लखनऊ: जीवन की निरंतरता की पोषक सनातन हिंदू संस्कृति में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं, वरन एक पड़ाव माना गया है। हिंदू दर्शन के सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता में जगद्गरु श्रीकृष्ण युद्ध विमुख विषादग्रस्त अर्जुन को आत्मा की अजरता-अमरता का बोध कराकर उससे शोक न करने का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वस्त्र के पुराने मैले और फट जाने पर मनुष्य नए वस्त्र धारण कर लेता है। उसी तरह काया के जीर्ण-जर्जर हो जाने पर जीवात्मा भी नया शरीर धारण कर लेती है।
शरीर का अंत जीवन का अंत नहीं है। हमारी संस्कृति की पुनर्जन्म की अवधारण का आधार भी यही है। इसी मान्यता के कारण हमारे पूर्वजों ने पितृ पूजन की परम्परा डाली और इसके लिए महज एक-दो दिन नहीं, वरन पूरे एक पखवारे की अवधि निर्धारित की। भादों की पूर्णिमा से लेकर अश्विन माह का कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक विशिष्ट काल पितरों के प्रति श्रद्धा अर्पित करने के लिए दान-पूजन को निर्धारित किया गया है।
वैदिक संस्कृति है श्राद्ध परम्परा की पोषक
श्राद्ध परम्परा का बीजारोपण वैदिककालीन संस्कृति से माना जाता है। वैदिक संस्कृति के मुताबिक हिन्दू धर्म चार पुरुषार्थों-धर्म अर्थ काम और मोक्ष की अवधारणा पर टिका है। मनुष्य इस धरती पर जन्म लेते ही देव ऋण ऋषि ऋण और पितृ ऋण में बंध जाता है। हिंदू संस्कृति की मान्यता के मुताबिक मात-पिता की सेवा और पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर पिण्ड दान, तर्पण व ब्राह्मण भोज से मनुष्य को पितृऋण से मुक्ति मिलती है। ऋषिवाणी कहती है श्रद्धया किरयेत यस्मात श्राद्धं तेन प्रकीर्तितम्ष् अर्थात श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म ही श्राद्ध है। पितृऋण से मुक्ति चाहने वाले हर हिन्दू धर्मावलम्बी को श्राद्ध के इन दिनों जिन्हें सामान्य भाषा में कनागष्त भी कहते हैं। अपने पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए यथा सामर्थ्य तर्पण और दान-पूजन करना ही चाहिए।
वर्तमान समाज के तथाकथित आधुनिक सोच रखने वाले लोग भले ही इस परम्परा पर यकीन न करें और तर्क करें कि जो मर चुके हैं उनके नाम पर यह आडम्बर क्यों। इस कुशंका का शमन करते हुए हमारे धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड में कई तत्व ऐसे हैं जो हमें इन स्थूल आंखों से दिखायी नहीं देते, फिर भी उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इस तथ्य को अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। यही सिद्धांत श्राद्ध परम्परा के पीछे काम करता है। ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि मृत्यु के उपरान्त भी हमारे पूर्वजों की जीवात्माओं का अस्तित्व सूक्ष्म रूप में कायम रहता है और पितृपक्ष के दौरान ये जीवात्माएं मृत्यु लोक में आती हैं और अपने पुत्र-पौत्र और अन्य परिवारी जनों द्वारा किए गए पिण्ड-तर्पण से तृप्त होकर उन्हें आशीर्वाद देकर अपने लोक को वापस लौट जाती हैं।
गरुण पुराण में वर्णित है श्राद्ध की महत्ता
गरुण पुराण में उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति पितृपक्ष में श्रद्धा के साथ अपने पितरों का तिल कुश व जल से तर्पण व दान करते हैं। उनके पितर प्रसन्न होकर उन्हें दीर्घायु, स्वस्थ-संस्कारी संतति, धन-धान्य में बढ़ोत्तरी व मोक्ष प्राप्ति का आशीर्वाद देते हैं। वहीं इस दौरान जो अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते, उनके पितर तर्पण न मिलने पर नाराज होकर शाप दे देते हैं। शास्त्रों के मुताबिक सूर्योदय से तीन घंटे बाद व अपराह्न 12 बचे तक का समय श्राद्ध कर्म के लिए सर्वोतम माना गया है। श्राद्ध तर्पण के कार्य में कुश व तिल का उपयोग शुभ माना गया है। काले तिल से युक्त जल से तर्पण से पितृगण तृप्त होते हैं। श्राद्ध सदैव दोपहर को ही किया जाना चाहिए। जिस अमावस्या को हस्त नक्षत्र में सूर्य-चंद्र हों तो गजच्छाया योग होता है उस काल में किया गया श्राद्ध पितरों को बहुत संतुष्टि प्रदान करता है।
किस प्रकार के ब्राह्मण श्राद्ध स्वीकार करने के योग्य होते हैं। इस बारे में शास्त्र कहता है कि शुद्ध आहार-विहार व आचार-विचार वाले वेद आदि धर्मशास्त्रों के सारतत्व का विशिष्ट ज्ञान रखने वाले लोक-हितकारी दृष्टि सम्पन्न चरित्रवान ब्राह्मण ही श्राद्ध का भोजन ग्रहण करने के पात्र माने जाते हैं। ब्राह्मण कुल में जन्म से इसकी पात्रता निर्धारित नहीं होती। रोगी मांसाहारी शराबी व चरित्रहीन ब्राह्मण को श्राद्ध में बुलाना अपराध माना गया है। मान्यता है कि पितृ ऐसे अपात्रों को श्राद्ध फल ग्रहण करते देख कष्ट पाते हैं।
श्राद्ध कार्य में निमंत्रित सुपात्र ब्राह्मणों को मौन होकर भोजन कराना चाहिए। श्राद्ध करने वाले को सफेद वस्त्र पहनना चाहिए क्योंकि सफेद रंग शांति व पवित्रता का प्रतीक माना गया है। इस दौरान अतिथियों को भोजन कराते हाथ में नमक देना, पंक्तिभेद करना यानि परोसते समय किसी को कोई भोज्य पदार्थ देना व किसी को न देना यजमान द्वारा खुद अपने भोजन की तारीफ करना निषेध माना गया है।
श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को श्राद्धकर्म के दौरान मन में क्रोध, क्षोभ उग्रता का भाव नहीं रखना चाहिए। इस दौरान असत्य भाषण, अपशब्द कहना, रोना बहुत जल्दबाजी में खाना परोसना भी अमान्य आचरण माना जाता है। भोजन के उपरान्त आमंत्रित ब्राह्मणों को यथा सामर्थ्य अन्न-वस्त्र और दक्षिणा आदि प्रदान कर उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेकर विदा करना चाहिए। श्राद्धकर्म के दौरान मौके पर स्वयं आ गये कुत्ते-बिल्ली या पक्षियों को भगाना भी अनुचित माना गया है।
सम्भव हो तो जब तक ब्राह्मण भोजन ग्रहण करें, तब तक पुरुष सूक्त तथा पवमान सूक्त आदि का जप करते रहना चाहिए। भोजन कर चुके ब्रह्मणों के उठने के पश्चात श्राद्ध करने वाले को अपने पितृ से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए।
दातारो नोअभिवर्धन्तां वेदारू संततिरेव च।।
श्राद्ध च नो मा व्यगमद् बहु देयं च नोअस्तिवति।
अर्थात पितृगण! हमारे परिवार में दाताओं वेदों और संतानों की वृद्धि हो हमारी आप में कभी भी श्रद्धा न घटे दान देने के लिए हमारे पास पर्याप्त संपत्ति हो।
सभी भूले-बिसरे पितरों का श्राद्ध करने की विशिष्ट तिथि सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध कर उनसे आशीर्वाद की कामना की जाती है। सर्वपितृ अमावस्या के साथ ही 15 दिन का श्राद्ध पक्ष खत्म हो जाता है। अश्विन कृष्ण पक्ष की समाप्ति के बाद अगले दिन से नवरात्र प्रारम्भ होते हैं। सर्वपितृ अमावस्या पर हम अपने उन सभी प्रियजनों का श्राद्ध कर सकते हैं जिनकी मृत्यु की तिथि का ज्ञान हमें नहीं है।
भारतीय पंचांग के अनुसार तिथि महत्वपूर्ण होती है। इसी कारण श्राद्ध दिनांक के बजाय तिथि पर करना उचित माना गया है। यानि जिस व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि को हुई हो, उस दिन क्या तिथि थी। यह ध्यान रखना जरूरी होता है और यह सभी तिथियां 15 दिन के इस पखवारे के भीतर आ ही जाती हैं। किन्तु किसी कारणवश या तिथि भूल जाने की स्थिति में यदि आप निर्धारित तिथि पर अपने प्रियजन का श्राद्ध नहीं कर सके तो सर्वपितृ अमावस्या के दिन उनका श्राद्ध किया जा सकता है। इस साल पितृपक्ष का शुभारम्भ 16 सितम्बर से हो रहा है तथा सर्वपितृ अमावस्या यानी पितरों को विदा करने की अंतिम तिथि 30 सितम्बर है। ज्योतिषीय मान्यता के अमावस्या को हमारे देवता और पितृ एक साथ बैठते हैं और श्राद्धकाल में पृथ्वी पर किये गये दान-पुण्य को भावपूर्वक स्वीकारते हैं। यूं भी हमारे ऋषियों ने हर महीने की अमावस्या तिथि, दान-पुण्य के लिए तय कर रखी है।
श्राद्धकर्म अनिवार्य क्यों
मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति व पुराण ग्रन्थों में श्राद्ध को महत्वपूर्ण कर्म बताते हुए उसे करने के लिए प्रेरित किया गया है। श्राद्ध कर्म पुत्र द्वारा ही क्यों इस बारे में मनुस्मृति में कहा गया है। त्राण यानि मुक्ति दिलाने वाला पुत्र ही होता है। इसी कारण मनुष्य पुत्र की कामना करता है। पिण्डदान श्राद्ध करने का अधिकार पुत्र को ही दिया गया है। वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि पुत्र होने पर पिता लोकों को जीत लेता है। पौत्र होने पर अनित्य भाव को प्राप्त करता है और प्रपौत्र होने पर सूर्य लोक का निवासी होने की पात्रता पाता है। लेकिन जिनके पुत्र नहीं है। उनके लिए शास्त्रों में सहोदर भाई के न होने पर जमाता व नाती श्राद्ध करने के अधिकारी माने गये हैं।