हमारे राजनेता गांधी, दीनदयाल और लोहिया का भारत बनाने में निरंतर असफल हो रहे हैं। सरकारों के दावे चाहे जो हों, लेकिन हकीकत यह है कि समानता का सिद्धांत, समता का सिद्धांत और समान अवसर का सिद्धांत, विशेष अवसर का सिद्धांत, समरस समाज का सिद्धांत तथा सरकार के कल्याणकारी समाज के दावे निरंतर हाशिये पर चलते चले जा रहे हैं। लोकतंत्र जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है वह भी धनतंत्र की चपेट में आ रहा है। गरीब हटाओ के नारों ने उल्टा काम किया है।
देश में अमीर और गरीब की बीच की खाई निरंतर गहराती जा रही है। एक ओर किस तरह दो जून की रोटी के लिए लड़ता 68.27 फीसदी समाज है तो दूसरी ओर देश की 73 फीसदी संपत्ति पर 1 फीसदी लोग काबिज हैं। विश्व बैंक के एक सर्वे के मुताबिक भारत में 29.5 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे जीते है। यही नहीं 32.6 फीसदी लोग 1.25 डालर रोज से कम कमाई रोज पर गुजर बसर करने को अभिशप्त है। देश की 68.27 फीसदी आबादी 2 डालर से कम रोज की आमदनी पर जीती है। इन आंकडों के मद्देनजर भारत से बेहतर स्थिति में बांग्लादेश, पाकिस्तान और ब्राजील तक हैं। इन देशों में क्रमश 26 फीसदी, 22.3 फीसदी और 21.4 फीसदी लोग ही गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करते हैं।
गरीबी और अमीरी के बीच बढती खाई को इससे भी समझा जा सकता है कि भारत के कपडा उद्योग में एक एक्जीक्यूटिव को जो पगार मिलती है उसे हासिल करने में एक दिहाड़ी मजदूर को 941 साल लग सकते हैं। या फिर इसको यूं भी समझा जा सकता है कि दिहाड़ी मजदूर पूरी जिंदगी में जितना कमाता है उतना भारत के टॉप सीईओ साढे 17 दिन में ही अर्जित कर लेते हैं। परंतु इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि देश में कमाकर धनकुबेर हो गये लोगों को अब अपना वतन ही नहीं रास आ रहा है। अकेले पिछले साल 7 हजार धनकुबेरों ने भारत से तौबा कर ली। यह आंकडा 2016 की तुलना में 16 फीसदी ज्यादा है। यह ट्रेंड तब है जब भारत दुनिया का छठा सबसे धनवान देश है उसकी कुल सम्पत्ति 8230 अरब डालर है।
न्यूवर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट बताती है कि देश में 330400 लोग सर्वाधिक अमीर हैं। रिपोर्ट बताती है कि यह भी दिलचस्प है कि जितने लोग देश छोड़कर जाते हैं हर साल उससे ज्यादा नए अमीर बन जाते हैं। रइसों के पलायन के मामले में हालांकि भारत के आगे चीन है पर चीन में प्रतीकात्मक लोकतंत्र है, चीन में रहन सहन ही नहीं जीवन के तमाम फैसले भी सरकारी नियमों की चाबुक से संचालित होते हैं। जबकि भारत में लोकतंत्र मिसाल है, विविधता में स्वतंत्रता की भी स्पेस है। फिर भी अगर भारत के लोग भारत के लोग देश को छोड़कर अमरीका, संयुक्त अरब अमीरात, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सरीखे देशों में बसने का फैसला कर रहे हैं यह सोचना चाहिए कि एक ओर हमारी अर्थव्यवस्था में अकूत संपत्ति अर्जित करने के तंतु गहरे तक बैठे हुए हैं, दूसरी ओर कुछ ऐसा मिसिंग है जो इन धनकुबेरों को दूसरे देशों में अधिक मिल रहा है। देश छोडने वाले लोगों में वह लोग हैं जिनकी संपत्ति एक अरब अमरीकी डालर से अधिक है।
भारत के साथ ही दुनिया भर मे धन के असमान बंटवारे की रिपोर्ट चौंकाती है। आक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट रिवार्ड वर्क नॉट वेल्थ बताती है कि बीते साल देश में जितना धन सृजित हुआ उसका 73 फीसदी सबसे अधिक अमीर एक फीसदी लोगों के पास आ गया जबकि दुनिया भर में 1 फीसदी अमीर लोगों के पास 82 फीसदी धन आया। 2016 की यही रिपोर्ट यह भी स्पष्ट करती है कि देश के 1 फीसदी सबसे अमीर लोगो के पास 58 फीसदी दौलत थी। जबकि साल 2017 में इसमें 15 फीसदी का इजाफा हो गया। अमीर आदमियों की दौलत में 4.89 लाख करोड़ की जो बढोत्तरी हुई है वह देश के सभी राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट के 85 फीसदी राशि के बराबर है। इस लिहाज से देखें तो धनकुबेरों कि बढ़ती संख्या अर्थव्यवस्था की खराब सेहत की चुगली करती है। यही भ्रष्टाचार की जननी है यह अमीर और गरीब की बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। इसी ने समाज के नैतिक मूल्य को भौतिक मूल्य में बदल कर रख दिया है। इसने ही शिक्षा, चिकित्सा के क्षेत्र में निजीकरण को स्पेस दिया है।
अर्थशास्त्र के आम सिद्धांत के मुताबिक देश में जैसे जैसे धनकुबरों की तादाद बढ़ती है वैसे वैसे अर्थव्यवस्था के बेहतर सेहत का दावा पुख्ता होता है पर दोनों अतंरराष्ट्रीय रिपोर्ट इसको पलीता लगा रही हैं क्योंकि धन का केंद्रीयकरण हो रहा है। मनरेगा जैसी योजना ने इस दिशा में थोड़े बदलाव की ठोस पहल की, गांव में दिहाड़ी की दर बढ़ी, मजदूर सात दिन और कई-कई घंटे काम करने की जगह आठ घंटे काम और एक दिन आराम के फार्मूले पर जिंदगी बसर करने लगे। लेकिन पिछले एक साल में धन का केंद्रीयकरण जिस तरह हुआ है उससे मनरेगा की सफलता पर पलीता लगा है। किसी भी सरकार का प्राथमिक और सामाजिक दायित्व यह होता है कि वह इस असमान वितरण को, इस केंद्रीकरण को कैसे न केवल रोके बल्कि उसे नीचे तक पहुंचाने का रास्ता तैयार करे। हो उल्टा रहा है। बाजार ने अपनी इतनी पहुंच बढा दी है कि हर आदमी के हिस्से का थोड़ा बहुत पैसा किसी भी उत्पादनकर्ता तक पहुंच रहा है। धन का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर नहीं है। सरकारों के पास कल्याणकारी काम करने का पैसा नहीं है। लिहाजा काम भी धनकुबेरों के हवाले हैं जिनसे वे मनचाहा मुनाफा कमा लेते हैं।
सरकार को धन के प्रवाह की दिशा बदलनी होगी। उसे एक फीसदी अमीरों को समझाना होगा कि भारत छोड़कर चला जाना कोई हल नहीं हैं क्योंकि वहां इस आर्थिक केंद्रीकरण की गति कम नहीं है। क्रांति माओ और लेनिन की किताब से नहीं निकलती उसका जन्म भूख से तिलमिला रहे, अज्ञानता के घटाटोप अंधेरे में जी रहे, पानी के लिए मीलों चल रहे, दवा के लिए मारे मारे फिर रहे इंसान के आक्रोश से होता है। इसे बांधने और साधने की जिम्मेदारी निभानी होगी, नहीं तो अमरीका और दूसरे देश भी उतने सुरक्षित नहीं होंगे जितनी आप कल की आशा लगाए बैठे हैं।
देश में अमीर और गरीब की बीच की खाई निरंतर गहराती जा रही है। एक ओर किस तरह दो जून की रोटी के लिए लड़ता 68.27 फीसदी समाज है तो दूसरी ओर देश की 73 फीसदी संपत्ति पर 1 फीसदी लोग काबिज हैं। विश्व बैंक के एक सर्वे के मुताबिक भारत में 29.5 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे जीते है। यही नहीं 32.6 फीसदी लोग 1.25 डालर रोज से कम कमाई रोज पर गुजर बसर करने को अभिशप्त है। देश की 68.27 फीसदी आबादी 2 डालर से कम रोज की आमदनी पर जीती है। इन आंकडों के मद्देनजर भारत से बेहतर स्थिति में बांग्लादेश, पाकिस्तान और ब्राजील तक हैं। इन देशों में क्रमश 26 फीसदी, 22.3 फीसदी और 21.4 फीसदी लोग ही गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करते हैं।
गरीबी और अमीरी के बीच बढती खाई को इससे भी समझा जा सकता है कि भारत के कपडा उद्योग में एक एक्जीक्यूटिव को जो पगार मिलती है उसे हासिल करने में एक दिहाड़ी मजदूर को 941 साल लग सकते हैं। या फिर इसको यूं भी समझा जा सकता है कि दिहाड़ी मजदूर पूरी जिंदगी में जितना कमाता है उतना भारत के टॉप सीईओ साढे 17 दिन में ही अर्जित कर लेते हैं। परंतु इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि देश में कमाकर धनकुबेर हो गये लोगों को अब अपना वतन ही नहीं रास आ रहा है। अकेले पिछले साल 7 हजार धनकुबेरों ने भारत से तौबा कर ली। यह आंकडा 2016 की तुलना में 16 फीसदी ज्यादा है। यह ट्रेंड तब है जब भारत दुनिया का छठा सबसे धनवान देश है उसकी कुल सम्पत्ति 8230 अरब डालर है।
न्यूवर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट बताती है कि देश में 330400 लोग सर्वाधिक अमीर हैं। रिपोर्ट बताती है कि यह भी दिलचस्प है कि जितने लोग देश छोड़कर जाते हैं हर साल उससे ज्यादा नए अमीर बन जाते हैं। रइसों के पलायन के मामले में हालांकि भारत के आगे चीन है पर चीन में प्रतीकात्मक लोकतंत्र है, चीन में रहन सहन ही नहीं जीवन के तमाम फैसले भी सरकारी नियमों की चाबुक से संचालित होते हैं। जबकि भारत में लोकतंत्र मिसाल है, विविधता में स्वतंत्रता की भी स्पेस है। फिर भी अगर भारत के लोग भारत के लोग देश को छोड़कर अमरीका, संयुक्त अरब अमीरात, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सरीखे देशों में बसने का फैसला कर रहे हैं यह सोचना चाहिए कि एक ओर हमारी अर्थव्यवस्था में अकूत संपत्ति अर्जित करने के तंतु गहरे तक बैठे हुए हैं, दूसरी ओर कुछ ऐसा मिसिंग है जो इन धनकुबेरों को दूसरे देशों में अधिक मिल रहा है। देश छोडने वाले लोगों में वह लोग हैं जिनकी संपत्ति एक अरब अमरीकी डालर से अधिक है।
भारत के साथ ही दुनिया भर मे धन के असमान बंटवारे की रिपोर्ट चौंकाती है। आक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट रिवार्ड वर्क नॉट वेल्थ बताती है कि बीते साल देश में जितना धन सृजित हुआ उसका 73 फीसदी सबसे अधिक अमीर एक फीसदी लोगों के पास आ गया जबकि दुनिया भर में 1 फीसदी अमीर लोगों के पास 82 फीसदी धन आया। 2016 की यही रिपोर्ट यह भी स्पष्ट करती है कि देश के 1 फीसदी सबसे अमीर लोगो के पास 58 फीसदी दौलत थी। जबकि साल 2017 में इसमें 15 फीसदी का इजाफा हो गया। अमीर आदमियों की दौलत में 4.89 लाख करोड़ की जो बढोत्तरी हुई है वह देश के सभी राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट के 85 फीसदी राशि के बराबर है। इस लिहाज से देखें तो धनकुबेरों कि बढ़ती संख्या अर्थव्यवस्था की खराब सेहत की चुगली करती है। यही भ्रष्टाचार की जननी है यह अमीर और गरीब की बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। इसी ने समाज के नैतिक मूल्य को भौतिक मूल्य में बदल कर रख दिया है। इसने ही शिक्षा, चिकित्सा के क्षेत्र में निजीकरण को स्पेस दिया है।
अर्थशास्त्र के आम सिद्धांत के मुताबिक देश में जैसे जैसे धनकुबरों की तादाद बढ़ती है वैसे वैसे अर्थव्यवस्था के बेहतर सेहत का दावा पुख्ता होता है पर दोनों अतंरराष्ट्रीय रिपोर्ट इसको पलीता लगा रही हैं क्योंकि धन का केंद्रीयकरण हो रहा है। मनरेगा जैसी योजना ने इस दिशा में थोड़े बदलाव की ठोस पहल की, गांव में दिहाड़ी की दर बढ़ी, मजदूर सात दिन और कई-कई घंटे काम करने की जगह आठ घंटे काम और एक दिन आराम के फार्मूले पर जिंदगी बसर करने लगे। लेकिन पिछले एक साल में धन का केंद्रीयकरण जिस तरह हुआ है उससे मनरेगा की सफलता पर पलीता लगा है। किसी भी सरकार का प्राथमिक और सामाजिक दायित्व यह होता है कि वह इस असमान वितरण को, इस केंद्रीकरण को कैसे न केवल रोके बल्कि उसे नीचे तक पहुंचाने का रास्ता तैयार करे। हो उल्टा रहा है। बाजार ने अपनी इतनी पहुंच बढा दी है कि हर आदमी के हिस्से का थोड़ा बहुत पैसा किसी भी उत्पादनकर्ता तक पहुंच रहा है। धन का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर नहीं है। सरकारों के पास कल्याणकारी काम करने का पैसा नहीं है। लिहाजा काम भी धनकुबेरों के हवाले हैं जिनसे वे मनचाहा मुनाफा कमा लेते हैं।
सरकार को धन के प्रवाह की दिशा बदलनी होगी। उसे एक फीसदी अमीरों को समझाना होगा कि भारत छोड़कर चला जाना कोई हल नहीं हैं क्योंकि वहां इस आर्थिक केंद्रीकरण की गति कम नहीं है। क्रांति माओ और लेनिन की किताब से नहीं निकलती उसका जन्म भूख से तिलमिला रहे, अज्ञानता के घटाटोप अंधेरे में जी रहे, पानी के लिए मीलों चल रहे, दवा के लिए मारे मारे फिर रहे इंसान के आक्रोश से होता है। इसे बांधने और साधने की जिम्मेदारी निभानी होगी, नहीं तो अमरीका और दूसरे देश भी उतने सुरक्षित नहीं होंगे जितनी आप कल की आशा लगाए बैठे हैं।