना यह है कि उस समाज में महिलाओं की स्थिति क्या है? यही बताता है कि समाज ने कितनी और किस दिशा में प्रगति की है? जब हम भारत को सोने की चिडिय़ा कहा करते थे तब हमारे समाज में महिलाओं के लिए- सती प्रथा, बाल विवाह और विधवाओं द्वारा अभिशप्त जीवन जीने जैसे चलन थे। राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर और दयानंद सरस्वती सरीखे तमाम लोगों ने इस दिशा में पहल की। आज यह सब बीते दिनों की बात हो गई है। लेकिन जब देश में अल्पसंख्यक कहे जा रहे समाज में महिलाओं को शोषण मुक्त करने के लिए तीन तलाक, हलाला और बहु विवाह सरीखे मुद्दे पर अदालती सुनावाई जारी है, तो ऐसा लग रहा मानो आसमान सिर पर उतर आया हो।
चारों तरफ इस कदर शोर-शराबा मचाया जा रहा है कि मानो भाजपा सरकार अपने किसी पुराने प्रतिशोध पर उतर आई हो। ऐसा सोचने और मानने वालों की तादाद बहुत बड़ी है। लेकिन इन लोगों को इस सच्चाई से आंख नहीं चुराना चाहिए कि अदालत में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए नरेंद्र मोदी सरकार जिम्मेदार नहीं है। सच यह है कि कर्नाटक की एक महिला फूलवती ने सर्वोच्च अदालत में हिंदू उत्तराधिकार कानून के तहत पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए याचिका दायर की। प्रकाश एवं अन्य बनाम फूलवती एवं अन्य की सुनवाई के दौरान प्रकाश के वकील ने कहा कि हिंदू कानूनों में कमियों की बात तो कर रहे हैं पर मुस्लिम पर्सनल लॉ में ऐसे बहुत प्रावधान हैं जो मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ हैं।
जस्टिस अनिल दवे और एके गोयल ने स्वत: संज्ञान लेते हुए पीआईएल दायर करने का फैसला सुना दिया। इसी पीआईएल पर अदालत ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा। यह जानना इसलिए जरूरी है ताकि जो लोग इसे भाजपा की प्रतिशोध नीति का परिणाम मान रहे हैं, उनकी आंखें खुल जाएं। इसके बाद फरवरी, २०१६ में शायरा बानो ने सर्वोच्च अदालत में तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिये जाने की गुहार लगाई। इसमें आफरीन, रहमान, नीलोफर समेत चार अन्य महिलाओं के नाम जुड़े। इस सुनावाई का कोई भी रिश्ता समान नागरिक संहिता से नहीं जुड़ता है। फिर भी हाय-तौबा मचाकर यह बताया और जताया जा रहा है कि केंद्र की भाजपा सरकार अपने पुराने एजेंडे समान नागरिक संहिता को लागू करना चाहती है।
लोकतंत्र के लिहाज से देखें तो नरेंद्र मोदी की स्पष्ट बहुमत की सरकार को अपने एजेंडे लागू करने का जनादेश हासिल है। पर मोदी सरकार सर्वोच्च अदालत के सामने जो अपना पक्ष रख रही है वह केवल उसके एजेंडे का हिस्सा नहीं है, बल्कि तकरीबन पच्चास हजार मुस्लिम स्त्री-पुरुषों ने अपन दस्तखत का ज्ञापन प्रधानमंत्री को दिया है, जिसमें तीन तलाक के खिलाफ गुस्सा है। हलाला के खिलाफ नाराजगी और कई बीवियां रखने पर प्रतिबंध की मांग। यही नहीं, फोन पर तलाक, एसएमएस से तलाक, बेटा की जगह बेटी पैदा होने पर तलाक, दाल में नमक कम होने पर तलाक, मां-बाप के घर बीवी के चले जाने पर तलाक, बीस रुपए मांगने पर तलाक, दूसरी औरत लाने के लिए पहली से तलाक सरीखे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे में जब इस जमात की आधी आबादी अपने लिए समान अधिकार की मांग कर रही हो तो कोई भी लोकतांत्रिक सरकार उससे आंख कैसे भींच सकती है। वह भी तब जब सरकार के सामने शाहबानो मुकदमे में राजीव गांधी के आत्मसमर्पण के बाद संतुलन साधने के लिए अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाने सरीखा फैसला लेने की नजीर भी पड़ी हो। संविधान के अनुच्छेद १४, १९ और २१ के मुताबिक हर नागरिक चाहे वह किसी धर्म का हो या किसी भी लिंग का उसे समान अधिकार होने चाहिए। आखिर भारत में स्त्रियों को समान अधिकार देने में इस्लाम के अलम्बरदार क्यों कतरा रहे हैं वह भी तब जब टर्की जैसे देश में १९२६ में मिस्र में १९२२ में इस कुप्रथा को खत्म किया जा चुका हो। सूडान, ईराक, जार्डन, इन्डोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और कतर जैसे देश इसके एवज में नया कानून ला चुके हों। १९५५ में पाकिस्तान में प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने बगैर तलाक दिये अपनी सेक्रेटरी से शादी कर ली थी। उनके इस फैसले के खिलाफ बड़ा जनाक्रोश उमड़ा। एक कमीशन बना। जिसने एक साल बाद यह कहा कि एक बैठक में तीन बार तलाक कहा गया एक ही माना जाएगा। पाकिस्तान में १९६१ में और बांग्लादेश में १९७१ में यह खत्म हो चुका है। दुनिया के २२ देश इसे नहीं मानते हैं। शिया और अहले हदीस भी एक बार के तीन तलाक को वैध नहीं मानते। कुरान की दुहाई देने वालों को भी इस तीन तलाक का जिक्र कुरान में नहीं मिलता। बावजूद इसके यह शोर मचाया जा रहा है कि औरतों के साथ हम कैसा व्यवहार करें यह हमारा अंदरूनी मामला है। हमारा धार्मिक मामला है?
यह कहने वाले भूल रहे हैं कि परंपराएं धर्म का भाग नहीं होती हैं। शनि शिंगणापुर और हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश के मामले में भी कहा गया था कि धर्म का मामला है। अदालत ने इसे खारिज कर दिया, जब दिवानी और फौजदारी के मामले धर्म के माध्यम से हल नहीं होते तो फिर विवाह और भरण पोषण के मामले क्यों धर्म और शरीयत के नाम पर छोड़ देने चाहिए। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि जब स्त्री-पुरुष के बीच के रिश्ते अर्थहीन हो जाए तब विच्छेद अगली पायदान होनी ही चाहिए। पर यह कैसे संभव है कि विच्छेद एक पक्ष में इतना झुका रहे कि दमन का हथियार दिखाई देने लगे। ऐसी स्थिति में कोई भी सरकार आंख बंद करके नहीं बैठ सकती। उसे बैठना भी नहीं चाहिए। ऐसा करने वाली सरकार का हश्र प्रचंड बहुमत से विजयी राजीव गांधी की सरकार की तरह ही होता है। देश का असल मूड जब तीन तलाक को खत्म करने का हो। तीन तलाक, हलाला और एक से अधिक शादी के मामले की सुनवाई करने वाली अदालत का यह तर्क हो कि यह शादी तोडऩे का सबसे घटिया तरीका है तीन तलाक, तो फिर कट्टरपंथियों और पुरातनपंथियों की बात क्यों सुनी जाए। सरकार का काम संविधान का पालन करना और कराना है। धर्म पर चलना उसकी बंदिश नहीं है। अगर मुस्लिम औरत हिंदू औरत की तरह जीने का हक चाह रही हो, जो उसे कुरान में चौदह सौ साल पहले उसे मिला हो। उसे अपनी व्याख्या के मुताबिक स्थापित करने वाले लोगों से यह सवाल मौजू हो जाता है कि आखिर क्यों भारत में ही उन्हें वह सब चाहिए जो दुनिया के दूसरे देशों में मयस्सर नहीं है। संविधान और धर्म के बीच कोई जंग छिड़ जाए तो किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य में संविधान का पक्ष ही लिया जाना चाहिए। भाजपा इन बंदिशों को आयद नहीं कर रही है। यह इन बंदिशों का अभिशाप झेल रहे लोगों की मांग है। दुनिया के कई देशों में बुर्का बंद है, नमाज के लिए भी भारत की तरह खुली छूट नहीं है। १९५५ में हिंदू कोड बिल का विरोध हुआ था पर सरकार झुकी नहीं। बिल पास हुआ। हिंदू समाज सुधारवादी ताकतों के सहारे रूढिय़ों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ा। मुस्लिम समाज के सामने भी यह अवसर है। उसे इसका लाभ उठाना चाहिए।
चारों तरफ इस कदर शोर-शराबा मचाया जा रहा है कि मानो भाजपा सरकार अपने किसी पुराने प्रतिशोध पर उतर आई हो। ऐसा सोचने और मानने वालों की तादाद बहुत बड़ी है। लेकिन इन लोगों को इस सच्चाई से आंख नहीं चुराना चाहिए कि अदालत में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए नरेंद्र मोदी सरकार जिम्मेदार नहीं है। सच यह है कि कर्नाटक की एक महिला फूलवती ने सर्वोच्च अदालत में हिंदू उत्तराधिकार कानून के तहत पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए याचिका दायर की। प्रकाश एवं अन्य बनाम फूलवती एवं अन्य की सुनवाई के दौरान प्रकाश के वकील ने कहा कि हिंदू कानूनों में कमियों की बात तो कर रहे हैं पर मुस्लिम पर्सनल लॉ में ऐसे बहुत प्रावधान हैं जो मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ हैं।
जस्टिस अनिल दवे और एके गोयल ने स्वत: संज्ञान लेते हुए पीआईएल दायर करने का फैसला सुना दिया। इसी पीआईएल पर अदालत ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा। यह जानना इसलिए जरूरी है ताकि जो लोग इसे भाजपा की प्रतिशोध नीति का परिणाम मान रहे हैं, उनकी आंखें खुल जाएं। इसके बाद फरवरी, २०१६ में शायरा बानो ने सर्वोच्च अदालत में तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिये जाने की गुहार लगाई। इसमें आफरीन, रहमान, नीलोफर समेत चार अन्य महिलाओं के नाम जुड़े। इस सुनावाई का कोई भी रिश्ता समान नागरिक संहिता से नहीं जुड़ता है। फिर भी हाय-तौबा मचाकर यह बताया और जताया जा रहा है कि केंद्र की भाजपा सरकार अपने पुराने एजेंडे समान नागरिक संहिता को लागू करना चाहती है।
लोकतंत्र के लिहाज से देखें तो नरेंद्र मोदी की स्पष्ट बहुमत की सरकार को अपने एजेंडे लागू करने का जनादेश हासिल है। पर मोदी सरकार सर्वोच्च अदालत के सामने जो अपना पक्ष रख रही है वह केवल उसके एजेंडे का हिस्सा नहीं है, बल्कि तकरीबन पच्चास हजार मुस्लिम स्त्री-पुरुषों ने अपन दस्तखत का ज्ञापन प्रधानमंत्री को दिया है, जिसमें तीन तलाक के खिलाफ गुस्सा है। हलाला के खिलाफ नाराजगी और कई बीवियां रखने पर प्रतिबंध की मांग। यही नहीं, फोन पर तलाक, एसएमएस से तलाक, बेटा की जगह बेटी पैदा होने पर तलाक, दाल में नमक कम होने पर तलाक, मां-बाप के घर बीवी के चले जाने पर तलाक, बीस रुपए मांगने पर तलाक, दूसरी औरत लाने के लिए पहली से तलाक सरीखे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे में जब इस जमात की आधी आबादी अपने लिए समान अधिकार की मांग कर रही हो तो कोई भी लोकतांत्रिक सरकार उससे आंख कैसे भींच सकती है। वह भी तब जब सरकार के सामने शाहबानो मुकदमे में राजीव गांधी के आत्मसमर्पण के बाद संतुलन साधने के लिए अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाने सरीखा फैसला लेने की नजीर भी पड़ी हो। संविधान के अनुच्छेद १४, १९ और २१ के मुताबिक हर नागरिक चाहे वह किसी धर्म का हो या किसी भी लिंग का उसे समान अधिकार होने चाहिए। आखिर भारत में स्त्रियों को समान अधिकार देने में इस्लाम के अलम्बरदार क्यों कतरा रहे हैं वह भी तब जब टर्की जैसे देश में १९२६ में मिस्र में १९२२ में इस कुप्रथा को खत्म किया जा चुका हो। सूडान, ईराक, जार्डन, इन्डोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और कतर जैसे देश इसके एवज में नया कानून ला चुके हों। १९५५ में पाकिस्तान में प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने बगैर तलाक दिये अपनी सेक्रेटरी से शादी कर ली थी। उनके इस फैसले के खिलाफ बड़ा जनाक्रोश उमड़ा। एक कमीशन बना। जिसने एक साल बाद यह कहा कि एक बैठक में तीन बार तलाक कहा गया एक ही माना जाएगा। पाकिस्तान में १९६१ में और बांग्लादेश में १९७१ में यह खत्म हो चुका है। दुनिया के २२ देश इसे नहीं मानते हैं। शिया और अहले हदीस भी एक बार के तीन तलाक को वैध नहीं मानते। कुरान की दुहाई देने वालों को भी इस तीन तलाक का जिक्र कुरान में नहीं मिलता। बावजूद इसके यह शोर मचाया जा रहा है कि औरतों के साथ हम कैसा व्यवहार करें यह हमारा अंदरूनी मामला है। हमारा धार्मिक मामला है?
यह कहने वाले भूल रहे हैं कि परंपराएं धर्म का भाग नहीं होती हैं। शनि शिंगणापुर और हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश के मामले में भी कहा गया था कि धर्म का मामला है। अदालत ने इसे खारिज कर दिया, जब दिवानी और फौजदारी के मामले धर्म के माध्यम से हल नहीं होते तो फिर विवाह और भरण पोषण के मामले क्यों धर्म और शरीयत के नाम पर छोड़ देने चाहिए। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि जब स्त्री-पुरुष के बीच के रिश्ते अर्थहीन हो जाए तब विच्छेद अगली पायदान होनी ही चाहिए। पर यह कैसे संभव है कि विच्छेद एक पक्ष में इतना झुका रहे कि दमन का हथियार दिखाई देने लगे। ऐसी स्थिति में कोई भी सरकार आंख बंद करके नहीं बैठ सकती। उसे बैठना भी नहीं चाहिए। ऐसा करने वाली सरकार का हश्र प्रचंड बहुमत से विजयी राजीव गांधी की सरकार की तरह ही होता है। देश का असल मूड जब तीन तलाक को खत्म करने का हो। तीन तलाक, हलाला और एक से अधिक शादी के मामले की सुनवाई करने वाली अदालत का यह तर्क हो कि यह शादी तोडऩे का सबसे घटिया तरीका है तीन तलाक, तो फिर कट्टरपंथियों और पुरातनपंथियों की बात क्यों सुनी जाए। सरकार का काम संविधान का पालन करना और कराना है। धर्म पर चलना उसकी बंदिश नहीं है। अगर मुस्लिम औरत हिंदू औरत की तरह जीने का हक चाह रही हो, जो उसे कुरान में चौदह सौ साल पहले उसे मिला हो। उसे अपनी व्याख्या के मुताबिक स्थापित करने वाले लोगों से यह सवाल मौजू हो जाता है कि आखिर क्यों भारत में ही उन्हें वह सब चाहिए जो दुनिया के दूसरे देशों में मयस्सर नहीं है। संविधान और धर्म के बीच कोई जंग छिड़ जाए तो किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य में संविधान का पक्ष ही लिया जाना चाहिए। भाजपा इन बंदिशों को आयद नहीं कर रही है। यह इन बंदिशों का अभिशाप झेल रहे लोगों की मांग है। दुनिया के कई देशों में बुर्का बंद है, नमाज के लिए भी भारत की तरह खुली छूट नहीं है। १९५५ में हिंदू कोड बिल का विरोध हुआ था पर सरकार झुकी नहीं। बिल पास हुआ। हिंदू समाज सुधारवादी ताकतों के सहारे रूढिय़ों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ा। मुस्लिम समाज के सामने भी यह अवसर है। उसे इसका लाभ उठाना चाहिए।