उधार की ताकत पर इतराना अच्छा नहीं

Update:2019-08-20 16:01 IST
उधार की ताकत पर इतराना अच्छा नहीं होता। यह नसीहत इन दिनों पाकिस्तान को समझने की जरूरत है। क्योंकि चीन के दम पर पाकिस्तान खासा इतरा रहा है। वह भारत को शिकस्त देने के सपने देख रहा है। भूल रहा है कि तीन बार भारत उसे जंग में धूल चटा चुका है। 1971 में तो भारतीय सैनिकों तथा राजनय की कुशलता ने पाकिस्तान का भूगोल ही बदल दिया। 93 हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। 13 हजार वर्ग किलोमीटर पाकिस्तान की जमीन हमारे जांबाज सैनिकों ने अपने कब्जे में ली। बहुत अनुनय विनय के बाद यह जमीन वापस की गई। चीन की शह पाकर किसी मुगालते में नहीं आना चाहिए। हाल फिलहाल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के मामले को ले जाकर बहस कराने का पाकिस्तानी मंसूबा सिर्फ चीन की पक्षधरता के चलते ही पूरा हो पाया। बीते 16 अगस्त को इस पर 90 मिनट तक गोपनीय बैठक चली। जिसमें पाकिस्तान और भारत के प्रतिनिधि को नहीं होना था। बैठक में 370 के सवाल को भारत का आंतरिक मामला माना गया। कहा गया कि शिमला समझौते के तहत इसमें दो ही पक्ष होंगे, तीसरा पक्ष मान्य नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र में रूसी राजदूत दिमित्री पोलियास्की ने बैठक के पहले पत्रकारों से कश्मीर विषय पर द्विपक्षीय वार्ता का समर्थन करके दृश्य साफ कर दिया। भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में यह साफ किया है कि जब वह जम्मू-कश्मीर की बात करते हैं, तब उसमें पाक अधिकृत कश्मीर तथा अक्साई चिन भी होता है। जम्मू-कश्मीर के सिर्फ 45 फीसदी हिस्से पर भारत का हक है। 35 फीसदी हिस्सा पाक के नियंत्रण में है। 20 फीसदी हिस्से पर चीन का आधिपत्य है। चीन के पास अक्साई चिन व ट्रांस काराकोरम (शक्सगाम घाटी) है। अक्साई चिन को चीन ने 1962 के युद्ध में भारत से लिया था। जबकि ट्रांस काराकोरम का इलाका पाकिस्तान ने चीन को दिया है।
पाकिस्तान की समूची राजनीति कश्मीर पर आधारित है। वहां सत्ता चाहिए तो कश्मीर कब्जाने की बात करने का चलन है। 1965 और 1971 की लड़ाई के नतीजों से पाकिस्तान को यह समझ में आ गया है कि आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हराया नहीं जा सकता। पाकिस्तान में राष्ट्रपति रहे जनरल जिया उल हक ने 1988 में भारत के विरूद्ध ‘आपरेशन टोपाक’ के नाम से ‘वार विद लो इंटेंसिटी‘ की योजना बनायी। इस के तहत भारत स्थित कश्मीरी लोगों के मन में अलगाववाद और भारत के प्रति नफरत के बीज बोने थे, उनके हाथों में हथियार थमाने थे। ‘वार विद लो इंटेंसिटी‘ गोरिल्ला युद्ध का विकसित रूप है जो पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से सीखा है। आपरेशन टोपाक के चौथे चरण ने जम्मू और लद्दाख तक अपने पैर फैला लिये हैं। इसके तहत मस्जिदों की तादाद बढ़ाई गई। कश्मीर से गैर मुस्लिमों यहां तक कि शियाओं को भी भगाया गया। बगावत के लिए जनता को तैयार किया गया। आतंकवाद, अलगाववाद, फसाद और दंगे चार शब्द हैं, जिनसे पाकिस्तान ने दुनिया के कई मुल्कों को परेशान कर रखा है। पाकिस्तान ने दोनों तरफ के कश्मीर को बर्बाद कर रखा है। पाक अधिकृत कश्मीर में मुसलमान जहालत और दुख भरी जिंदगी जी रहे हैं।
कश्मीर के विलय पत्र का खाका वही था जो अन्य रियासतों का था। न शर्त थी, न विशेष राज्य के दर्जे की मांग। डॉ. पीजी ज्योतिकर ने अपनी किताब आर्षदृष्टा डा. बाबासाहेब अम्बेडकर में लिखा है कि कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की मांग शेख अब्दुल्ला ने की। डा. अम्बेडकर ने मना कर दिया। नेहरू विदेश दौरे पर थे। उन्होंने एन. गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वह 370 तैयार करें। अयंगर बिना विभाग के मंत्री थे। संविधान सभा के सदस्य भी रहे थे। कश्मीर के पूर्व दीवान भी थे।
भारत की आजादी का समय तय करने के लिए डा. राजेंद्र प्रसाद ने स्वामी गणेशदत्त महाराज के माध्यम से उज्जैन के पंडित सूर्य नारायण व्यास को बुलवाया था। गणतंत्र स्थिर रहे इसलिए सूर्य नारायण व्यास ने रात 12 बजे का समय निकाला था। इन्हीं के कहने पर देर रात संसद को धोया गया इसके बाद स्वामी गिरधारी लाल ने संसद की शुद्धि कराई। पाकिस्तान की रणनीति थी कि जूनागढ़ में 80 फीसदी हिन्दू हैं। पर रियासत के सर्वेसर्वा नवाब महबत खान तृतीय हैं। मई 1947 में जिन्ना के करीबी मुस्लिम लीग के नेता शहनवाज भुट्टो को यहां का दीवान नियुक्त कर दिया गया था। इन्हीं के बूते जिन्ना को जूनागढ़ के पाकिस्तान में रहने की उम्मीद थी। 13 सितंबर को पाकिस्तान ने एक टेलीग्राम भेजकर जूनागढ़ के पाकिस्तान में होने की घोषणा भी कर दी। राजमोहन गांधी की किताब ‘पटेल ए लाइव‘ से पता चलता है कि जिन्ना की रणनीति थी कि भारत जूनागढ़ को अपने पास रखने के लिए कहेगा कि नवाब नहीं, वहां की जनता फैसले की हकदार है। कश्मीर में रियासत हरी सिंह के हाथ थी और वहां अस्सी फीसदी जनसंख्या मुस्लिम थी। ऐसे में अगर जूनागढ़ में जनता के फैसले की बात कही गई तो उसे ही जम्मू कश्मीर में लागू कर देंगे।
पाकिस्तान आज भी जिस जनमत संग्रह तीसरे पक्ष की उपस्थिति की बात कर रहा है उसका कोई आधार नहीं है। दुनिया में बड़े बड़े मामलों के हल कभी जनमत संग्रह से नहीं हुए हैं। अमेरिका का संविधान यह कहता है कि देश के अंदरूनी मामलों में सेना का उपयोग नहीं किया जाएगा बावजूद इसके लिंकन ने देश को एकजुट रखने व गृहयुद्ध से निपटने के लिए सेना का उपयोग किया। लेकिन इसके लिए कोई जनमत संग्रह नहीं कराया। ट्रंप ने मैक्सिको की सीमा पर अपनी दीवार खड़ी करने के लिए किसी जनमत संग्रह की जरूरत नहीं समझी। वह भी तब जब इसके निर्माण पर तकरीबन 40 अरब डॉलर का खर्च आएगा। पूर्व सोवियत संघ (यूएसएसआर) के विघटन के लिए भी कोई जनमत संग्रह नहीं हुआ था। 1991 की क्रिसमस की रात को एक झटके में यह टूट कर बिखर गया।
पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन की दीवार ढहाने के लिए भी रायशुमारी से बचा गया था। उत्तर व दक्षिण कोरिया का विभाजन जनमत संग्रह से नहीं युद्ध से हुआ था। भारत- पाकिस्तान विभाजन के लिए जनमत संग्रह पर विचार नहीं किया गया था। आपातकाल लागू करने के लिए भी कोई रायशुमारी नहीं हुई थी। यूरोपीय संघ का गठन 1 नवंबर, 1993 को संधियों के द्वारा हुआ। 28 देशों के इस मंच की नींव संधि के मार्फत रखी गई थी। इटली का एकीकरण भी बिना जनमत संग्रह के हुआ था। प्रायः समस्याओं के हल बातचीत से हुए हैं या फिर युद्ध से। यह पाकिस्तान को तय करना है कि उसे किस विकल्प का चुनाव करना है। भारत से युद्ध के नतीजे उसे भूलना नहीं चाहिए।

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