लोकतंत्र से गायब होता लोक...

Update:2017-11-01 14:26 IST
जैसे जैसे लोकतंत्र की कालावधि बढ़ रही है उसकी परिपक्वता के दावे तेज हो रहे हैं, वैसे वैसे लोकतंत्र से लोक तिरोहित होता जा रहा है। आज हम एक ऐसे लोकतंत्र में हैं जिसमें तकरीबन तीन फीसदी (2.92 फीसदी) ही इस लोकतंत्र लायक लोग बचे हैं। हिमाचल और गुजरात में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव की मुनादी बज गयी है। उत्तर प्रदेश के नगर निकायों में महापौर के पद पर चुनाव लड़ने के लिए खर्च की अधिकतम सीमा नगर निगम के आकार के हिसाब से 20-25 लाख रुपये रखी गयी है। पार्षद अपने चुनाव में 2 लाख रुपये खर्च कर सकता है। विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने अधिकतम खर्च की सीमा 28 लाख रुपये निर्धारित की है। जबकि अरुणाचल और सिक्किम को छोड़कर लोकसभा चुनाव में हर उम्मीदवार को लिए चुनाव आयोग  ने खर्च की सीमा 70 लाख रुपये निर्धारित की है। अरुणाचल और सिक्किम में यह सीमा 54 लाख रुपये की है।
जिस देश के 93 फीसदी लोग साल में 2.5 लाख रुपये से कम की आमदनी पर जीवन बसर करते हों। 95 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 90 फीसदी शहरी परिवारों की सालाना आमदनी 2.5 लाख रुपये से कम हो। जहां सिर्फ तकरीबन साढे चौबीस लाख लोग ऐसे हों, जो अपनी आमदनी 10 लाख रुपये सालाना बताने को तैयार हों। 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में 3.65 करोड़ लोग ही आयकर देते हों। यानी आयकर की सीमा में आने वाले लोगों की संख्या यह है। गौरतलब है कि 2.5 लाख से ऊपर की आमदनी के लोग आयकर की सीमा में आते हैं।
आयकरदाता 3.65 करोड़ लोगों में से साढ़े पांच लाख लोग ऐसे हैं, जो पांच लाख रुपये से अधिक का टैक्स देते हैं। यानी इनकी आमदनी साल में 22 लाख रुपये के आसपास ही है। 10 लाख से ऊपर की आमदनी पर भारत में 30 फीसदी आयकर लगता है। कुल 48,417 ऐसे लोग हैं, जो साल में 1 करोड़ रुपये से अधिक आयकर के मद में जमा करते है। 5.32 लाख ऐसे आयकर भरने वाले हैं जिनकी आमदनी 2 लाख सालाना से कम बैठती है।
आयकर के आंकड़े, गरीबी की स्थिति बताती है कि सिर्फ 5 फीसदी लोग अधिकतम हो सकते हैं जो महापौर, सांसद और विधायक चुनाव लड़ने के लिए तय की गयी धनराशि के हिसाब से आमदनी कर पाते हों। इस लिहाज से अपने बूते पर चुनाव लड़ने की हैसियत में 95 फीसदी लोग नही है। हालांकि बिरले ही ऐसे उम्मीदवार देश में होंगे जो दस्तावेज पर खर्च की अधिकतम सीमा खर्च होने का ब्यौरा देते हों। इसके ठीक उलट कोई भी उम्मीदवार खर्च की इस अधिकतम सीमा की बंदिश में रहते हुए मजबूत उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ ही नहीं सकता है। एक क्षेत्र में औसतन 2-4 तक गंभीर और मजूबत उम्मीदवार होते है। सांसद का चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम 5 करोड़ रुपये और विधायक के लिए एक करोड़ रुपये खर्च करने वालों की इतनी लंबी फेहरिस्त है कि उसे आप ठीक से एक बैठक में बांच नहीं सकते। कह सकते हैं कि गंभीर उम्मीदवार इतना खर्च करता ही है।
देश की विधानसभाओं में 4215 विधायक और लोकसभा में 543 सांसद चुनकर आते हैं। सात राज्य ऐसे हैं जिनमे विधानपरिषद हैं और राज्यसभा में 238 लोग निर्वाचित होकर सांसद बनते हैं। अगर इन निर्वाचित सदस्यों के खर्च के सही-सही आंकडे जुटाए जाएं तो शायद देश के एक फीसदी लोग ऐसे होंगे जो चुनाव में खर्च होने वाली धनराशि की हैसियत वाले होंगे। यह एक कठोर सच्चाई है कि हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पैसे पर टिकी हुई है। अधिकतम खर्च की सीमा छूने की स्थिति में 2 फीसदी दलित भी नहीं होते होंगे। अन्य पिछड़ा वर्ग में 80 फीसदी लोग भी नहीं होंगे। किसानों में चुनाव लड़ने की हैसियत वाले बहुत कम ही होंगे। देश में 4 करोड़ 85 लाख बेरोजगार युवा हैं, 9 करोड़ 26 लाख किसानों की आमदनी देश की औसत आय से आधी है। तरकीबन 12 करोड़ मजदूर परिवारों की आमदनी देश के किसानों की आमदनी की भी आधी है। इस लोकतंत्र में लोग निरंतर गरीब होते जा रहे हैं। नेता, उनके लगुवे-भगवे निरंतर अमीर हो रहे हैं। जब अपने बूते पर चुनाव लडने की स्थिति में 95 फीसदी आदमी नही हैं तो उसे किसी न किसा राजनैतिक दल का हाथ थामना ही पड़ेगा। जो राजनैतिक दल चुनाव के लिए पैसे देंगे उनकी विचारधारा, उनके कार्यक्रम, उनकी नीतियां आप को माननी होंगी। उन राजनैतिक दलों के सुप्रीमो अगर कुछ भी करते हैं तो आपको कुबूल करना होगा।
धन का लोकतंत्र में इस हद तक प्रभाव है कि जो भी पार्टी सत्ता में आती है उसके मिलने वाले चंदे की राशि में बेतहाशा इजाफा हो जाता है। आखिर कौन लोग यह चंदा देते हैं? क्या ये लोग मिशन के लिए चंदा दे रहे हैं? या इनके अलग-अलग कारोबार है। इनके नाम को सिर्फ इसलिए गोपनीय रखने का चलन जारी है ताकि जिस पार्टी को उन्होंने चंदा दिया है उसकी सरकार के कार्यकाल में उनकी हैसियत में कितना इजाफा हुआ है इसका पता न लग सके।
उम्मीदवारों द्वारा खर्च के आंकडो को चुनाव को कराने के लिए खर्च हुई धनराशि के आइने में देखा जाय तो लोकतंत्र से लोक के गायब होने का चेहरा काफी भयावह दिखता है। देश का पहला चुनाव 10 करोड़ 45 लाख रुपये में हो गया था। वर्ष 1991 में आयोग को चुनाव कराने के लिए 3.59 अरब रुपये खर्च करने पड़े। 2004 में यह धनराशि 13.20 अरब रुपये के आसपास थी और 2014 में 34 अरब 26 करोड़ रुपये हो गयी है। पहले दूसरे चुनाव में 100-1000 रुपये में चुनाव जीतने, एक गाड़ी या बिना गाड़ी के निर्वाचन का मैदान मार लेने अथवा जनता के पैसे से विधानसभा में दाखिल हो जाने के किस्से सुने जा सकते हैं। पर आज यह कहना गप्पबाजी करार दी जाएगी।
यह कह सकते हैं कि चुनाव में सरकार और उम्मीदवार द्वारा खर्च की जाने वाली धनराशि हमारे बाजार अथवा अर्थतंत्र में ही तो आती है। पर लोकतंत्र का काम सिर्फ अर्थतंत्र को मजबूत करना नहीं होता है। उम्मीदवार द्वारा खर्च की जाने वाली धनराशि, निरंतर बढ़ते चंदे और महंगे होते चुनाव के बाद हमें लोकतंत्र के मजबूत होने या भ्रष्टाचार के खत्म होने में से किसी एक को ही चुनना होगा।
 

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