लखनऊ: घटना आजादी से पहले की है। खचांखच भरी एक रेलगाड़ी तेजी से गंतव्य की ओर चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में कुछ अंग्रेजों के साथ एक भारतीय भी बैठा था। कूपे में बैठे अंग्रेज सांवली रंगत और आैसत कदकाठी के उस यात्री को मूर्ख और अनपढ़ समझकर उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति उन पर कोई ध्यान न देकर किसी विचार में डूबा हुआ था। अचानक वह व्यक्ति सीट से उठा आैर उसने गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज गति में दौड़ रही ट्रेन अचानक रुक गयी। उनके इस कृत्य पर अंग्रेज यात्री भड़क उठे अौर काफी भला-बुरा कहते हुए दंडित करने की बात कहने लगे। इसी बीच गार्ड भी डिब्बे में आ पहुंचा। उसने पूछा जंजीर किसने खींची। उस व्यक्ति ने जबाब दिया- मैंने। कारण पूछने पर बोला मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है। कथन की सत्यता को परखने के लिए गार्ड व कुछ अंग्रेज अधिकारी उनके साथ इंगित की गयी जगह पर पहुंचे तो देखकर दंग रह गये कि एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए थे और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े थे। जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण सबकी जान बच गयी तो सभी ने उनकी सूझबूझ की प्रशंसा करते हुए उन्हें धन्यवाद दिया। गार्ड ने उनसे पूछा आपको इस गड़बड़ी का पता कैसे पता चला तो वे बोले महोदय! मुझे गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर महसूस हुआ आैर पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से खतरे का आभास हुआ। इस पर गार्ड ने पूछा आप कौन हैं आैर आपका नाम क्या है तो उन्होंने कहा-मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम एम विश्वेश्वरैया है। यह सुनकर सभी स्तब्ध रह गए, क्योंकि उस समय तक समूचे देश में डॉ. विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी थी।
भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, आधुनिक भारत के विश्वकर्मा माने जाते हैं। 101 साल तक जीवन जीने वाले इंजीनियरिंग के इस जादूगर की देश की लिए की गयी अविस्मरणीय सेवाओं के लिए भारत सरकार ने 1968 में डॉं विश्वेश्वरैया की जन्म तिथि 15 सितम्बर को अभियंता दिवस घोषित किया गया। अपने समय के सर्वाधिक सफल इंजीनियर आैर तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले डॉ मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया भारत ही नहीं, वरन विश्व के महान तकनीकी विशेषज्ञों में गिने जाते हैं।
मैसूर, कर्नाटक के मुद्देनाहल्ली नामक स्थान पर 15 सितम्बर 1861 को एक निर्धन परिवार में जन्मे मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का बाल्यकाल आर्थिक संकट में बीता। उनके पिता एक ग्रामीण वैद्य थे। कहा जाता है कि वर्षों पहले उनके पिता आंध्र प्रदेश केमोक्षगुंडम नामक स्थान से मैसूर में आकर बस गये थे। जब विश्वेश्वरैया पैदा हुए तो उनके पिता ने अपने पूर्वजों के जन्म की स्मृति में उनका नाम मोक्षगुंडम रख दिया। तीक्ष्ण बुद्धि के विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा अपने जन्म स्थान से पूरी की। फिर उन्होंने बंगलुरु के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लेकर आगे की पढ़ाई ट्यूशन लेकर पूरी की। लक्ष्य केन्द्रित विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए उन्होंने पूना केसाइंस कॉलेज में दाखिला लिया। तत्पश्चात 1883 में उन्होंने एल सी ई और एफ सी ई, वर्तमान समय की बीई उपाधि की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के कारण महाराष्ट्र की सरकार ने उन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया। उस समय भारत अंग्रेजों के अधीन था। तब उच्च पदों पर आमतौर पर अंग्रेज अधिकारी ही नियुक्त होते थे। मगर विश्वेश्वरैया ने इस पद पर काम करते हुए शीघ्र ही अंग्रेज इंजीनियरों से अपना योग्यता का लोहा मनवा लिया।
विश्वेश्वरैया के समने एक बड़ी चुनौती सन 1894- 95 में आयी। जब उन्हें सिंध के सक्खर क्षेत्र में पेयजल की परियोजना सौंपी गयी। पानी को साफ करने की तमाम तकनीकों का अध्ययन करने के बाद उन्होंने रेत के इस्तेमाल का अनूठा तरीका अपनाया। उन्होंने नदी के तल में एक गहरा कुंआ खोदवाकर उसमें रेत की कई पर्तें बिछवायीं। रेत की पर्तों से जलशुद्धि की इस तकनीक से उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी और वे अंग्रेज अधिकारियों के मध्य भी सम्मान से देखे जाने लगे। इसी तरह उन्होंने अपनी मौलिक सोच से बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने के लिए खड़गवासला बांध पर स्वचालित जलद्वारों का प्रयोग किया। इनकी खासियत यह थी कि बांध में लगे जलद्वार पानी को तब तक रोक कर रखते थे जब तक वह पिछली बाढ़ की ऊंचाई के स्तर तक न पहुंच जाए। जैसे ही बांध का पानी उससे ऊपर की ओर बढ़ता जलद्वार अपने आप ही खुल जाते और जैसे ही पानी निर्धारित स्तर तक आ जाताए बांध के जलद्वार स्वतरू बंद हो जाते।
विश्वेश्वरैया ने खेतों की सिंचाई के लिए भी उत्तम प्रबंध किये। उन्होंने बांध से नहरें निकालीं और खेतों तक पानी की व्यवस्था की। उनकी इस तकनीक से पूना बैंगलोर मैसूर बड़ौदा कराची हैदराबाद कोल्हापुर सूरत नासिक नागपुरए बीजापुर धारवाड़ ग्वालियर इंदौर आदि नगरों को जल संकट से मुक्ति मिल गयी। गौरतलब हो कि यह वह दौर था जब आजादी का आंदोलन उफान पर था आैर गोपाल कृष्ण गोखले बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानी सरकारी पदों पर विराजमान भारतीयों को इस आंदोलन से जोड़ने के लिए विशेष रूप से प्रयासरत थे। इन नेताओं के सम्पर्क में आकर विश्वेश्वरैया भी भारतीय जनमानस तक आम सुविधाएं पहुंचाने में जुट गये।
अपनी योग्यता आैर कार्य के प्रति ईमानदारी के बल पर वे तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए लोक निर्माण विभाग में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर के पद तक जा पहुंचे। उन दिनों सरकारी विभागों के प्रमुख पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित थे। विश्वेश्वरैया ने इसका विरोध करते हुए 1908 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। चूंकि अंग्रेज सरकार उन जैसे योग्य अधिकारी को खोना नहीं चाहती थीए इसलिए फैसले पर पुनर्विचार का आग्रह किया पर विश्वेश्वरैया अपने निश्चय से टस से मस नहीं हुए। हालांकि उस समय विभाग की न्यूनतम 25 वर्ष की सेवा के उपरांत ही पेंशन का प्रावधान था। फिर भी विश्वेश्वरैया का सेवाकाल 25 वर्ष पूरा न होने के बावजूद अंग्रेज सरकार ने उन्हें विशेष मानते हुए पेंशन प्रदान की।
आजादी से पूर्व विश्वेश्वरैया ने कावेरी नदी पर बांध बनाने की जो योजना बनायी थी। उसमें लगभग 2 करोड़ 53 लाख रुपये खर्च होने का अनुमान था। 1909 में यह एक बड़ी राशि थी, लेकिन यह विश्वेश्वरैया की हनक थी कि मैसूर सरकार ने उनकी इस योजना को हरी झण्डी दे दी। उन्होंने कावेरी नदी पर कृष्णा सागर बांध का निर्माण कराकर समूचे राज्य को बाढ की विभीषिका से मुक्ति दिला दी। लगभग 20 वर्ग मील में फैला यह बांध 130 फिट ऊंचा और 8600 फिट लम्बा था। यह विशाल बांध 1932 में बनकर पूरा हुआए जो उस समय देश का सबसे बड़ा बांध था। बांध के पानी को नियंत्रित करने के लिए उससे अनेक नहरें एवं उपनहरें भी निकाली गयीं। जिन्हें विश्वेश्वरैया चैनल नाम दिया गया। तब इस बांध से 150000 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जा सकती थी और 6000 किलोवाट बिजली बनायी जा सकती थी। देखा जाए तो कृष्णराज सागर बांध विश्वेश्वरैया जी की ऐसी बहुउद्देशीय परियोजना थीए जिसने मैसूर राज्य की काया ही पलट दी। वहां अनेक उद्योग-धंधे विकसित हुए। जिसमें विख्यात मैसूर शुगर मिल भी शामिल है। इसके अलावा मैसूर राज्य के दीवान के तौर पर लगभग छह वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने राज्य में शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर काफी बल दिया और प्रदेश में कई तकनीकी संस्थानों की नींव रखी। स्टेट बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना की। व्यापार तक जनपरिवहन को सुचारु बनाने के लिए महत्वपूर्ण स्थानों पर रेलवे लाइन बिछवायी। सन 1918 में राज्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए पॉवर स्टेशन की भी स्थापना की। मगर सन 1919 में महाराजा से वैचारिक भिन्नता के कारण पद से त्यागपत्र दे दिया।
इसके बाद वे कई महत्वपूर्ण समितियों के अध्यक्ष एवं सदस्य भी रहे। सिंचाई आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने अनेक योजनाओं को अमलीजामा पहनाया। वे भारत सरकार की अर्थ जांच समितिष् के भी अध्यक्ष रहे। इस दौरान आपने कुछ पुस्तकें भी लिखीं। इनमें भारत का पुनर्निर्माण भारत के लिए नियोजित अर्थव्यवस्था आैर मेमोरीज ऑफ माई वर्किंग लाइफ लोकप्रिय हुईं। ज्ञात हो कि उनकी कार्यनिष्ठा एवं योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर की उपाधि से विभूषित किया था। 101 वर्ष का सक्रिय जीवन जीने वाल विश्वेश्वरैया जीवन की अन्तिम घड़ी तक कभी खाली नहीं बैठे। 14 अप्रैल सन 1962 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। उन्हें देश में आधुनिक तकनीक का जनक माना जाता है। तमाम विश्वविद्यालयों से मानद उपाधि से सम्मानित मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को उनकी राष्ट्रसेवा के लिए भारत सरकार ने सन 1955 में भारत रत्न से विभूषित किया। यही नहीं 1961 में उनके 100 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में देश ने उनका शताब्दी समारोह मनाया तथा इस अवसर पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया।