हिटलर के प्रोपेगैंडा मिनिस्टर गोएबल्स ने कहा था कि एक झूठ सौ बार बोला जाय तो सच हो जाता है। भारत के तमाम लोग गोएबल्स को नहीं जानते पर उसके इस सिद्धांत को जानते और मानते हैं। इस पर अमल भी करते हैं। इस पर अमल का ही नतीजा है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक दूसरे के दुश्मन बना दिए गये हैं। यह स्थापित कर दिया गया कि संघ और गांधी जी की विचारधारा में जमीन आसमान का फर्क था। पर गांधी भारतीय रीति-रिवाजों, परंपराओं के कायल थे। संघ की विचारधारा भी इन धारणाओं को स्थापित करती दिखती है।
30 जनवरी 1948 को गोडसे ने गांधीजी की हत्या की। हत्या के चार महीने पहले गांधी जी 16 सितंबर को दिल्ली के प्रांत प्रचारक बसंत राव ओक के आमंत्रण पर दिल्ली की भंगी बस्ती की शाखा में आए थे। वहां वसंत राव ओक ने गांधी जी का परिचय हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न एक महान पुरुष के रुप में करवाया था। गांधी वांड्मय में भी गुरु गोलवरकर और गांधी जी की बातचीत का दो बार जिक्र है।
दिल्ली की जिस शाखा में महात्मा गांधी स्वयंसेवकों के बीच आए थे उसमें उन्होंने कहा था ‘संघ एक सुसंगठित और अनुशासित संस्था है। उसकी शक्ति भारत के हित में या उसके खिलाफ प्रयोग की जा सकती है। संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उनमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’
हालांकि दिल्ली की भंगी बस्ती की शाखा में आने से पहले भी गांधी जी 1934 में भी संघ के एक शिविर में गए थे। वे वर्धा के शिविर में गांधी जी संघ चालक अप्पाजी जोशी के आमंत्रण पर आए। जिसके बारे में उन्होने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जमनालाल बजाज उन्हें वहां ले गये थे। अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर वो अत्यंत प्रसन्न हुए थे।
हरिजन के 9 अगस्त,1942 के अंक में महात्मा गांधी ने लिखा है कि मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है, यह भी जानता हूं कि यह एक सांप्रदायिक संगठन है। लेकिन उन्होंने यह टिप्पणी दूसरे समुदाय के खिलाफ नारेबाजी और भाषणबाजी के प्रत्युत्तर में की थी। गोडसे हिंदू महासभा से जुड़ा था। गांधी जी की हत्या के बाद संघ ने न केवल नाथूराम गोडसे का बहिष्कार किया बल्कि संघ के झंडे भी एक दिन नहीं फहराए गए।
1946 में ही डायरेक्ट एक्शन शुरू हो गया था। संघ का काम हिंदू समाज के संरक्षण, उन्हें संरक्षित निकालने और शरणार्थियों की व्यवस्था करना था। संघ और महात्मा गांधी के बीच सिर्फ दो मुद्दों पर मतभेद था। महात्मा गांधी मानते थे कि अहिंसा व्यक्तिगत और राजधर्म दोनों में अनिवार्य है। जबकि संघ की धारणा थी कि क्लीनिकल वायलेंस भी जरूरी होता है। महात्मा गांधी व्यक्ति और समुदाय के मनोविज्ञान में फर्क नहीं मानते थे, जबकि संघ की यह धारणा थी समुदाय का मनोविज्ञान व्यक्तियों के मनोविज्ञान से एकरुप नहीं होता है। दोनों के अपने अपने अनुभव थे। दोनों सच थे। महात्मा गांधी जी का अनुभव दक्षिण अफ्रीका की अपनी लड़ाई में मुस्लिम वोरा समुदाय के सहयोग पर आधारित था तो हेडगेवार जी का अनुभव अली बंधुओं के फैसले, कोहाट दंगा तथा जेल के अनुभव पर आधारित था। हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के कारण जो जनधन हानि हुई उसके कारण भी अहिंसा के तत्व ज्ञान को बल मिला।
एक समय डा हेडगेवार कांग्रेस में थे। दिसंबर 1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के प्रारंभिक सत्र में हेडगेवार जी स्वागत मंत्री थे। संघ स्थापना से पूर्व डाक्टर हेडगेवार ने महात्मा गाधी के नेतृत्व वाले आदोलनों में पूरी प्रतिबद्धता के साथ हिस्सा लिया था। बिंदुओं पर जो वैचारिक मतभेद थे उससे अधिक मतभेद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के डा भीमराव अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरु सरीखे कई नेताओं से थे। डा हेडगेवार अहिंसा के सवाल पर सिर्फ इतना सा मतभेद रखते थे कि उनकी समझ में अहिंसा तभी कामयाब हो सकती है जब उसके पीछे राष्ट्रीय चेतना और लोगों की संगठन शक्ति का बल हो।
2 अक्टूबर 1922 को गांधी जी के जन्मदिन पर डा हेडगेवार ने अपने भाषण मे कहा था, ‘यह एक पवित्र दिन है आज के दिन गांधी जी के गुणों को सुनने और उन पर विचार करने का दिन है।’ वे गांधीवाद को सिर्फ एक विचारधारा नहीं मानकर सार्वजनिक जीवन जीने वालों के लिए पवित्र दृष्टिकोण मानते थे। असहयोग आंदोलन के समय डा हेडगेवार खादी वस्त्र पहनते थे और जेल से छूट कर आने के बाद उनके स्वागत समारोह में खादी के कपड़े और चरखा भेंट के रुप में दिया गया था।
गांधी जी की हरिजन यात्रा को डा हेडगेवार ने सामाजिक समरसता वाला राष्ट्रीय कार्यक्रम बताया था। गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा। विदर्भ क्षेत्र में 30 जनवरी के बाद उनके साथ ज्यादतियां भी हुईं। हमले भी हुए लेकिन प्रतिबंध हटने के बाद संघ प्रमुख का बयान था किसी कारण से दांत के बीच जीभ आ जाये तो दांत को नहीं तोड़ा जाता है। संघ की भूमिका आजादी के बाद क्या हो इसे लेकर विमर्श चल रहा था कि उसी बीच देवरस जी ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि स्वयंसेवक देश के पुनर्निमाण के काम में लगें। दिसंबर में उनका लेख प्रकाशित हुआ, जनवरी में गांधी जी नहीं रहे। 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबंध लगा और यह प्रतिबंध 9 जुलाई 1949 को हटा। प्रतिबंध हटने के बाद संघ व्यक्ति निर्माण कार्य में लगा। जिन जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगाया था उन्हीं नेहरू की सरकार को भारत चीन युद्ध के बाद 26 जनवरी 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के लिए संघ को निमंत्रण देना पड़ा। इतिहास हमारा अतीत से परिचय जरूर कराता है पर इस पर विश्वास करने से पूर्व इसे लिखे जाने के देश, काल और परिस्थिति पर भी विचार करना जरुरी होता है।
30 जनवरी 1948 को गोडसे ने गांधीजी की हत्या की। हत्या के चार महीने पहले गांधी जी 16 सितंबर को दिल्ली के प्रांत प्रचारक बसंत राव ओक के आमंत्रण पर दिल्ली की भंगी बस्ती की शाखा में आए थे। वहां वसंत राव ओक ने गांधी जी का परिचय हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न एक महान पुरुष के रुप में करवाया था। गांधी वांड्मय में भी गुरु गोलवरकर और गांधी जी की बातचीत का दो बार जिक्र है।
दिल्ली की जिस शाखा में महात्मा गांधी स्वयंसेवकों के बीच आए थे उसमें उन्होंने कहा था ‘संघ एक सुसंगठित और अनुशासित संस्था है। उसकी शक्ति भारत के हित में या उसके खिलाफ प्रयोग की जा सकती है। संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उनमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’
हालांकि दिल्ली की भंगी बस्ती की शाखा में आने से पहले भी गांधी जी 1934 में भी संघ के एक शिविर में गए थे। वे वर्धा के शिविर में गांधी जी संघ चालक अप्पाजी जोशी के आमंत्रण पर आए। जिसके बारे में उन्होने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जमनालाल बजाज उन्हें वहां ले गये थे। अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर वो अत्यंत प्रसन्न हुए थे।
हरिजन के 9 अगस्त,1942 के अंक में महात्मा गांधी ने लिखा है कि मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है, यह भी जानता हूं कि यह एक सांप्रदायिक संगठन है। लेकिन उन्होंने यह टिप्पणी दूसरे समुदाय के खिलाफ नारेबाजी और भाषणबाजी के प्रत्युत्तर में की थी। गोडसे हिंदू महासभा से जुड़ा था। गांधी जी की हत्या के बाद संघ ने न केवल नाथूराम गोडसे का बहिष्कार किया बल्कि संघ के झंडे भी एक दिन नहीं फहराए गए।
1946 में ही डायरेक्ट एक्शन शुरू हो गया था। संघ का काम हिंदू समाज के संरक्षण, उन्हें संरक्षित निकालने और शरणार्थियों की व्यवस्था करना था। संघ और महात्मा गांधी के बीच सिर्फ दो मुद्दों पर मतभेद था। महात्मा गांधी मानते थे कि अहिंसा व्यक्तिगत और राजधर्म दोनों में अनिवार्य है। जबकि संघ की धारणा थी कि क्लीनिकल वायलेंस भी जरूरी होता है। महात्मा गांधी व्यक्ति और समुदाय के मनोविज्ञान में फर्क नहीं मानते थे, जबकि संघ की यह धारणा थी समुदाय का मनोविज्ञान व्यक्तियों के मनोविज्ञान से एकरुप नहीं होता है। दोनों के अपने अपने अनुभव थे। दोनों सच थे। महात्मा गांधी जी का अनुभव दक्षिण अफ्रीका की अपनी लड़ाई में मुस्लिम वोरा समुदाय के सहयोग पर आधारित था तो हेडगेवार जी का अनुभव अली बंधुओं के फैसले, कोहाट दंगा तथा जेल के अनुभव पर आधारित था। हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के कारण जो जनधन हानि हुई उसके कारण भी अहिंसा के तत्व ज्ञान को बल मिला।
एक समय डा हेडगेवार कांग्रेस में थे। दिसंबर 1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के प्रारंभिक सत्र में हेडगेवार जी स्वागत मंत्री थे। संघ स्थापना से पूर्व डाक्टर हेडगेवार ने महात्मा गाधी के नेतृत्व वाले आदोलनों में पूरी प्रतिबद्धता के साथ हिस्सा लिया था। बिंदुओं पर जो वैचारिक मतभेद थे उससे अधिक मतभेद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के डा भीमराव अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरु सरीखे कई नेताओं से थे। डा हेडगेवार अहिंसा के सवाल पर सिर्फ इतना सा मतभेद रखते थे कि उनकी समझ में अहिंसा तभी कामयाब हो सकती है जब उसके पीछे राष्ट्रीय चेतना और लोगों की संगठन शक्ति का बल हो।
2 अक्टूबर 1922 को गांधी जी के जन्मदिन पर डा हेडगेवार ने अपने भाषण मे कहा था, ‘यह एक पवित्र दिन है आज के दिन गांधी जी के गुणों को सुनने और उन पर विचार करने का दिन है।’ वे गांधीवाद को सिर्फ एक विचारधारा नहीं मानकर सार्वजनिक जीवन जीने वालों के लिए पवित्र दृष्टिकोण मानते थे। असहयोग आंदोलन के समय डा हेडगेवार खादी वस्त्र पहनते थे और जेल से छूट कर आने के बाद उनके स्वागत समारोह में खादी के कपड़े और चरखा भेंट के रुप में दिया गया था।
गांधी जी की हरिजन यात्रा को डा हेडगेवार ने सामाजिक समरसता वाला राष्ट्रीय कार्यक्रम बताया था। गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा। विदर्भ क्षेत्र में 30 जनवरी के बाद उनके साथ ज्यादतियां भी हुईं। हमले भी हुए लेकिन प्रतिबंध हटने के बाद संघ प्रमुख का बयान था किसी कारण से दांत के बीच जीभ आ जाये तो दांत को नहीं तोड़ा जाता है। संघ की भूमिका आजादी के बाद क्या हो इसे लेकर विमर्श चल रहा था कि उसी बीच देवरस जी ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि स्वयंसेवक देश के पुनर्निमाण के काम में लगें। दिसंबर में उनका लेख प्रकाशित हुआ, जनवरी में गांधी जी नहीं रहे। 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबंध लगा और यह प्रतिबंध 9 जुलाई 1949 को हटा। प्रतिबंध हटने के बाद संघ व्यक्ति निर्माण कार्य में लगा। जिन जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगाया था उन्हीं नेहरू की सरकार को भारत चीन युद्ध के बाद 26 जनवरी 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के लिए संघ को निमंत्रण देना पड़ा। इतिहास हमारा अतीत से परिचय जरूर कराता है पर इस पर विश्वास करने से पूर्व इसे लिखे जाने के देश, काल और परिस्थिति पर भी विचार करना जरुरी होता है।