राज्यसभा की 10 सीटों के लिए उत्तर प्रदेश में हुए हालिया चुनाव में हार के बाद बसपा महासचिव और पार्टी के ब्राह्मण प्रतीक पुरुष सतीश चंद्र मिश्रा ने अपने बयान में कहा कि- ‘भाजपा को आंबेडकर नाम से चिढ़ है। इसी कारण भीमराव आंबेडकर को राज्यसभा में जाने से रोकने के लिए यह लोग हर स्तर पर उतर गए। भाजपा ने धनबल का प्रयोग करके छल से बसपा उम्मीदवार को राज्यसभा में जाने से रोका है। यह लोकतांत्रिक परंपरा पर हमला है। प्रदेश की जनता भाजपा को इस गुनाह के लिए सबक सिखाएगी।’ बसपा ने अपने जिस उम्मीदवार को राज्यसभा चुनाव में उतारा था उनका नाम भीमराव आंबेडकर ही है। सतीश चंद्र मिश्र एक नामचीन वकील हैं अगर उन्हें संविधान निर्माता डा भीमराव आंबेडकर औऱ पराजित उम्मीदवार भीमराव आंबेडकर एक ही नज़र आते हैं तो ऐसे में यह तो समझा जा सकता है कि प्रतीकों की राजनीति कोक नीचे लाने का कैसा दौर आ गया है।
जिन भीमराव आंबेडकर को बसपा ने अपना उम्मीदवार बनाया था उन्हें जिताने के लिए उसके पास अपने सिर्फ 19 विधायक थे। अगर उसे दोनों भीमराव आंबेडकर एक ही नज़र आ रहे थे तो सवाल यह उठता है कि 2007 में पहली बार बसपा से इटावा की लखना सीट से विधायक चुने गये भीमराव आंबेडकर को बाद में किसी पद पर क्यों नहीं बिठाया गया। जब 2007 में पार्टी की स्पष्ट बहुमत की सरकार थी तब उन्हें राज्यसभा के काबिल क्यों नहीं समझा गया। आंबेडकर बसपा के शुरुआती दिनों से जुड़ें हैं। उनमें और ड़ा. भीमराव आंबेडकर में अगर सूक्ष्मदर्शी लेकर कोई साम्य तलाशा जाय तो शायद यही हो सकता है दोनों ने अर्थशास्त्र और कानून की तालीम पाई थी। लेकिन दोनों के तालीम के स्तर में भी जमीन और आसमान का अंतर है।
अप्रत्यक्ष चुनाव में सत्ता के उपयोग का गवाह बनना उत्तर प्रदेश का अभिशाप है। जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं थी तब उसने अपने विधान परिषद उम्मीदवार दयाशंकर सिंह और अपनी समर्थित राज्यसभा प्रत्याशी रही प्रीती महापात्रा के लिए 14 वोट दूसरे दलों से जुटा लिए थे। आज जब वह केंद्र और राज्य में सत्ता में है तब कुल 6 वोट अपने पाले में कर पाई है। राजीव शुक्ला लड़े थे तो इसी भाजपा के 20 वोट क्रास कर गये थे। ऐसे में यह कहना कि सत्ता का रसूख किसी चुनाव में काम नहीं आता है एक सच पर पर्दा ड़ालना होगा। इस बार भी आया। जब अखिलेश यादव और मायावती सत्ता में थे तब भी काम आया था। हालांकि इनके कार्यकाल में राज्यसभा के ज्यादातर उम्मीदवार निर्विरोध ही चुन लिए जाते रहे थे।
इस बार भाजपा के पास 28 अतिरिक्त वोट थे। ऐसे में भीमराव आंबेडकर बनाम भाजपा का तर्क बेमानी है। यह तर्क कुछ ऐसा ही है कि अगर कोई अपना नाम रामचंद्र रख ले और उसे मर्यादा पुरुषोत्तम के सम्मान की गफलत हो जाय।
संविधान निर्माता डा. भीमराव आंबेडकर और बसपा के राज्यसभा उम्मीदवार की बराबरी भारत रत्न पाए मनीषी की तौहीन है। आखिर कब तक इस तरह के विभ्रम करने वाले तर्कों से दलितों के जज्बातों की राजनीति की जानी चाहिए। अपनी बिरादरी का जितना कल्याण और विकास अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव ने किया उसका एक चौथाई भी मायावती ने किया होता तो न केवल प्रदेश के विकास की तस्वीर बदली होती बल्कि डा भीमराव आंबेडकर और भीमराव आंबेडकर की तुलना के गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
डा आंबेडकर को विदेश भेजने में वडोदरा के महाराज गायकवाड और कोल्हापुर के शासक ने आर्थिक मदद की थी। उन्हें आंबेडकर टाइटिल उनके ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर ने दिया था क्योंकि डा भीमराव एक सुतीक्ष्ण बुद्धि छात्र थे। उनकी टाइटिल सकपाल थी। कोंकण प्रांत के लोग अपने नाम में उपनाम गांव के नाम से लगा देते थे। डा भीमराव आंबेडकर का मूल गांव आम्बाड्वे था। नतीजतन उनके पिता ने सकपाल हटाकर आंवंडवेकर लगा दिया था। परन्तु कृष्णा महादेव ने उन्हें अपनी टाइटिल दे दी। डा आंबेडकर के मनुस्मृति जलाने के अभियान की अगुवाई चितपावन ब्राह्मण गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे ने की थी।
महात्मा गांधी स्कूल के दिनों से अस्पृश्यों की समस्या के बारे में सोचने लगे थे। उन्हीं के चलते अस्पृश्यता की समस्या को कांग्रेस ने अपने एजेंडे में लिया था। यह बात डा. आंबेडकर ने कई जगह कही है। 1924-25 में केरल के वाइकोम मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए भी सफल सत्याग्रह महात्मा गांधी ने किया था। दिसंबर, 1927 में महाड़ में डा आंबेडकर के द्वारा आयोजित सत्याग्रह परिषद के आयोजन में महात्मा गांधी का चित्र लगा हुआ था। 1935-36 में जब डा आंबेडकर ने सामूहिक धर्मांतरण की धमकी दी थी तब मार्च 1936 में गुजरात के सोवली गांव के एक कार्यक्रम ने जमनालाल बजाज ने इस पर महात्मा गांधी की राय पूछी तो उन्होंने कहा- ‘ डा आंबेडकर की जगह अगर मैं होता तो मुझे भी इतना ही क्रोध आता। उस स्थिति में रहकर शायद मैं अहिंसावादी नहीं बनता। डा आंबेडकर जो कुछ करें उसे नम्रता से हमें सहना चाहिए। अगर वह सचमुच हमें जूतों से मारें तो भी हमें सहन करना चाहिए।’
इतना ही नहीं 1948 में भारत में अंतरिम सरकार का गठन होने के बाद संविधान निर्माण परिषद बनी। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू और सरोजनी नायडू गांधी जी से मिलने गये थे। नेहरू के चिंतित नज़र आने पर गांधी जी ने वजह पूछा तो नेहरू ने बताया कि संविधान बनाने के लिए एशियार्इ देशों के संविधान विशेषज्ञ आयुस जेनिस को बुलाने की वह सोच रहे हैं। तब गांधी जी ने कहा कि आपके पास संविधान विशेषज्ञ आंबेडकर हैं।
महात्मा गांधी की हत्या जब हुई तो सबसे पहले पहुंचने वालों में डा भीमराव आंबेडकर ही थे। डा आंबेडकर और महात्मा गांधी की पहली मुलाकात 14 अगस्त 1931 को मुंबई के मणि भवन में हुई थी। आंबेडकर और गांधी के बीच असहमति के सिर्फ दो बिंदु थे- पूना पैक्ट और डा आंबेडकर का साइमन कमीशन को सहयोग करना। पर दलित वोटरों को निरंतर यह बताया जा रहा है कि गांधी आंबेडकर विरोधी थे। डा आंबेडकर को आज भी दलित ठहराया जा रहा है। आखिर कब तक मायावती, रामविलास पासवान, रामदास अठावले, मीराकुमार दलित बने रहेंगे। डा आंबेडकर हमारे भारत रत्न हैं संविधान के अलावा भारत की अर्थव्यवस्था को आकार देने में वे मील के पत्थर हैं। उन्होंने उस समय कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल आफ इक्नॉमिक्स दोनों से तालीम पाई थी। डाक्टर आंबेडकर को खांचे निकलने दिया जा रहा है। दलित सांचे में फिट करके हथियार बनाया जा रहा है। इसी मनोवृत्ति और मानसिकता का नतीजा है कि भीमराव आंबेडकर की पराजय को डा भीमराव आंबेडकर की पराजय के चश्मे से देखा जा रहा है।
जिन भीमराव आंबेडकर को बसपा ने अपना उम्मीदवार बनाया था उन्हें जिताने के लिए उसके पास अपने सिर्फ 19 विधायक थे। अगर उसे दोनों भीमराव आंबेडकर एक ही नज़र आ रहे थे तो सवाल यह उठता है कि 2007 में पहली बार बसपा से इटावा की लखना सीट से विधायक चुने गये भीमराव आंबेडकर को बाद में किसी पद पर क्यों नहीं बिठाया गया। जब 2007 में पार्टी की स्पष्ट बहुमत की सरकार थी तब उन्हें राज्यसभा के काबिल क्यों नहीं समझा गया। आंबेडकर बसपा के शुरुआती दिनों से जुड़ें हैं। उनमें और ड़ा. भीमराव आंबेडकर में अगर सूक्ष्मदर्शी लेकर कोई साम्य तलाशा जाय तो शायद यही हो सकता है दोनों ने अर्थशास्त्र और कानून की तालीम पाई थी। लेकिन दोनों के तालीम के स्तर में भी जमीन और आसमान का अंतर है।
अप्रत्यक्ष चुनाव में सत्ता के उपयोग का गवाह बनना उत्तर प्रदेश का अभिशाप है। जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं थी तब उसने अपने विधान परिषद उम्मीदवार दयाशंकर सिंह और अपनी समर्थित राज्यसभा प्रत्याशी रही प्रीती महापात्रा के लिए 14 वोट दूसरे दलों से जुटा लिए थे। आज जब वह केंद्र और राज्य में सत्ता में है तब कुल 6 वोट अपने पाले में कर पाई है। राजीव शुक्ला लड़े थे तो इसी भाजपा के 20 वोट क्रास कर गये थे। ऐसे में यह कहना कि सत्ता का रसूख किसी चुनाव में काम नहीं आता है एक सच पर पर्दा ड़ालना होगा। इस बार भी आया। जब अखिलेश यादव और मायावती सत्ता में थे तब भी काम आया था। हालांकि इनके कार्यकाल में राज्यसभा के ज्यादातर उम्मीदवार निर्विरोध ही चुन लिए जाते रहे थे।
इस बार भाजपा के पास 28 अतिरिक्त वोट थे। ऐसे में भीमराव आंबेडकर बनाम भाजपा का तर्क बेमानी है। यह तर्क कुछ ऐसा ही है कि अगर कोई अपना नाम रामचंद्र रख ले और उसे मर्यादा पुरुषोत्तम के सम्मान की गफलत हो जाय।
संविधान निर्माता डा. भीमराव आंबेडकर और बसपा के राज्यसभा उम्मीदवार की बराबरी भारत रत्न पाए मनीषी की तौहीन है। आखिर कब तक इस तरह के विभ्रम करने वाले तर्कों से दलितों के जज्बातों की राजनीति की जानी चाहिए। अपनी बिरादरी का जितना कल्याण और विकास अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव ने किया उसका एक चौथाई भी मायावती ने किया होता तो न केवल प्रदेश के विकास की तस्वीर बदली होती बल्कि डा भीमराव आंबेडकर और भीमराव आंबेडकर की तुलना के गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
डा आंबेडकर को विदेश भेजने में वडोदरा के महाराज गायकवाड और कोल्हापुर के शासक ने आर्थिक मदद की थी। उन्हें आंबेडकर टाइटिल उनके ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर ने दिया था क्योंकि डा भीमराव एक सुतीक्ष्ण बुद्धि छात्र थे। उनकी टाइटिल सकपाल थी। कोंकण प्रांत के लोग अपने नाम में उपनाम गांव के नाम से लगा देते थे। डा भीमराव आंबेडकर का मूल गांव आम्बाड्वे था। नतीजतन उनके पिता ने सकपाल हटाकर आंवंडवेकर लगा दिया था। परन्तु कृष्णा महादेव ने उन्हें अपनी टाइटिल दे दी। डा आंबेडकर के मनुस्मृति जलाने के अभियान की अगुवाई चितपावन ब्राह्मण गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे ने की थी।
महात्मा गांधी स्कूल के दिनों से अस्पृश्यों की समस्या के बारे में सोचने लगे थे। उन्हीं के चलते अस्पृश्यता की समस्या को कांग्रेस ने अपने एजेंडे में लिया था। यह बात डा. आंबेडकर ने कई जगह कही है। 1924-25 में केरल के वाइकोम मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए भी सफल सत्याग्रह महात्मा गांधी ने किया था। दिसंबर, 1927 में महाड़ में डा आंबेडकर के द्वारा आयोजित सत्याग्रह परिषद के आयोजन में महात्मा गांधी का चित्र लगा हुआ था। 1935-36 में जब डा आंबेडकर ने सामूहिक धर्मांतरण की धमकी दी थी तब मार्च 1936 में गुजरात के सोवली गांव के एक कार्यक्रम ने जमनालाल बजाज ने इस पर महात्मा गांधी की राय पूछी तो उन्होंने कहा- ‘ डा आंबेडकर की जगह अगर मैं होता तो मुझे भी इतना ही क्रोध आता। उस स्थिति में रहकर शायद मैं अहिंसावादी नहीं बनता। डा आंबेडकर जो कुछ करें उसे नम्रता से हमें सहना चाहिए। अगर वह सचमुच हमें जूतों से मारें तो भी हमें सहन करना चाहिए।’
इतना ही नहीं 1948 में भारत में अंतरिम सरकार का गठन होने के बाद संविधान निर्माण परिषद बनी। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू और सरोजनी नायडू गांधी जी से मिलने गये थे। नेहरू के चिंतित नज़र आने पर गांधी जी ने वजह पूछा तो नेहरू ने बताया कि संविधान बनाने के लिए एशियार्इ देशों के संविधान विशेषज्ञ आयुस जेनिस को बुलाने की वह सोच रहे हैं। तब गांधी जी ने कहा कि आपके पास संविधान विशेषज्ञ आंबेडकर हैं।
महात्मा गांधी की हत्या जब हुई तो सबसे पहले पहुंचने वालों में डा भीमराव आंबेडकर ही थे। डा आंबेडकर और महात्मा गांधी की पहली मुलाकात 14 अगस्त 1931 को मुंबई के मणि भवन में हुई थी। आंबेडकर और गांधी के बीच असहमति के सिर्फ दो बिंदु थे- पूना पैक्ट और डा आंबेडकर का साइमन कमीशन को सहयोग करना। पर दलित वोटरों को निरंतर यह बताया जा रहा है कि गांधी आंबेडकर विरोधी थे। डा आंबेडकर को आज भी दलित ठहराया जा रहा है। आखिर कब तक मायावती, रामविलास पासवान, रामदास अठावले, मीराकुमार दलित बने रहेंगे। डा आंबेडकर हमारे भारत रत्न हैं संविधान के अलावा भारत की अर्थव्यवस्था को आकार देने में वे मील के पत्थर हैं। उन्होंने उस समय कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल आफ इक्नॉमिक्स दोनों से तालीम पाई थी। डाक्टर आंबेडकर को खांचे निकलने दिया जा रहा है। दलित सांचे में फिट करके हथियार बनाया जा रहा है। इसी मनोवृत्ति और मानसिकता का नतीजा है कि भीमराव आंबेडकर की पराजय को डा भीमराव आंबेडकर की पराजय के चश्मे से देखा जा रहा है।