बदले सामाजिक सरोकार नहीं जन पा रहे हैं पठन-पाठन का संस्कार
Written By : Yogesh Mishra
Update:1998-02-04 22:03 IST
साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का मानना है कि दक्षिण के राज्यों की अपेक्षा यहां निरक्षरता अधिक है। यहां के शिक्षा संस्थानों की अपेक्षाकृत हीनता हिन्दी पुस्तकों के कम बिक्री के लिए दोषी हैं क्योंकि शिक्षा संस्थान अपने छात्रों को नवीन साहित्य के प्रति प्रोत्साहित नहीं करते। हिन्दी पुस्तकों के कम बिकने के पीछे वे पाठकों को परोसे जाने वाले साहित्यिक सामग्री की विचित्रता को भी दोषी मानते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि समकालीन हिन्दी कविता जो अधिकांशतः वंचितों और शोषितों के प्रति प्रतिबद्ध होने का दावा करती है वह सामान्य पाठक से पूर्णतः कटी हुई है। और उदाहरण लेना हो तो निराला की 'वह तोड़ी पत्थर' देखें। इसका मुकाबला किसी समय के सशक्त कवि रहे रघुवीर सहाय की एक कविता से भी कर सकते हैं परन्तु 'वह तोड़ती पत्थर' आज भी हमारे खोपड़े पर वैचारिक क्रांति के पत्थर तोड़ती है। और रघुवीर सहाय सामान्य पाठक की जुबान पर उस तरह नहीं आ पाते, मुझे लगता है कि हिन्दी की नवीनतम कविता शैली में कहीं कोई खोट है जो उन्हीं लोगों तक नहीं पहुंच पाती जिनको वह सम्बोधित है। दूसरे सवाल के जवाब में श्रीलाल शुक्ल पाठकों के सच के साथ खड़े हैं बताते हैं आज से पचास साल पहले हिन्दी में प्रकाशन व्यवसाय करके कोई भी प्रकाशक कुछ अपवादों को छोड़कर इतना सम्पन्न नहीं हुआ था जितना आज हिन्दी का कोई टुटपंुजिया प्रकाशक। वास्तव में हिन्दी की दुर्गति राजभाषा के रूप में उसके लिए विशेष सुविधाएं देने के कारण हुई है। इसलिए अधिकांश प्रकाशक अपनी दृष्टि से ज्यादा कीमत वाली और ज्यादा मोटी पुस्तकों के सरकारी और संस्थागत क्रय पर रखते हैं, सामान्य पाठक के ऊपर नहीं।
हिन्दी से इतर विषयों पर मौलिक लेखन न होने की बात पर वे कहते हैं कि यह प्रश्न ऐसा नहीं है कि इसका मैं विशेष रूप से कोई उत्तर दे सकूं। इसका उत्तर विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों से मांगा जाना चाहिए। जो विशेषज्ञ, वैज्ञानिक व टेक्नालाॅजिस्ट हैं उनके मन में यह भय है कि के वल हिन्दी माध्यम में लिखने के आधार पर वे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकते और यह सही भी है। अमृत्य सेन जैसे अर्थशास्त्री ट्निटी काॅलेज, आॅक्सफोर्ड में मास्टर नहीं नियुक्त हो सकते थे अगर वे गंगाधर गाडगिल की तरह मराठी में अर्थशास्त्र के बारे में लिखा करते। मुझे लगता है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और समाजशास्त्रीय विषयों में हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं की अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी हैसियत नहीं है।
साहित्यकार कामतानाथ हिन्दी में किताबें न बिकने के पीछे समाज के सरोकार को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं हमारे कन्सन्र्स बदल गये हैं पहले साहित्य या पुस्तक एक आदमी की जिन्दगी जीवने का तौरा तरीका था। उसका एक आवश्यक हिस्सा था। यानि आदमी में पढ़ने के संस्कार पड़े थे। परिवारों में भी पढ़ने के संस्कार डालने की परम्परा था। लेकिन आज समाज ओर परिवार दोनों के सरोकार बदल गये हैं। अब सरोकार किसी भी कीमत पर भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करना है। अतः हम मूल्यहीनता के दौर से गुजर रहे हैं। साहित्य मूल्यों का पाषक होता है। मूल्य पुस्तकों के अधिक हो गये हैं इसलिए नहीं बिकतीं यह आंशिक सत्य है। मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि मुझे पुस्तक खरीदने की आदत तब से है, जब पढ़ रहा था। मैं पाॅकिट मनी से बचाकर पुस्तकें खरीदता था। इतना ही नहीं ज्यादातर लोग जो पुस्तकें खरीदना अफोर्ड नहीं कर सकते थे। वे भी खरीदते थे। मध्य वर्ग या निम्न मध्य वर्ग की कभी यह सोच नहीं रही कि वे जरूरतों को काटकर पुस्तकें खरीदें। पहले पुस्तक ड्राइंगरूम की शोभा हुआ करती थीं। पुस्तकों का ड्राइंगरूम में होना सुसंस्कृत होने का प्रतीक था। अब यह बदल गया है। टी.वी., फर्नीचर और इलेक्ट्रानिक वस्तुएं ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठी हैं।
पाठक जो कहते हैं वह बात सच नहीं है क्योंकि जिन्हें पुस्तकों से प्रेम या लगाव है वे महंगी पुस्तकें भी खरीदते हैं परन्तु यह भी सच है कि पुस्तकों के दाम अनावश्यक रूप से अधिक हैं। क्योंकि आज पुस्तकों के मूल्य निर्धारण का जो गणित है उसमें कमीशन और घूस का हिस्सा भी पुस्तक मूल्य को निर्धारित करने में भूमिका अदा करता हैं प्रकाशक काउण्टर सेल में विश्वास नहीं करता। साधारण मनुष्य की जो मनोवृत्ति होती है प्रकाशक भी उसी का हिस्सा हैं आज से पहले के जमाने में प्रकाशन को मिशन माना जाता था। गंगा पुस्तक माला उसका उदाहरण है। वे लोग पुस्तकों को प्रमोट करने, लेखकों को आर्थिक सहायता देने में गौरवान्वित होते थे। आज प्रकाशक की दृष्टि में मुख्य लक्ष्य पैसा कमाना है।
वे कहते हें, हिन्दी इतर संदर्भों में मौलिक लेखन पर कुछ कहना मेरे लिए ठीक नहीं है क्योंकि यह मेरा विषय तो नहीं है। इस तरह की पुस्तकें जो हम लोग लिखते हैं वह बेहतर जवाब देने की स्थिति में होंगे लेकिन मुख्य कारण यह है कि आज भी अंग्रेजी और अंग्रेजियत का भारतीय समाज में वही वर्चस्व है जो आजादी के पहले था। आज आइसोलेशन में काम नहीं हो सकता। तुलनात्मक अध्ययन किये बिना किसी अन्य विषय में लिख पाना सम्भव नहीं है और यही कारण है कि अंग्रेजी का तुलनात्मक अध्ययन किये बिना कुछ भी लिख पाना हिन्दी माध्यम के लेखकोें की पहुंच से बाहर हो जाता है। श्यामाचरण दुबे जैसे कुछ लोगों ने हिन्दी में काम किया था। वैसे हिन्दी में मौलिक लेखन न करने के पीछे सरकारी नीतियां भी आड़े आती हैं क्योंकि सरकार हिन्दी ओरिएंटेशन के लिए कोई काम नहीं कर रही है।
अरून्धती राय और विक्रम सेठ स्वयं नहीं होते, इन्हें बनाया जाता है। वास्तव में एक पूंजीवादी तंत्र की ये उपज हैं। विदेशों में प्रकाशक की जो व्यवस्था है उसमें लेखक या पुस्तक सेलेबुल काॅमाडिटी है। पुस्तक तभी बिक्री के योग्य बनेगी जब उसका इस स्तर पर प्रचार-प्रसार किया जायेगा। उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन में जितना पैसा व्यय होता है वह प्रोडक्शन कास्ट से कम नहीं होता। अंग्रेजी में लेखकों को बाजार के नियमों के तहत उपभोक्ता वस्तु की कीमत बढ़ाने के लिए पूरा एक तंत्र काम करता है। यह तंत्र अरून्धती राय व विक्रम सेठ से अच्छा लेखन हिन्दी में है। यह ऐसे ही है जैसे बन्दरछाप दंत मंजन और बढ़िया टूथपेस्ट। टूथपेस्ट को इस्तेमाल नहीं करने वाले पिछड़े माने जाते हैं। यही स्थिति है पश्चिमी समाज या भारत के तेजी से पश्चिमीकरण हो रहे स्वरूप की है जो लोग विक्रम सेठ और अरून्धती राय को नहीं पढ़ पाते हैं वे पिछड़े माने जाते हैं।
कहानीकार वीरेन्द्र यादव किताबें न बिकने के कई कारण मानते हैं। उनका माना है किताबों को लेकर जो एक बौद्धिक पृष्ठभूमि पाठक की बननी चाहिए वह बचपन से लेकर शिक्षा तक नहीं बन पाती है। इतना ही नहीं इस संस्कार को बनाने में, सकारात्मक वातावरण तैयार करने की दिशा में भी कोई कोशिश नहीं की जाती। इसीलिए साहित्य या भाषाई संस्कार जो एक शिक्षित व्यक्ति के पास होना चाहिए वह नहीं होता। इसी के साथ जुड़ी हुई बात यह है कि विश्वद्यिालयों का वातावरण व बौद्धिक व साहित्यिक रूप से बंजर हो चुका है, जिससे न साहित्यिक संस्कार बन पाते हैं और न ही पुस्तकों के सम्बन्धम ें जानकारी प्राप्त हो पाती है। हमारे यहां पुस्तकालय आन्दोलन होना चाहिए। यह हिन्दी क्षेत्र में बिल्कुल नहीं हैं नये पुस्तकालय तो खुल नहीं रहे हैं और पुराने पुस्तकालय हैं उनमें नयी अच्छी किताबें खरीदी नहीं जा रही हैं। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को किताबों की जानकारी के लिए जिस भूमिका का निर्वाह करना चाहिए वह भी नहीं हो रहा है। अखबारों और पत्रिकाओं से साहित्य दिनों दिन गायब होता जा रहा है। इसीलिए न साहित्यिक पुस्तकों की जानकारी हो पाती है और न ही साहित्य के प्रति ललक पैदा हो पाती है।
किताबें न बिकने के पीछे ये सब कुछ मिलजुल कर और कुछ और भी कारण इसके मूल में हैं। जहां तक पुस्तकें महंगी होने की बात है महंगाई और पुस्तकों की मंहगाई का अनुपात गड़बड़ा गया है। क्योंकि प्रकाशक की सामान्य पाठकों तक पुस्तक पहुंचाने में रूचि समाप्त हो गयी है। वह कमीशनखोरी के जरिये सरकारी तंत्र में अपनी पुस्तकें बेंच लेता है और दाम भी इसीलिए उलटे-सीधे बढ़ा-चढ़ाकर रखता है क्योंकि उसे लागत और कमीशन की राशि निकालनी पड़ती है। इन परिस्थितियों में खरीद कर जो पाठक पुस्तक पढ़ता है वह स्वयं को असहाय स्थिति में पाता है। यद्यपि इन दिनों कुछ प्रकाशकों ने पेपर बैक संस्करण कुछ लोकप्रिय पुस्तकों के प्रकाशित किये हैं जो बिक भी रहे हैं। वीरेन्द्र यादव प्रकाशकों के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि पुस्तकें इसलिए महंगी हो रही हैं कि उनके पाठक नहीं हैं।
अरून्धती राय की पुस्तक सम्पूर्ण देश के सााि हिन्दी क्षेत्र में भी बिकी है और अगर अरून्धती राय की बात छोड़ भी दें तो हिन्दी में ही सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चांद चाहिए' के पांच वर्ष में छह संस्करण बिक चुके हैं, जबकि इस पुस्तक का सजिल्द संस्करण दो सौ पचास रूपये का है और पेपर बैक एक सौ पच्चीस रूपये का है। इसी दौर में तसलीमा नसरीन की 'लज्जा' हिन्दी में लाख से ऊपर बिकी है। इसलिए कहा जा सकता है कि अभी भी हिन्दी में पाठक वर्ग हैै। लेकिन प्रकाशक कम समय में अधिक लाभ कमाने की मनोवृत्ति के चलते प्रकाशन व्यवसाय के साथ जो मिशन की संकल्पना होनी चाहिए उससे दूर होते जा रहे हैं।
आज की स्थितियों को देखते हुए मैं यह उचित नहीं मानता कि कहानी, कविता, उपन्यास के अतिरिक्त हिन्दी में अन्य विषयों पर मौलिक लेखन नहीं हो रहा है। हाल ही के वर्षों में समाजशास्त्रीय विषयों पर डाॅक्टर राम विलास शर्मा, श्यामाचरण दुबे, पुरूषोत्तम अग्रवाल, मृणाल पाण्डेय और राजकिशोर आदि की महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इतना ही नहीं ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली ने तो लगभग बीस से अधिक समाजशास्त्रीय पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित किया है। चैथे सवाल के जवाब में वीरेन्द्र यादव कहते हैं यह हिन्दी या अंग्रेजी का प्रश्न नहीं है। इसके मूल में कहीं अंतर्राष्ट्रीय बाजार है। इसका खुलासा तब होगा जब अरूंधती राय और विक्रम सेठ की पुस्तकें हिन्दी में अनुदित होकर उपलब्ध हो जायेंगी और तब भी उस बड़ी संख्या में नहीं बिकेंगी जिस बड़ी संख्या में वह अंग्रेजी में बिक रही हैं। मैं नहीं समझता कि अरूंधती और विक्रम सेठ जैसा लिखकर हिन्दी में बाजार बनाया जा सकता है। यहां मैं यह तथ्य स्वीकार करता हूं कि अरूंधती राय और विक्रम सेठ दोनों की पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं लेकिन ये हिन्दी में नहीं बिकेंगी तो इनके न बिकने के भी वही कारण होंगे जो हिन्दी की कुछ श्रेष्ठ पुस्तकों के न बिकने के कारण होते हैं। दूसरी बात यह भी है कि गुणवत्ता के बावजूद इन पुस्तकों के पीछे एक प्रचार तंत्र है जो पुस्तक को पुस्तक न रखकर एक माल के रूप में प्रस्तुत करता है। पुस्तक माल बने इससे बेहतर है कि पुस्तकें कम बिक कर भी गुणवत्ता के आधार पर अपनी जगह बनायें।
लम्बे समय तक अध्यापन पेशे से जुड़े साहित्यकार रमेश कुन्तल मेघ का मानना है कि हिन्दी में बुक कल्चर नहीं है। पुस्तक संस्कृति नहीं हैं कमीशन की खरीद इसके लिए जिम्मेदार है। वे कहते हैं मैं लगभग दस वर्ष तक अध्यक्ष रहा लोग पुस्तकों की खरीद पर पच्चीस फीसदी कमीशन की बात उठाते रहे और इसके खिलाफ मुझे लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। हिन्दी में लैंग्वेज प्लानिंग नहीं हो पा रही है और बुक डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी हिन्दी में एकदम नहीं है। मधुदंडवते के समय में रेलवे स्टेशन के स्टालों पर सर्वोदय साहित्य की कुछ पुस्तकें रखवायी गयी थीं। हिन्दी में पुस्तकों की मार्केटिंग ठीक नहीं है। वैसे तो हिन्दी के दो-तीन ऐसे बड़े प्रकाशक हैं जिनका टर्न ओवर दो करोड़ से ज्यादा है। इसलिए यह कहना कि किताबें बिकती नहीं हैं एकदम गलत है। न बिकने के और कारण हैं जिनकी ओर मैंने संके त किया है। एक कारण छात्रों को टेक्स्ट बुक का नहीं देखना भी है। आज छात्र गाइड और गेस पेपर से काम चला लेते हैं। उत्तर प्रदेश को ही ले लें तो यहां बीस लाख की खरीद होती है। इसमें बड़ा स्कैम है। हमारे एक मित्र कार इंडस्ट्री में हैं। जब सेलो और टाटा सूमो की बिक्री की बात आयी तो उन्होंने कीमत ढ़ाई-तीन लाख रूपये रखने से मना कर दिया। वे इनकी कीमत छह लाख रूपये से नीचे रखने के पक्षधर नहीं थे। उनका तर्क था कि हम इलिट मार्केट बनाएंगे और ज्यादा प्राॅफिट कमाएंगे। बिल्कुल यही नीति किताबों के बारे में लागू होती है। कास्ट से चार-पांच गुना मूल्य रखे जाते हैं। तीस फीसदी रिटेलर को मिलता है। दस प्रतिशत रिश्वत। दस फीसदी सामान्य ग्राहक को छूट दी जाती है और दस प्रतिशत पोस्टेज पर खर्च आता है। किताबों के लागत से चार-पांच गुने अधिक मूल्य रखने की प्रवृत्ति रोकी जानी चाहिए। क्योंकि किसी भी मार्केटिंग काॅमाडिटी में ऐसा नहीं होता कि वहां चालीस फीसदी बचत हो।
आप पाठ्यपुस्तकों के ही मूल्यों को देखें, इसमें दस फीसदी से ज्यादा कमीशन नहीं होता है। यही कारण है कि पाठ्यपुस्तकों के मूल्य कम होते हैं। पाइरेट एडीशन रोके जाने चाहिए। क्योंकि इनके चलते असली किताबें पड़ी रहती हें और नकली किताबें बाजार में आ जाती हैं। हर किताब का पेपर बैक संस्करण छह माह के बाद निकाल दिया जाना चाहिए और दाम सजिल्द संस्करण से आधे होने चाहिए। तसलीमा नसरीन की 'लज्जा' और 'औरत के हक में' को ही लें। मैंने सुना है कि इनके पेपर बैक संस्करण पांच लाख से ज्यादा राॅयल्टी आयी है। पेपर बैक कल्चर को बढ़ावा देना चाहिए। यह शुभ संके त है कि प्रेस अपने काॅलम में परफार्मिंग आर्ट पर बल दे रहा है परन्तु साहित्य और विचार का पनना लगभग लुप्त होता जा रहा है। देखिए न, लखनऊ से इस दिशा में सिर्फ दो अखबारों में काम हो रहा है जिसमें एक आप हैं।
हिन्दी इतर विषयों में मौलिक लेखन न होने के पीछे मूल कारण हमारे पास फ्रीलांस राइटर का अभाव होना है। हिन्दी से एम.ए. किये लोग किस्से-कहानी ही लिखेंगे, अन्य क्षेत्रों के विद्वान यह मानते हैं कि हिन्दी में किताबें नहीं चलेंगी। जबकि आन्नद कृष्ण, राय कृष्णदास और श्यामाचरण दुबे ने हिन्दी में हिन्दी इतर विषयों पर भी किताबें लिखी हैं और वे खूब बिकीं। आज जरूरत लैंग्वेज प्लानिंग की है। टारगेटेड लैंग्वेज प्लानिंग जब तक नहीं होगी तब तक हिन्दी इतर विषयों में कुछ नहीं किया जा सकता। अभी तो शुरूआत यही करनी होगी कि अंग्रेजी में जो लेखक लिख रहे हैं उन्हें एश्योर्ड सेल और अट्रैक्टिव राॅयल्टी दी जाये, जिससे वे हिन्दी में लिखें। हिन्दी में मीडिया की शक्ति पहचानी नहीं गयी है। मीडिया स्पांसर और प्रोजेक्ट करता है। मीडिया ने अरूंधती राय व विक्रम सेठ को बनाया। जावेद अख्तर को ही देखिये, उन्होंने मीडिया की ताकत को पहचाना। इनका मानना है कि अब राइटिंग में मात्र रियलिज्म नहीं रह गया है। एक सामान्य पाठक रियलिज्म से आगे कई चीजें जानना चाहता है। हिन्दी लेखक बहुत बंधा है। हिन्दी में स्त्री को नंगा नहीं दिखा सकते। हमारी जकड़ कम होनी चाहिए। आधुनिकता का मतलब मैं जकड़ छोड़ने से भी नहीं मानता हूं। हां, हमें गतिशील नारी का चित्रण करना ही होगा। 'मुझे चांद चाहिए' में नारी की परम्परा से हटकर तस्वीर बनायी गयी है, वह बिकी। हमारे समाज में अतिरिक्त सेंसर है यह सेंसर घुटन पैदा करता है। क्राइम की ओर ले जाता है। जबकि विद्रोह वाला सेंसर निर्माण को जन्म देता है।
ममता कालिया हिन्दी किताबों के कम बिकने के पीछे पब्लिशर्स की मार्केटिंग पाॅलिसी को दोषी मानती हैं। बताती हैं फेयर एण्ड लवली 'मुझे चांद चाहिए' बेच रहा है। 'चंद्रकांता' जैसी पुरानी रचना को कालगेट, लक्मे बेच रहे हैं। किताबों को बेचने के लिए रायल्टी, प्राॅफिट और मार्केटिंग की दृष्टि से नयी पाॅलिसी लानी पड़ेगी। किताब सूची पत्र निकालने से नहीं बिकती है। घूस देकर भी किताबें नहीं बिकेंगी। यह सच है कि किताबें महंगी हैं। कई किताबें ऐसी हैं जिन्हें खरीदना चाहती हूं पर जोड़-तोड़ करना पड़ता है। इसके पीछे तो बड़े-बड़े कारण हैं। सरकार को कागज नीति बदलनी चाहिए। प्रकाशक, लेखक को डिस्करेज करने के लिए मार्जिन कम करना चाहता है परन्तु पुस्तक के मूल्य में घूस की रकम भी शामिल कर लेता है। लेखक के लिए यह बहुत ही क्षुब्ध करने वाला दृश्य है कि उसे न कोई बेचने वाला और न कोई प्रोजेक्ट करने वाला फिर भी वह लिखे जा रहा है।
हिन्दी इतर विषयों पर लिखने के लिए जो फुर्सत चाहिए वह शायद हिन्दी के लेखक को उपलब्ध नहीं है। श्यामाचरण दुबे ने इस क्षेत्र में काफी काम किया है। अरूंधती राय और विक्रम सेठ की मार्केटिंग बहुत बढ़िया है। अगर अरूंधती राय के रल के एक गांव को सजीव करती हैं तो क्या मैत्रेयी पुष्पा अन्तरपुर गांव को सजीव करने में कहीं कमजोर पड़ती हैं? नागार्जुन और रेणु ने भी इस गांव को ठीक से रेखांकित किया है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि अरूंधती राय ने जो भी किया वह ऐसा नहीं है कि पहले नहीं किया गया हो। हां, जो कहा गया है उसमें भाषागत विशेषता है। अरूंधती राय ने अपने कथन को सपाट बयानी दी है। वह तारीफ करने लायक है। विक्रम सेठ को मैंने नहीं पढ़ा है परंतु मैं मानती हूं कि इनके मार्केटिंग एजेंट बहुत बढ़िया हैं। वे कमाल के लोग हैं। इतना ही नहीं इन लेखकों को अपनी पुस्तकों के प्रमोशन के लिए व्यापक दौरे करने पड़ते हैं। हिन्दी के लेखक के पास शहर छोड़कर जाने के लिए किराया भाड़ा नहीं होता है। हिंदी में कामर्शियल होना बुरा माना जाता है। अश्कजी थोड़े कामर्शियल थे, उन्होंने लोग सेल्समैन कहते थे। कमलेश्वर ने अपने को कामर्शियल बनाया तो देखिए न, 'हंस' की कोई सम्पादकीय कमलेश्वर को गाली दिये बिना पूरी नहीं होती है। अरूंधती राय से बहुत अच्छा महाश्वेता देवी लिखती हैं। मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं।
लब्ध प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना कहते हैं यह भी दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जो पूरा कल्चर बन रहा है उसमें हमारे कोई भी नेता पढ़े-लिखे नहीं हैं पुस्तकों के बारे में बात नहीं करते। चाहें मुलायम सिंह यादव हों या अटल बिहारी वाजपेयी। संसद के पिछले सत्र में गुजराल ने दो-चार शेर पढ़े। कविताएं सुनायीं तो लोगों को लगा कि संसद में भी साहित्य को अवसर मिल सकता है। हमारे राष्ट्रीय चरित्र में पुस्तकों का महत्व नहीं है। मेरा संबंध तो कविता से है। अच्छी कविता को पूर्वाग्रहों से नीचे ढके ल दिया जाता है। आज फुलटाइम कवि साहित्यकार कोई नहीं है। सरकारी आयोजन को ही देखें तो उसमें भी घटिया कविता को ही प्रमोट किया जाता है। जनता अपने स्तर पर मनोरंजन तो हमेशा क्रिएट कर ही लेती है लेकिन सरकारी एजेंसी जब काम करे तो उसे स्तरीयता का ध्यान तो रखना ही चाहिए। यह भी एक मिथ है कि अच्छी और बौद्धिक कविता को जनता पसंद नहीं करती। खेल, राजनीति, न्यूज का चैनल है परंतु साहित्य का कोई चैनल नहीं है। हमारी टेक्नोलाॅजी पर बाजारी शक्तियों का कब्जा हो गया है, जो थोड़ी बहुत गुंजाइश बची है वह भी खत्म हो रही है। रही पाठक और प्रकाशक की बात तो दोनों कुछ न कुछ गलत कह रहे हैं। दोनों कुछ न कुछ सही कह रहे हैं। प्रकाशक साहित्य के प्रमोटर नहीं हैं। वे व्यवसाय कर रहे हैं। उनके लिए आसान रहता है कि पुस्तकों की कीमतें बढ़ाकर रखें अच्छा पैसा घूस में देकर भी अपना पैसा जल्दी से जल्दी दो गुना-तीन गुना कर लें...। उनके भीतर साहित्य को आगे बढ़ाने की भावना तो होती नहीं है। साहित्यकारों का काम तभी चल सकता है जब वे सहकारी आंदोलन चलाएं।
वे कहते हैं हिन्दी इतर विषयों में मौलिक लेखन न होने के पीछे अंग्रेजी का धोखा मुख्य कारण है। पता नहीं क्यों अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक यह बात नहीं समझ पाते हंै कि अंग्रेजी में मौलिक बात कह पाना उनके लिए संभव नहीं है। हिंदी स्कूलों में आज अच्छा विद्यार्थी नहीं भेजा जाता है। दो नंबर का विद्यार्थी हिन्दी माध्यमों के लिए रह जाता है। यही कारण है कि हिन्दी इतर विषयों पर मौलिक विचार अंग्रेजी में लिखा जा रहा है। परंतु सच यह है कि यह मौलिकता पश्चिम की अनुकृति बनकर रह जाती है। ब्रिटेन में भारत के प्रति नास्त्रेजिया चल रहा है। जिसके कारण भारतीय दर्शन समाज और संस्कृति के ऊपर लिखी रचनाएं थोड़ी भी अच्छी होती हैं तो उन्हें कुछ ज्यादा अच्छी लगने लगती हैं। अंग्रेजी का पाठक वर्ग बड़ा है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न है। ऐसा नहीं है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अरूंधती राय और विक्रम सेठ सरीखे लेखक नहीं हैं पर अनुवाद होकर उनके टेक्स्ट की जान निकल जाती है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चर्चित कवि लीलाधर जगूड़ी का कहना है कि हिंदी प्रकाशकों से बातचीत करने से यह पता चलता है कि कुछ पुस्तकें तो अच्छी मात्रा में बिक जाती हैं, कुछ नहीं बिक पाती। यह संकट इसलिए महसूस होता है क्योंकि पुस्तकों के दाम अधिक होते हैं। अच्छी पुस्तकों के विक्रय के न्द्र नहीं हैं। जिलों में उत्कृष्ट साहित्य का कोई स्टाल आपको नहीं दिखेगा। अभी मैं देहरादून गया था, वहां पल्टन बाजार में साहित्य सदर नामक दुकान थी। उसने अब साहित्य की पुस्तकें रखना बंद कर दिया है। मूल्य व स्तर की दृष्टि से सस्ता साहित्य की अब उसकी दुकान में भरमार है। इन सस्ते साहित्य के न होने का वैसे तो कोई मतलब नहीं है परन्तु होने का खासा मतलब है। जैसे लोगों ने स्तरहीन मंचीय कवियों को देखकर यह मान लिया है कि असली कविता वही करते हैं, जिस तरह खोटा सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है। उसी तरह स्तरहीन साहित्य अच्छे साहित्य को दरकिनार करता है। पाठकों की पढ़ने की रूचि भी कम हुई है। वह मनोरंजन के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया पर निर्भर हुआ है। छात्र जीवन से ही पुस्तक पढ़ने का संस्कार बनाया जाना चाहिए, जो हमारे यहां नहीं होेता।
वितरण और आपूर्ति की त्रुटि के कारण अच्छा साहित्य पाठक तक नहीं पहुंच पाता। असल में हमारे यहां प्रकाशक एक अच्छे साहित्य के सेलेबिलिटी की भूमिका नहीं बनाते। वे लोगों में सहित्य/पुस्तक के प्रति रूचि पैदा करने के लिए कुछ नहीं करते। पश्चिम में एक उपन्यास आता है तो साल भर से उसकी चर्चा शुरू हो जाती है। हमारे यहां प्रोडक्ट के पीछे जो भावना होती है कि बाजार बनाया जाय। वह पुस्तक व्यवसाय में नहीं हो पाता। अखबारों में पुस्तक समीक्षा का काॅलम नहीं होना चाहिए। साहित्य के पृष्ठ घट गये हैं। शेयर के पृष्ठ बढ़े हैं। किताबों का सारांश, बहस, समीक्षा आदि प्रकाशित करना पत्र-पत्रिकाओं का सामाजिक दायित्व है। पहले अच्छे अवसरों पर पुस्तक भेंट की जाती थी। बंगाल में आज भी पुस्तक भेंट करने की परंपरा है। अगर पुस्तक भेंट करने की परंपरा बने तो पढ़ने के प्रति वातावरण बन सकता है। अच्छा घर वही हैं, जहां किताबें भी हों। ड्राइंगरूम में किताबों का होना जरूरी है।
हिंदी इतर विषयों में विश्लेषणपरक पुस्तकें आ रही हैं। हां इन्हें ठीक से देखा नहीं जा रहा है। कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं, जो उपन्यासों, नाटकों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करती हैं। एक बात सही है कि जिस उत्कृष्ट स्तर का काम हिंदी इतर विषयों में होना चाहिए वह नहीं है। लेकिन पुरातत्व पर नई किताब क्यों नहीं आ रही है। इस पर विचार करने से पहले यह जानना चाहिए कि पुरातत्व में कोई नया उत्खनन हुआ है या नहीं। अरूंधती राय और विक्रम सेठ से भी बेहतर लेखक हैं। 'राग दरबारी' और 'आधा गांव' विक्रम सेठ के उपन्यासों से बडे़ हैं। नये लेखकों ने भी कुछ बड़े और अच्छे उपन्यास लिखे हैं। रही बुकर प्राइज की बात तो यह प्रकाशकों द्वारा प्रायोजित पुरस्कार है, जो पुस्तक को हल्ला बोलकर प्रकाशित करने के बाद दिया जाता है। इस पुरस्कार के लिए जिस स्तर का हल्ला बोल होता है। उतना अगर हिन्दी की किसी पुस्तक के लिए कर दिया जाय तो उसकी पचास हजार प्रतियां बिकेंगी। प्रकाशकों द्वारा बाजार व्यवस्था के तहत प्रायोजित यह पुरस्कार अभी तक उपन्यास को छोड़कर साहित्य की किसी अन्य विधा को नहीं दिया गया है। बुकर प्राइज वाला समाज परम व्यवसायी है। अगर पुस्तक की स्तरीयता की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाय तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अरूंधती राय और विक्रम सेठ से अच्छे लेखक हैं। शिवराम कारंत भारती भाषाओं के टाॅलस्टाय थे।
हिन्दी से इतर विषयों पर मौलिक लेखन न होने की बात पर वे कहते हैं कि यह प्रश्न ऐसा नहीं है कि इसका मैं विशेष रूप से कोई उत्तर दे सकूं। इसका उत्तर विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों से मांगा जाना चाहिए। जो विशेषज्ञ, वैज्ञानिक व टेक्नालाॅजिस्ट हैं उनके मन में यह भय है कि के वल हिन्दी माध्यम में लिखने के आधार पर वे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकते और यह सही भी है। अमृत्य सेन जैसे अर्थशास्त्री ट्निटी काॅलेज, आॅक्सफोर्ड में मास्टर नहीं नियुक्त हो सकते थे अगर वे गंगाधर गाडगिल की तरह मराठी में अर्थशास्त्र के बारे में लिखा करते। मुझे लगता है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और समाजशास्त्रीय विषयों में हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं की अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी हैसियत नहीं है।
साहित्यकार कामतानाथ हिन्दी में किताबें न बिकने के पीछे समाज के सरोकार को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं हमारे कन्सन्र्स बदल गये हैं पहले साहित्य या पुस्तक एक आदमी की जिन्दगी जीवने का तौरा तरीका था। उसका एक आवश्यक हिस्सा था। यानि आदमी में पढ़ने के संस्कार पड़े थे। परिवारों में भी पढ़ने के संस्कार डालने की परम्परा था। लेकिन आज समाज ओर परिवार दोनों के सरोकार बदल गये हैं। अब सरोकार किसी भी कीमत पर भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करना है। अतः हम मूल्यहीनता के दौर से गुजर रहे हैं। साहित्य मूल्यों का पाषक होता है। मूल्य पुस्तकों के अधिक हो गये हैं इसलिए नहीं बिकतीं यह आंशिक सत्य है। मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि मुझे पुस्तक खरीदने की आदत तब से है, जब पढ़ रहा था। मैं पाॅकिट मनी से बचाकर पुस्तकें खरीदता था। इतना ही नहीं ज्यादातर लोग जो पुस्तकें खरीदना अफोर्ड नहीं कर सकते थे। वे भी खरीदते थे। मध्य वर्ग या निम्न मध्य वर्ग की कभी यह सोच नहीं रही कि वे जरूरतों को काटकर पुस्तकें खरीदें। पहले पुस्तक ड्राइंगरूम की शोभा हुआ करती थीं। पुस्तकों का ड्राइंगरूम में होना सुसंस्कृत होने का प्रतीक था। अब यह बदल गया है। टी.वी., फर्नीचर और इलेक्ट्रानिक वस्तुएं ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठी हैं।
पाठक जो कहते हैं वह बात सच नहीं है क्योंकि जिन्हें पुस्तकों से प्रेम या लगाव है वे महंगी पुस्तकें भी खरीदते हैं परन्तु यह भी सच है कि पुस्तकों के दाम अनावश्यक रूप से अधिक हैं। क्योंकि आज पुस्तकों के मूल्य निर्धारण का जो गणित है उसमें कमीशन और घूस का हिस्सा भी पुस्तक मूल्य को निर्धारित करने में भूमिका अदा करता हैं प्रकाशक काउण्टर सेल में विश्वास नहीं करता। साधारण मनुष्य की जो मनोवृत्ति होती है प्रकाशक भी उसी का हिस्सा हैं आज से पहले के जमाने में प्रकाशन को मिशन माना जाता था। गंगा पुस्तक माला उसका उदाहरण है। वे लोग पुस्तकों को प्रमोट करने, लेखकों को आर्थिक सहायता देने में गौरवान्वित होते थे। आज प्रकाशक की दृष्टि में मुख्य लक्ष्य पैसा कमाना है।
वे कहते हें, हिन्दी इतर संदर्भों में मौलिक लेखन पर कुछ कहना मेरे लिए ठीक नहीं है क्योंकि यह मेरा विषय तो नहीं है। इस तरह की पुस्तकें जो हम लोग लिखते हैं वह बेहतर जवाब देने की स्थिति में होंगे लेकिन मुख्य कारण यह है कि आज भी अंग्रेजी और अंग्रेजियत का भारतीय समाज में वही वर्चस्व है जो आजादी के पहले था। आज आइसोलेशन में काम नहीं हो सकता। तुलनात्मक अध्ययन किये बिना किसी अन्य विषय में लिख पाना सम्भव नहीं है और यही कारण है कि अंग्रेजी का तुलनात्मक अध्ययन किये बिना कुछ भी लिख पाना हिन्दी माध्यम के लेखकोें की पहुंच से बाहर हो जाता है। श्यामाचरण दुबे जैसे कुछ लोगों ने हिन्दी में काम किया था। वैसे हिन्दी में मौलिक लेखन न करने के पीछे सरकारी नीतियां भी आड़े आती हैं क्योंकि सरकार हिन्दी ओरिएंटेशन के लिए कोई काम नहीं कर रही है।
अरून्धती राय और विक्रम सेठ स्वयं नहीं होते, इन्हें बनाया जाता है। वास्तव में एक पूंजीवादी तंत्र की ये उपज हैं। विदेशों में प्रकाशक की जो व्यवस्था है उसमें लेखक या पुस्तक सेलेबुल काॅमाडिटी है। पुस्तक तभी बिक्री के योग्य बनेगी जब उसका इस स्तर पर प्रचार-प्रसार किया जायेगा। उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन में जितना पैसा व्यय होता है वह प्रोडक्शन कास्ट से कम नहीं होता। अंग्रेजी में लेखकों को बाजार के नियमों के तहत उपभोक्ता वस्तु की कीमत बढ़ाने के लिए पूरा एक तंत्र काम करता है। यह तंत्र अरून्धती राय व विक्रम सेठ से अच्छा लेखन हिन्दी में है। यह ऐसे ही है जैसे बन्दरछाप दंत मंजन और बढ़िया टूथपेस्ट। टूथपेस्ट को इस्तेमाल नहीं करने वाले पिछड़े माने जाते हैं। यही स्थिति है पश्चिमी समाज या भारत के तेजी से पश्चिमीकरण हो रहे स्वरूप की है जो लोग विक्रम सेठ और अरून्धती राय को नहीं पढ़ पाते हैं वे पिछड़े माने जाते हैं।
कहानीकार वीरेन्द्र यादव किताबें न बिकने के कई कारण मानते हैं। उनका माना है किताबों को लेकर जो एक बौद्धिक पृष्ठभूमि पाठक की बननी चाहिए वह बचपन से लेकर शिक्षा तक नहीं बन पाती है। इतना ही नहीं इस संस्कार को बनाने में, सकारात्मक वातावरण तैयार करने की दिशा में भी कोई कोशिश नहीं की जाती। इसीलिए साहित्य या भाषाई संस्कार जो एक शिक्षित व्यक्ति के पास होना चाहिए वह नहीं होता। इसी के साथ जुड़ी हुई बात यह है कि विश्वद्यिालयों का वातावरण व बौद्धिक व साहित्यिक रूप से बंजर हो चुका है, जिससे न साहित्यिक संस्कार बन पाते हैं और न ही पुस्तकों के सम्बन्धम ें जानकारी प्राप्त हो पाती है। हमारे यहां पुस्तकालय आन्दोलन होना चाहिए। यह हिन्दी क्षेत्र में बिल्कुल नहीं हैं नये पुस्तकालय तो खुल नहीं रहे हैं और पुराने पुस्तकालय हैं उनमें नयी अच्छी किताबें खरीदी नहीं जा रही हैं। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को किताबों की जानकारी के लिए जिस भूमिका का निर्वाह करना चाहिए वह भी नहीं हो रहा है। अखबारों और पत्रिकाओं से साहित्य दिनों दिन गायब होता जा रहा है। इसीलिए न साहित्यिक पुस्तकों की जानकारी हो पाती है और न ही साहित्य के प्रति ललक पैदा हो पाती है।
किताबें न बिकने के पीछे ये सब कुछ मिलजुल कर और कुछ और भी कारण इसके मूल में हैं। जहां तक पुस्तकें महंगी होने की बात है महंगाई और पुस्तकों की मंहगाई का अनुपात गड़बड़ा गया है। क्योंकि प्रकाशक की सामान्य पाठकों तक पुस्तक पहुंचाने में रूचि समाप्त हो गयी है। वह कमीशनखोरी के जरिये सरकारी तंत्र में अपनी पुस्तकें बेंच लेता है और दाम भी इसीलिए उलटे-सीधे बढ़ा-चढ़ाकर रखता है क्योंकि उसे लागत और कमीशन की राशि निकालनी पड़ती है। इन परिस्थितियों में खरीद कर जो पाठक पुस्तक पढ़ता है वह स्वयं को असहाय स्थिति में पाता है। यद्यपि इन दिनों कुछ प्रकाशकों ने पेपर बैक संस्करण कुछ लोकप्रिय पुस्तकों के प्रकाशित किये हैं जो बिक भी रहे हैं। वीरेन्द्र यादव प्रकाशकों के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि पुस्तकें इसलिए महंगी हो रही हैं कि उनके पाठक नहीं हैं।
अरून्धती राय की पुस्तक सम्पूर्ण देश के सााि हिन्दी क्षेत्र में भी बिकी है और अगर अरून्धती राय की बात छोड़ भी दें तो हिन्दी में ही सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चांद चाहिए' के पांच वर्ष में छह संस्करण बिक चुके हैं, जबकि इस पुस्तक का सजिल्द संस्करण दो सौ पचास रूपये का है और पेपर बैक एक सौ पच्चीस रूपये का है। इसी दौर में तसलीमा नसरीन की 'लज्जा' हिन्दी में लाख से ऊपर बिकी है। इसलिए कहा जा सकता है कि अभी भी हिन्दी में पाठक वर्ग हैै। लेकिन प्रकाशक कम समय में अधिक लाभ कमाने की मनोवृत्ति के चलते प्रकाशन व्यवसाय के साथ जो मिशन की संकल्पना होनी चाहिए उससे दूर होते जा रहे हैं।
आज की स्थितियों को देखते हुए मैं यह उचित नहीं मानता कि कहानी, कविता, उपन्यास के अतिरिक्त हिन्दी में अन्य विषयों पर मौलिक लेखन नहीं हो रहा है। हाल ही के वर्षों में समाजशास्त्रीय विषयों पर डाॅक्टर राम विलास शर्मा, श्यामाचरण दुबे, पुरूषोत्तम अग्रवाल, मृणाल पाण्डेय और राजकिशोर आदि की महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इतना ही नहीं ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली ने तो लगभग बीस से अधिक समाजशास्त्रीय पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित किया है। चैथे सवाल के जवाब में वीरेन्द्र यादव कहते हैं यह हिन्दी या अंग्रेजी का प्रश्न नहीं है। इसके मूल में कहीं अंतर्राष्ट्रीय बाजार है। इसका खुलासा तब होगा जब अरूंधती राय और विक्रम सेठ की पुस्तकें हिन्दी में अनुदित होकर उपलब्ध हो जायेंगी और तब भी उस बड़ी संख्या में नहीं बिकेंगी जिस बड़ी संख्या में वह अंग्रेजी में बिक रही हैं। मैं नहीं समझता कि अरूंधती और विक्रम सेठ जैसा लिखकर हिन्दी में बाजार बनाया जा सकता है। यहां मैं यह तथ्य स्वीकार करता हूं कि अरूंधती राय और विक्रम सेठ दोनों की पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं लेकिन ये हिन्दी में नहीं बिकेंगी तो इनके न बिकने के भी वही कारण होंगे जो हिन्दी की कुछ श्रेष्ठ पुस्तकों के न बिकने के कारण होते हैं। दूसरी बात यह भी है कि गुणवत्ता के बावजूद इन पुस्तकों के पीछे एक प्रचार तंत्र है जो पुस्तक को पुस्तक न रखकर एक माल के रूप में प्रस्तुत करता है। पुस्तक माल बने इससे बेहतर है कि पुस्तकें कम बिक कर भी गुणवत्ता के आधार पर अपनी जगह बनायें।
लम्बे समय तक अध्यापन पेशे से जुड़े साहित्यकार रमेश कुन्तल मेघ का मानना है कि हिन्दी में बुक कल्चर नहीं है। पुस्तक संस्कृति नहीं हैं कमीशन की खरीद इसके लिए जिम्मेदार है। वे कहते हैं मैं लगभग दस वर्ष तक अध्यक्ष रहा लोग पुस्तकों की खरीद पर पच्चीस फीसदी कमीशन की बात उठाते रहे और इसके खिलाफ मुझे लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। हिन्दी में लैंग्वेज प्लानिंग नहीं हो पा रही है और बुक डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी हिन्दी में एकदम नहीं है। मधुदंडवते के समय में रेलवे स्टेशन के स्टालों पर सर्वोदय साहित्य की कुछ पुस्तकें रखवायी गयी थीं। हिन्दी में पुस्तकों की मार्केटिंग ठीक नहीं है। वैसे तो हिन्दी के दो-तीन ऐसे बड़े प्रकाशक हैं जिनका टर्न ओवर दो करोड़ से ज्यादा है। इसलिए यह कहना कि किताबें बिकती नहीं हैं एकदम गलत है। न बिकने के और कारण हैं जिनकी ओर मैंने संके त किया है। एक कारण छात्रों को टेक्स्ट बुक का नहीं देखना भी है। आज छात्र गाइड और गेस पेपर से काम चला लेते हैं। उत्तर प्रदेश को ही ले लें तो यहां बीस लाख की खरीद होती है। इसमें बड़ा स्कैम है। हमारे एक मित्र कार इंडस्ट्री में हैं। जब सेलो और टाटा सूमो की बिक्री की बात आयी तो उन्होंने कीमत ढ़ाई-तीन लाख रूपये रखने से मना कर दिया। वे इनकी कीमत छह लाख रूपये से नीचे रखने के पक्षधर नहीं थे। उनका तर्क था कि हम इलिट मार्केट बनाएंगे और ज्यादा प्राॅफिट कमाएंगे। बिल्कुल यही नीति किताबों के बारे में लागू होती है। कास्ट से चार-पांच गुना मूल्य रखे जाते हैं। तीस फीसदी रिटेलर को मिलता है। दस प्रतिशत रिश्वत। दस फीसदी सामान्य ग्राहक को छूट दी जाती है और दस प्रतिशत पोस्टेज पर खर्च आता है। किताबों के लागत से चार-पांच गुने अधिक मूल्य रखने की प्रवृत्ति रोकी जानी चाहिए। क्योंकि किसी भी मार्केटिंग काॅमाडिटी में ऐसा नहीं होता कि वहां चालीस फीसदी बचत हो।
आप पाठ्यपुस्तकों के ही मूल्यों को देखें, इसमें दस फीसदी से ज्यादा कमीशन नहीं होता है। यही कारण है कि पाठ्यपुस्तकों के मूल्य कम होते हैं। पाइरेट एडीशन रोके जाने चाहिए। क्योंकि इनके चलते असली किताबें पड़ी रहती हें और नकली किताबें बाजार में आ जाती हैं। हर किताब का पेपर बैक संस्करण छह माह के बाद निकाल दिया जाना चाहिए और दाम सजिल्द संस्करण से आधे होने चाहिए। तसलीमा नसरीन की 'लज्जा' और 'औरत के हक में' को ही लें। मैंने सुना है कि इनके पेपर बैक संस्करण पांच लाख से ज्यादा राॅयल्टी आयी है। पेपर बैक कल्चर को बढ़ावा देना चाहिए। यह शुभ संके त है कि प्रेस अपने काॅलम में परफार्मिंग आर्ट पर बल दे रहा है परन्तु साहित्य और विचार का पनना लगभग लुप्त होता जा रहा है। देखिए न, लखनऊ से इस दिशा में सिर्फ दो अखबारों में काम हो रहा है जिसमें एक आप हैं।
हिन्दी इतर विषयों में मौलिक लेखन न होने के पीछे मूल कारण हमारे पास फ्रीलांस राइटर का अभाव होना है। हिन्दी से एम.ए. किये लोग किस्से-कहानी ही लिखेंगे, अन्य क्षेत्रों के विद्वान यह मानते हैं कि हिन्दी में किताबें नहीं चलेंगी। जबकि आन्नद कृष्ण, राय कृष्णदास और श्यामाचरण दुबे ने हिन्दी में हिन्दी इतर विषयों पर भी किताबें लिखी हैं और वे खूब बिकीं। आज जरूरत लैंग्वेज प्लानिंग की है। टारगेटेड लैंग्वेज प्लानिंग जब तक नहीं होगी तब तक हिन्दी इतर विषयों में कुछ नहीं किया जा सकता। अभी तो शुरूआत यही करनी होगी कि अंग्रेजी में जो लेखक लिख रहे हैं उन्हें एश्योर्ड सेल और अट्रैक्टिव राॅयल्टी दी जाये, जिससे वे हिन्दी में लिखें। हिन्दी में मीडिया की शक्ति पहचानी नहीं गयी है। मीडिया स्पांसर और प्रोजेक्ट करता है। मीडिया ने अरूंधती राय व विक्रम सेठ को बनाया। जावेद अख्तर को ही देखिये, उन्होंने मीडिया की ताकत को पहचाना। इनका मानना है कि अब राइटिंग में मात्र रियलिज्म नहीं रह गया है। एक सामान्य पाठक रियलिज्म से आगे कई चीजें जानना चाहता है। हिन्दी लेखक बहुत बंधा है। हिन्दी में स्त्री को नंगा नहीं दिखा सकते। हमारी जकड़ कम होनी चाहिए। आधुनिकता का मतलब मैं जकड़ छोड़ने से भी नहीं मानता हूं। हां, हमें गतिशील नारी का चित्रण करना ही होगा। 'मुझे चांद चाहिए' में नारी की परम्परा से हटकर तस्वीर बनायी गयी है, वह बिकी। हमारे समाज में अतिरिक्त सेंसर है यह सेंसर घुटन पैदा करता है। क्राइम की ओर ले जाता है। जबकि विद्रोह वाला सेंसर निर्माण को जन्म देता है।
ममता कालिया हिन्दी किताबों के कम बिकने के पीछे पब्लिशर्स की मार्केटिंग पाॅलिसी को दोषी मानती हैं। बताती हैं फेयर एण्ड लवली 'मुझे चांद चाहिए' बेच रहा है। 'चंद्रकांता' जैसी पुरानी रचना को कालगेट, लक्मे बेच रहे हैं। किताबों को बेचने के लिए रायल्टी, प्राॅफिट और मार्केटिंग की दृष्टि से नयी पाॅलिसी लानी पड़ेगी। किताब सूची पत्र निकालने से नहीं बिकती है। घूस देकर भी किताबें नहीं बिकेंगी। यह सच है कि किताबें महंगी हैं। कई किताबें ऐसी हैं जिन्हें खरीदना चाहती हूं पर जोड़-तोड़ करना पड़ता है। इसके पीछे तो बड़े-बड़े कारण हैं। सरकार को कागज नीति बदलनी चाहिए। प्रकाशक, लेखक को डिस्करेज करने के लिए मार्जिन कम करना चाहता है परन्तु पुस्तक के मूल्य में घूस की रकम भी शामिल कर लेता है। लेखक के लिए यह बहुत ही क्षुब्ध करने वाला दृश्य है कि उसे न कोई बेचने वाला और न कोई प्रोजेक्ट करने वाला फिर भी वह लिखे जा रहा है।
हिन्दी इतर विषयों पर लिखने के लिए जो फुर्सत चाहिए वह शायद हिन्दी के लेखक को उपलब्ध नहीं है। श्यामाचरण दुबे ने इस क्षेत्र में काफी काम किया है। अरूंधती राय और विक्रम सेठ की मार्केटिंग बहुत बढ़िया है। अगर अरूंधती राय के रल के एक गांव को सजीव करती हैं तो क्या मैत्रेयी पुष्पा अन्तरपुर गांव को सजीव करने में कहीं कमजोर पड़ती हैं? नागार्जुन और रेणु ने भी इस गांव को ठीक से रेखांकित किया है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि अरूंधती राय ने जो भी किया वह ऐसा नहीं है कि पहले नहीं किया गया हो। हां, जो कहा गया है उसमें भाषागत विशेषता है। अरूंधती राय ने अपने कथन को सपाट बयानी दी है। वह तारीफ करने लायक है। विक्रम सेठ को मैंने नहीं पढ़ा है परंतु मैं मानती हूं कि इनके मार्केटिंग एजेंट बहुत बढ़िया हैं। वे कमाल के लोग हैं। इतना ही नहीं इन लेखकों को अपनी पुस्तकों के प्रमोशन के लिए व्यापक दौरे करने पड़ते हैं। हिन्दी के लेखक के पास शहर छोड़कर जाने के लिए किराया भाड़ा नहीं होता है। हिंदी में कामर्शियल होना बुरा माना जाता है। अश्कजी थोड़े कामर्शियल थे, उन्होंने लोग सेल्समैन कहते थे। कमलेश्वर ने अपने को कामर्शियल बनाया तो देखिए न, 'हंस' की कोई सम्पादकीय कमलेश्वर को गाली दिये बिना पूरी नहीं होती है। अरूंधती राय से बहुत अच्छा महाश्वेता देवी लिखती हैं। मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं।
लब्ध प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना कहते हैं यह भी दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जो पूरा कल्चर बन रहा है उसमें हमारे कोई भी नेता पढ़े-लिखे नहीं हैं पुस्तकों के बारे में बात नहीं करते। चाहें मुलायम सिंह यादव हों या अटल बिहारी वाजपेयी। संसद के पिछले सत्र में गुजराल ने दो-चार शेर पढ़े। कविताएं सुनायीं तो लोगों को लगा कि संसद में भी साहित्य को अवसर मिल सकता है। हमारे राष्ट्रीय चरित्र में पुस्तकों का महत्व नहीं है। मेरा संबंध तो कविता से है। अच्छी कविता को पूर्वाग्रहों से नीचे ढके ल दिया जाता है। आज फुलटाइम कवि साहित्यकार कोई नहीं है। सरकारी आयोजन को ही देखें तो उसमें भी घटिया कविता को ही प्रमोट किया जाता है। जनता अपने स्तर पर मनोरंजन तो हमेशा क्रिएट कर ही लेती है लेकिन सरकारी एजेंसी जब काम करे तो उसे स्तरीयता का ध्यान तो रखना ही चाहिए। यह भी एक मिथ है कि अच्छी और बौद्धिक कविता को जनता पसंद नहीं करती। खेल, राजनीति, न्यूज का चैनल है परंतु साहित्य का कोई चैनल नहीं है। हमारी टेक्नोलाॅजी पर बाजारी शक्तियों का कब्जा हो गया है, जो थोड़ी बहुत गुंजाइश बची है वह भी खत्म हो रही है। रही पाठक और प्रकाशक की बात तो दोनों कुछ न कुछ गलत कह रहे हैं। दोनों कुछ न कुछ सही कह रहे हैं। प्रकाशक साहित्य के प्रमोटर नहीं हैं। वे व्यवसाय कर रहे हैं। उनके लिए आसान रहता है कि पुस्तकों की कीमतें बढ़ाकर रखें अच्छा पैसा घूस में देकर भी अपना पैसा जल्दी से जल्दी दो गुना-तीन गुना कर लें...। उनके भीतर साहित्य को आगे बढ़ाने की भावना तो होती नहीं है। साहित्यकारों का काम तभी चल सकता है जब वे सहकारी आंदोलन चलाएं।
वे कहते हैं हिन्दी इतर विषयों में मौलिक लेखन न होने के पीछे अंग्रेजी का धोखा मुख्य कारण है। पता नहीं क्यों अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक यह बात नहीं समझ पाते हंै कि अंग्रेजी में मौलिक बात कह पाना उनके लिए संभव नहीं है। हिंदी स्कूलों में आज अच्छा विद्यार्थी नहीं भेजा जाता है। दो नंबर का विद्यार्थी हिन्दी माध्यमों के लिए रह जाता है। यही कारण है कि हिन्दी इतर विषयों पर मौलिक विचार अंग्रेजी में लिखा जा रहा है। परंतु सच यह है कि यह मौलिकता पश्चिम की अनुकृति बनकर रह जाती है। ब्रिटेन में भारत के प्रति नास्त्रेजिया चल रहा है। जिसके कारण भारतीय दर्शन समाज और संस्कृति के ऊपर लिखी रचनाएं थोड़ी भी अच्छी होती हैं तो उन्हें कुछ ज्यादा अच्छी लगने लगती हैं। अंग्रेजी का पाठक वर्ग बड़ा है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न है। ऐसा नहीं है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अरूंधती राय और विक्रम सेठ सरीखे लेखक नहीं हैं पर अनुवाद होकर उनके टेक्स्ट की जान निकल जाती है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चर्चित कवि लीलाधर जगूड़ी का कहना है कि हिंदी प्रकाशकों से बातचीत करने से यह पता चलता है कि कुछ पुस्तकें तो अच्छी मात्रा में बिक जाती हैं, कुछ नहीं बिक पाती। यह संकट इसलिए महसूस होता है क्योंकि पुस्तकों के दाम अधिक होते हैं। अच्छी पुस्तकों के विक्रय के न्द्र नहीं हैं। जिलों में उत्कृष्ट साहित्य का कोई स्टाल आपको नहीं दिखेगा। अभी मैं देहरादून गया था, वहां पल्टन बाजार में साहित्य सदर नामक दुकान थी। उसने अब साहित्य की पुस्तकें रखना बंद कर दिया है। मूल्य व स्तर की दृष्टि से सस्ता साहित्य की अब उसकी दुकान में भरमार है। इन सस्ते साहित्य के न होने का वैसे तो कोई मतलब नहीं है परन्तु होने का खासा मतलब है। जैसे लोगों ने स्तरहीन मंचीय कवियों को देखकर यह मान लिया है कि असली कविता वही करते हैं, जिस तरह खोटा सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है। उसी तरह स्तरहीन साहित्य अच्छे साहित्य को दरकिनार करता है। पाठकों की पढ़ने की रूचि भी कम हुई है। वह मनोरंजन के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया पर निर्भर हुआ है। छात्र जीवन से ही पुस्तक पढ़ने का संस्कार बनाया जाना चाहिए, जो हमारे यहां नहीं होेता।
वितरण और आपूर्ति की त्रुटि के कारण अच्छा साहित्य पाठक तक नहीं पहुंच पाता। असल में हमारे यहां प्रकाशक एक अच्छे साहित्य के सेलेबिलिटी की भूमिका नहीं बनाते। वे लोगों में सहित्य/पुस्तक के प्रति रूचि पैदा करने के लिए कुछ नहीं करते। पश्चिम में एक उपन्यास आता है तो साल भर से उसकी चर्चा शुरू हो जाती है। हमारे यहां प्रोडक्ट के पीछे जो भावना होती है कि बाजार बनाया जाय। वह पुस्तक व्यवसाय में नहीं हो पाता। अखबारों में पुस्तक समीक्षा का काॅलम नहीं होना चाहिए। साहित्य के पृष्ठ घट गये हैं। शेयर के पृष्ठ बढ़े हैं। किताबों का सारांश, बहस, समीक्षा आदि प्रकाशित करना पत्र-पत्रिकाओं का सामाजिक दायित्व है। पहले अच्छे अवसरों पर पुस्तक भेंट की जाती थी। बंगाल में आज भी पुस्तक भेंट करने की परंपरा है। अगर पुस्तक भेंट करने की परंपरा बने तो पढ़ने के प्रति वातावरण बन सकता है। अच्छा घर वही हैं, जहां किताबें भी हों। ड्राइंगरूम में किताबों का होना जरूरी है।
हिंदी इतर विषयों में विश्लेषणपरक पुस्तकें आ रही हैं। हां इन्हें ठीक से देखा नहीं जा रहा है। कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं, जो उपन्यासों, नाटकों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करती हैं। एक बात सही है कि जिस उत्कृष्ट स्तर का काम हिंदी इतर विषयों में होना चाहिए वह नहीं है। लेकिन पुरातत्व पर नई किताब क्यों नहीं आ रही है। इस पर विचार करने से पहले यह जानना चाहिए कि पुरातत्व में कोई नया उत्खनन हुआ है या नहीं। अरूंधती राय और विक्रम सेठ से भी बेहतर लेखक हैं। 'राग दरबारी' और 'आधा गांव' विक्रम सेठ के उपन्यासों से बडे़ हैं। नये लेखकों ने भी कुछ बड़े और अच्छे उपन्यास लिखे हैं। रही बुकर प्राइज की बात तो यह प्रकाशकों द्वारा प्रायोजित पुरस्कार है, जो पुस्तक को हल्ला बोलकर प्रकाशित करने के बाद दिया जाता है। इस पुरस्कार के लिए जिस स्तर का हल्ला बोल होता है। उतना अगर हिन्दी की किसी पुस्तक के लिए कर दिया जाय तो उसकी पचास हजार प्रतियां बिकेंगी। प्रकाशकों द्वारा बाजार व्यवस्था के तहत प्रायोजित यह पुरस्कार अभी तक उपन्यास को छोड़कर साहित्य की किसी अन्य विधा को नहीं दिया गया है। बुकर प्राइज वाला समाज परम व्यवसायी है। अगर पुस्तक की स्तरीयता की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाय तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अरूंधती राय और विक्रम सेठ से अच्छे लेखक हैं। शिवराम कारंत भारती भाषाओं के टाॅलस्टाय थे।