क्रिसमस स्पेशल: मानवता का दूत, शांति का संदेशवाहक

Update:2016-12-24 10:19 IST

पूनम नेगी

लखनऊ: क्रिसमस यानी क्राइस्ट्स मास। ईसाई धर्म के प्रर्वतक ईसा मसीह के जन्मदिन की खुशी में दुनियाभर के ईसाई समाज द्वारा 25 दिसंबर को भारी हर्षोल्लास से मनाए जाने वाले इस त्योहार की शुरुआत रोम में 336 ई. में हुई थी। क्रिसमस के दिन लोग चर्च में जाकर विशेष प्रार्थनाएं करते हैं, क्रिसमस फादर, क्रिसमस ट्री और क्रिसमस केक के पार्टी का आयोजन कर खुशियां मनाते हैं। कैरोल यानी ईसा मसीह के जन्मदिन के खास गीत गाते हैं और प्यार व भाईचारे का संदेश देने घर-घर जाते हैं। मगर, मसीहा के जन्मदिन की ये खुशियां उनकी शिक्षाओं के बिना अधूरी हैं। तो आइए इस मौके पर जानते हैं समूची दुनिया को प्रेम और मानवता का पाठ पढ़ाने वाले इस इस महापुरुष के चमत्कारी जीवन, अज्ञातवास और सामाजिक समरसता की स्थापना करने वाली अनूठी शिक्षाओं के बारे में।

ईसाईयों के प्रतिनिधि धर्मग्रन्थ में बाइबिल कथानक मिलता है कि यहूदी देश इसराइल के गलीलिया प्रांत के नाजरेथ गांव की रहने वाली एक ईश्वरनिष्ठ कुंवारी कन्या मरियम जिसकी सगाई युसुफ नाम के एक बढ़ई से हो चुकी थी। एक दिन आकाशवाणी के अनुसार उस पर एक पवित्र आत्मा उतरती है और वह गर्भवती होती है। जब उसका गर्भधारण का समय पूरा होने को होता है तभी देश में जनगणना की मुनादी होती है। जनसंख्या सूची में नाम लिखाने के लिए गरीब यूसुफ भी अपनी मंगेतर मरियम के साथ जाता है। कड़ाके की सर्दी में वे दोनों रात बिताने एक सराय में रुकते हैं, उसी सराय की गोशाला में अर्द्धरात्रि को मरियम ने दिव्य एक शिशु बालक को जन्म देती है। यही बालक आगे चलकर मसीहा यानी दुखी-पीड़ितों का उद्धारकर्ता बनता है।

कथा कहती है कि देवदूतों ने इस बालक के जन्म की सूचना सबसे पहले खुले आकाश तले भेड़ों की रखवाली करने वाले गरेड़ियों को दी थी। जरा विचार तो कीजिए! कितना पवित्र अवतरण और कितना पावन संदेश, बिल्कुल हमारी अवतारी सत्ताओं की तरह। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि धरती पर जब जब पाप, अनाचार व अन्याय बढ़ता है तब मैं विभिन्न रूपों में जन्म लेकर पीड़ित मानवता का उद्धार करता हूं। ईसा मसीह भी ऐसे ही एक महामानव हैं जिन्होंने 5-6 ईसा पूर्व येरुशलम के बैतलहम नगर में एक गोशाला में जन्म लिया था जैसे कृष्ण ने कारागार में।

लेकिन, गौर करने वाला तथ्य यह है कि बाइबिल में ईसा के जन्म से लेकर 13 साल तक की घटनाओं का उल्लेख मिलता है और फिर 29वें साल से लेकर 33 साल की आयु में उनको सूली पर लटकाये जाने आैर तीसरे दिन उनके पुनर्जीवन तक का। 13 साल तक के किशोर जीवन की कहानी सहसा बंद हो जाती है और फिर 29वें साल में गधे पर चढ़कर गृहनगर में प्रवेश की घटना के पुन: शु डिग्री हो जाती है। इस आगे की कथा में उनके द्वारा समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ छेड़ी गयी मुहिम के साथ अंधे को रोशनी, कोढ़ी को स्वस्थ करने जैसे विभिन्न चमत्कारों के उल्लेख भी है। इसके साथ ही उनके सीधे सरल संदेशों से व्यापक जनसमर्थन से घबराए शासक वर्ग का षडयंत्र कर 33 साल की आयु में उनको सूली पर लटकाए जाने और तीसरे दिन उनके पुनर्जीवन व अंतिम गिरि प्रवचन तक के जीवनक्रम का विवरण बाइबिल के न्यू टेस्टामेंट में मिलता है। पर ताज्जुब की बात यह है कि यह प्रमुख धर्म ग्रन्थ अपने प्रर्वतक के 14 से लेकर 29 साल तक जीवन पर पूर्ण मौन है।

इस विश्वविख्यात महापुरुष के जीवन के 17-18 साल के इस शून्यकाल ने तमाम शोधकर्ताओं व इतिहासवेत्ताओं को इस दिशा में खोजबीन को प्रेरित किया और उनकी शोधों से एक नयी जानकारी सामने आयी। यह जानकारी थी ईसा का भारत प्रवास। रूसी इतिहासकार निकोलस नोकोविच की द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट, फ्रांसीसी साहित्यकार लुइस जेकोलियत का कृष्ण और क्राइस्ट का तुलनात्मक अध्ययन, जर्मन शोधकर्ता होल्गर कर्स्टन की जीसस लिव्ड इन इण्डिया, कश्मीरी इतिहासकार फिदा हसनैन की फिफ्थ गॉस्पल, भारतीय मनीषी स्वामी परमहंस योगानंद की "द सेकेंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट" व स्वामी अभेदानंद की बांग्ला भाषा में लिखित "ईसा का तिब्बत और कश्मीर भ्रमण" आदि ग्रन्थों में ईसा मसीह के मध्य जीवन के इन 16-17 सालों की कई रोचक व महत्वपूर्ण जानकारियां दी गयी हैं।

रूसी अन्वेषक निकोलस नोकोविच के अनुसार "जीजस क्राइस्ट प्राचीन व्यापारिक मार्ग "सिल्क रूट" (हिमालय के बर्फीले क्षेत्र) से होकर भारत आए थे और वे काफी समय तक लद्दाख के हेमिस बौद्ध मठ में रुके थे। यहां रहकर उन्होंने बौद्ध धर्म की शिक्षा ली, निर्वाण के महत्व को समझा और ध्यान साधना सीखी। इसके बाद वे काफी समय तक कश्मीर के बौद्ध व हिन्दू मंदिरों में भी रहे व वहां प्राचीन भारतीय साधनाएं सीखीं। अपने भारत प्रवास के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी। भारत में उन्होंने वैदिक व जैन साहित्य का भी अध्ययन किया था।" निकोलस अपनी किताब में यहां तक लिखते हैं कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद यह माना गया कि ईसा की मौत हो गयी लेकिन सूत्र बताते हैं कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद भी ईसा जीवित रह गये थे और वे अपने परिवार और मां मैरी के साथ पुन: तिब्बत के रास्ते भारत आ गये तथा भारत के कश्मीर प्रांत में उन्होंने अपना अंतिम ठिकाना बनाया। यहीं 80 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई। वे वहीं दफन हुए।

उनकी कब्र आज भी कश्मीर के उस क्षेत्र में मौजूद है। नोकोविच ने तिब्बत के मठों में ईसा से जुड़ी ताड़ पत्रों पर अंकित दुर्लभ पांडुलिपियों का दुभाषिए की मदद से अनुवाद किया था जिसमें लिखा था, "सुदूर देश इसराइल में ईसा मसीह नाम के एक दिव्य बच्चे का जन्म हुआ। यह बच्चा 13-14 वर्ष की आयु में व्यापारियों के साथ तिब्बत होते हुए हिन्दुस्तान आ गया। भारत में ईसा ने बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन किया, पंजाब की यात्रा की और वहां जैन संतों के साथ समय व्यतीत किया। इसके बाद वे जगन्नाथपुरी पहुंचे एवं वहां कई वर्ष तक रहकर वेद, उपनिषद आदि वैदिक साहित्य का अध्ययन और अपनी भाषा में अनुवाद किया। फिर वे राजगीर, बनारस समेत कई और तीर्थों का भ्रमण करते हुए नेपाल के हिमालय की तराई में चले गये और वहां जाकर बौद्ध ग्रंथों तथा तंत्रशास्त्र का अध्ययन किया। नेपाल के बाद पर्शिया आदि कई मुल्कों की यात्रा करते हुए वह 29 साल की आयु में वे अपने वतन लौट गये।"

इतिहासकार लातोविच के बाद श्री श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य व स्वामी अभेदानंद ने भी 1922 में लद्दाख की हेमिस बौद्ध मिनिस्ट्री का भ्रमण किया और उन साक्ष्यों का अवलोकन किया जिससें ईसा के भारत आने का वर्णन है। इन शास्त्रों के अवलोकन के पश्चात उन्होंने भी लातोविच की तरह ईसा के भारत आगमन की पुष्टि की और इस खोज को बांग्ला भाषा में "तिब्बत ओ काश्मीर भ्रमण" नाम से प्रकाशित करवाया। जर्मन विद्वान होल्गर कर्स्टन ने भी 1981 में अपने गहन अनुसन्धान के बाद एक पुस्तक लिखी जीसस लिव्ड इन इण्डिया : हिज लाइफ बिफोर एंड ऑफ्टर क्रूसिफिक्शन। इसके द्वारा उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया कि जीसस ने भारत में रहकर बुद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण की और बौद्धमठ में रहकर तप-योग ध्यान साधना आदि किया। इस योग साधना के कारण ही क्रॉस पर लटकाये जाने के बावजूद उनका जीवन बच गया था ।

स्वामी परमहंस योगानंद की किताब द सेकेंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू में भी यह दावा किया गया है कि उनके जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुंचे तीन विद्वान ज्योतिषी भारतीय बौद्ध ही थे। जिन्होंने उनका नाम "ईसा" रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ "ईश्वर" यानी "भगवान" होता है। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि भारत में रह कर ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया था। खास बात यह है कि उक्त विद्वानों की शोधों पर आधारित यह दिलचस्प जानकारियां कुछ वर्ष पहले लॉस एंजिल्स टाइम्स तथा द गार्जियन में प्रकाशित हो चुकी हैं।

पूरी दुनिया के ईसाई समाज में ईसा मसीह को एक दिव्य अवतारी सत्ता माना जाता है। उनकी मानवतावादी शिक्षाओं में भारतीय आध्यात्मिक जीवन मूल्य प्रतिबिम्बित होते हैं। वे कहते हैं, वे कहते हैं कि धन्य हैं वे जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं क्योंकि वे तृप्त किये जाएंगे। मांगो तो तुम्हें दिया जाएगा, ढूंढ़ो तो तुम पाओगे, खटखटाओ तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। धन्य हैं वे जिनके मन शुद्ध हैं क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे। यदि तुम्हारे मन में राई के दाने के बराबर भी विश्वास हो तो तुम्हारे कहने पर पहाड़ समुद्र में समा जाएगा।

मनुष्य केवल रोटी से नहीं अपितु परमेश्वर के मुंह से निकलने वाले हर वचन से जीवित रहता है। हम में से हर एक के अंदर एक भीतरी भूख है जो हमें जीवन की रोटी के लिए पुकारती है। बस हमें उस पुकार को सच्चे मन से सुनने की जरूरत है। ईसा मसीह की यह दिव्य ज्ञान आज समूचे विश्व में लोगों को जीवन की सच्ची राह दिखा रहा है। आइए हम सब भी महात्मा ईसा की इन पावन शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लें ताकि इस अशांत व उद्विग्न दुनिया में प्रेम व सद्भाव का साम्राज्य पुन: स्थापित हो सके।

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