नो पॉलिथीन

Update:2019-09-30 18:19 IST
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ’क्विट पॉलिथीन’ के जिस अभियान को हाथ में लेने की मुहिम छेड़ने वाले हैं। वह एक मुश्किल शुरुआत है। हालांकि नरेन्द्र मोदी मुश्किल कामों को एजेंडे में लेने और उसे मंजिल तक पहुंचाने के महारथी माने जाते हैं। अपने फैसलों के प्रति उनमें जो संकल्प होता है। उससे ही यह समझा जा सकता है कि फैसलों को मंजिल का मिलना तय है। उन्होंने कई बड़े फैसलों को मुकाम तक पहुंचाया है। पॉलिथीन को ना कहने की उनकी मुहिम इसी की एक नई कड़ी है। बापू कहा करते थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी है स्वच्छता।
 
दुनिया के पैमाने पर 20वीं शताब्दी के पहले तीन दशक में ही पॉलिथीन मशहूर हो गई थी। लियो बैकलैंड ने फिनॉल और फॉर्मल डीहाईड नामक रसायनों के प्रयोग से कम लागत वाला कृत्रिम रेसिम बनाया। जो पॉलिथीन के नाम से प्रचलित हुआ। इसके आविष्कारक के नाम पर ही इसे बैक लाइट कहा गया। बेल्जियम निवासी लियो बैकलैंड एक गरीब परिवार से थे। पॉलिथीन की लोकप्रियता तब बढ़ी जब 1924 में टाइम मैग्जीन ने इसके आविष्कारक लियो की फोटो कवर पेज पर छापकर लिखा- यह न जलेगा, न पिघलेगा। बैकलैंड की सफलता के बाद दुनिया भर की साइंस लैबों से प्लास्टिक के तरह-तरह के रूप सामने आने लगे। देखते-देखते पॉलिथीन जिंदगी और कामकाज का अभिन्न अंग बन गया। धरती पर प्लास्टिक की उम्र मात्र 112 वर्ष है लेकिन इतने कम समय में ही गजब की आफत इसने ढा दी है।
 
दुनिया में कुल प्लास्टिक का 34 फीसदी हिस्सा पॉलिथीन का है। दुनिया में सन 1950 से 9 बिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन हो चुका है। जो 4-4 माउंट एवरेस्ट के बराबर है। 2011 में सुजैन फ्रैंक ने अपनी किताब ’ए टॉक्सिक लव स्टोरी ’ में लिखा कि हम रोजाना औसतन 196 ऐसी वस्तुओं का प्रयोग करते हैं जो प्लास्टिक से बनी हैं। जबकि 102 ऐसी चीजों का प्रयोग करते हैं जो प्लास्टिक की नहीं होती हैं। सेल्यूलोस, कोयला, प्राकृतिक गैस, नमक और कच्चा तेल जैसे प्राकृतिक उत्पादों से प्लास्टिक बनाते हैं। प्लास्टिक को पॉलीमर भी कहते हैं। दुनिया में कितनी प्लास्टिक बनती है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हम अपने पूरे तेल उत्पादन का 8 फीसदी हिस्सा प्लास्टिक उत्पादन में लगाते हैं।
 

 
आज के समय में प्लास्टिक से बड़ा कोई जहर नहीं है। मानव द्वारा निर्मित चीजों में प्लास्टिक एक ऐसी चीज है जो माउंट एवरेस्ट से लेकर सागर की तलहटी तक सब जगह मिल जाती है। समुद्र तटों, नदी-नालों, खेत-खलिहानों, भूमि के अन्दर-बाहर सब जगहों पर आज प्लास्टिक के आइटम अटे पड़े हुए हैं। प्लास्टिक कचरे से नालियां बंद हो जाती है, धरती की उर्वरा शक्ति खत्म हो जाती है, भूगर्भ का जल अपेय बन जाता है, रंगीन प्लास्टिक बैग से कैंसर जैसे असाध्य रोग हो जाते हैं। लाखों गायों की जान चली जाती हैं। बोतल बंद पानी में 6.5-100 माइक्रान तक के 314 कण पाए जाते हैं। जबकि 100 माइक्रान से बड़े प्रति लीटर में 10 कण पाए जाते हैं। बोतल बंद पानी में माइक्रो बीट्स नाम के अत्यंत छोटे कण भी होते हैं। अमेरिका में ये 2015 से प्रतिबंधित हैं। फ्रांस में प्लास्टिक प्रतिबंधित है। रवांडा 2008 से प्लास्टिक मुक्त है। आयरलैंड ने इस पर इतना टैक्स लगा रखा है कि पॉलिथीन का 94 फीसदी उपयोग खत्म हो गया है। बावजूद इसके एक भारतीय प्रतिवर्ष 11 किलो प्लास्टिक का इस्तेमाल करता है। प्लास्टिक का कचरा हमारे लिये समस्या बन गया। भारत में रोज 26 हजार टन का कचरा निकलता है। 94 फीसदी प्लास्टिक रिसाइकिल की जा सकती है। लेकिन भारत में सिर्फ 60 फीसदी प्लास्टिक रिसाइकिल हो सकती है। इस कचरे ने शहरी जीवन में ज्यादा दुश्वारियां पैदा की हैं। किसी भी शहर में प्लास्टिक की उपस्थिति बारिश वाले दिन जांची और परखी जा सकती है। हर शहर के ड्रेनेज सिस्टम को इसने चोक कर रखा है। दुनिया की दस प्रमुख नदियों से 90 फीसदी प्लास्टिक समुद्र में पहुंचता है। मेघना, ब्रह्मपुत्र और गंगा जैसी नदियों से 72,854 टन प्लास्टिक समुद्र में जाता है। समुद्र में जाने वाले प्लास्टिक के चलते उत्पन्न हुए प्रदूषण से हर साल दस लाख समुद्री पक्षी और एक लाख स्तनधारी जीव मरते हैं।
 
नरेन्द्र मोदी ने 2022 तक देश को इस महामारी से मुक्त कराने का संकल्प लिया। इसके लिए उन्हें संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण संबंधी सर्वोच्च पुरस्कार ’यूएनईपी चैम्पियंस ऑफ द अर्थ ’ से सम्मानित भी किया जा चुका है। प्रधानमंत्री मोदी स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से प्लास्टिक-पॉलिथीन को त्यागने के अभियान में सारे देशवासियों का सहयोग व समर्थन मांग चुके हैं। भाजपा की राज्य सरकारों ने नरेन्द्र मोदी के पॉलिथीन त्यागने के इस अभियान की शुरूआत भी काफी हद तक कर दी है। इस दिशा में कई कदम आगे बढ़ाये जा चुके हैं। लेकिन भारत में सिर्फ इस तरह के संकल्प और सरकारी आदेशों से काम चलने वाला नहीं है। भारत में बहुत से अभियान विफल भी हुए हैं। मोदी द्वारा शुरू किये गये कई अभियान आंशिक सफल हुए हैं। लेकिन इन अभियानों की दशा, दिशा और गति पर उठने वाले सवाल संकल्प की ओर उंगली दिखाते हुए नहीं दिखते हैं। मोदी ने जो आह्वान किया है। उसकी देश को बेहद जरूरत है। शायद इधर 10-15 साल के बीच जन्मे लोगों को पता न हों। लेकिन यह सच्चाई है कि पहले पाउच में मिलने वाले दूध बोतलों में मिलते थे। रोज बोतलों को ले जाकर जमा करना पड़ता था। किराने की दुकान से सामान कागज के लिफाफों में मिला करता था। ये लिफाफे खासे मजबूत और टिकाऊ होते थे। सब्जी खरीदने अथवा बाजार जाने वाले आदमी के पास कपड़े का झोला जरूर होता था। साइकिलों में टोकरी होती थी। मोटरसाइकिलों में साइड बॉक्स लगे होते थे।
 
हमारे लिफाफे, हमारी बोतलें और झोले बहुतों के रोजगार का जरिया थे। प्रदूषण से हमें दूर रखते थे। तब हमारी जनसंख्या भी बेहद कम थी। आज जब हम अनगिनत हैं, तमाम बीमारियां हैं। हमें शुद्ध हवा, पानी, राशन चाहिए। बीमारियों से बचने के लिए प्रतिरोधक क्षमता चाहिए। हम शुद्ध हवा, शुद्ध पानी के लिए तमाम तरह के यंत्र इस्तेमाल करते हैं। तब पॉलिथीन के प्रदूषण से निजात भी हम सबके संकल्प का ही नहीं कामकाज का भी हिस्सा होना चाहिए। हर जिम्मेदारियां सरकार पर छोड़ना अच्छा नहीं है। कुछ बचाव और उपाय हमें भी करने चाहिए। किसी भी चीज को स्वीकार या अंगीकार करते समय उसके नफे-नुकसान के बारे में जरूर विचार करना चाहिए। देखा-देखी पाप और देखा-देखी धर्म नहीं करना चाहिए। महज सुविधाओं को जिन्दगी जीने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। क्योंकि तमाम सुविधाएं अपने साथ अनेक असुविधाएं लेकर आती हैं। अगर हम सोच विचार करके किसी चीज को स्वीकार या अंगीकार करेंगे तो हमें नाप-जोख करने में कोई परेशानी नहीं होगी कि सुविधा किस असुविधा को साथ लेकर चल रही है। हर चीज की एक अवसर लागत होती है। जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में ‘अपरच्यूनिटी कास्ट‘ कहते हैं। हम सबकी यह जिम्मेदारी है कि हम इस बात की तहकीकात करते रहें कि किस चीज, काम की क्या अपरच्युनिटी कास्ट हमें देनी पड़ रही है। उसे देना हमारे लिए कितना अनिवार्य है। यही हमारा पैमाना होना चाहिए। क्विट पॉलिथीन गंगा सफाई अभियान की तरह लोगों की मदद के मामले में उपेक्षा का शिकार न हो। यह अभियान परवान चढ़े इसके लिए- आमीन।

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