विजय के प्रथम वैदिक प्रतीक है इंद्र, विजयादशमी पर राम के साथ इनको भी करें याद
विजयादशमी के अवसर पर भगवान राम की यशोगाथा का गान करते समय हम यह भूल जाते हैं कि उनसे भी पूर्व इस वीर प्रसविनी धरा की रत्नगर्भा कोख से ऐसे महापुरुष जन्म ले चुके हैं जिन्होंने इतिहास के कालप्रवाह में श्रीराम से बहुत पूर्व उत्पन्न होकर महान हिमालय के शिखरों को प्रकाशमान किया था तथा उसकी तलहटी में विकसित होने वाली आद्य संस्कृति की आधारशिला रखी थी।
इस रूप में इन्द्र विजय के प्रथम वैदिक प्रतीक माने जाते हैं। वेदों में इन्द्र देवताओं की कोटि में आते हैं। उनकी स्तुति में गाये गये मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है। संपूर्ण संहिता में साढ़े तीन हजार के लगभग मंत्र मात्र इन्द्र को समर्पित हैं। इन्द्र के बाद अग्रि, सोम, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते हैं। यद्यपि वेदों का देववाद अभी भी मतभेद का विषय है। जिन देवताओं की चर्चा वेदों में है। उनमें कौन मानव रूपधारी है और कौन निसर्ग शक्तिरूपी यह निश्चित नहीं हो सका है। फिर भी अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि इन्द्र रुद्र मरुत ऋभु अश्विन विष्णु आदि मानवरूपधारी देव हैं और उनकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं। सोमपान में उनकी रुचि है और वार्तालाप करने में भी वह पारंगत हैं।
कुछ प्रसंग ऐसे भी हैं जिनमें इन्द्र मेघों के देवता प्रतीत होते हैं। लेकिन इस कल्पना का कारण यह लगता है कि इन्द्र पार्वत्य प्रदेश के निवासी थे आैर पर्वतों पर ही मेघों का निर्माण होता है। इसलिए अपने मानव रूप मे साथ-साथ वह समतल भूमि वासियों को मेघों के बीच प्रकट होने वाली शक्ति के रूप में दिखायी देने लगे आैर वृत्र के साथ हुए उनके युद्ध को एक रूपक की तरह मानकर स्वीकार कर लिया गया। वैदिक युग के सर्वाधिक शक्तिशाली देवता के रूप में प्रतिष्ठित इन्द्र की प्रमुख विजयों में महाअसुर वृत्रासुर वध अन्यतम माना गया है। कई विद्वानों के अनुसार इसकी तुलना राम के द्वारा रावण की पराजय से की जा सकती है। इन्द्र -वृत्रासुर युद्ध के संबंध में प्रोण् मैक्समूलर ने लिखा है कि होमर के इलियड में ट्राययुद्ध की जो कल्पना हैए वह भी इसी पर आधारित है। यूनान के जियस आैर अपोलो नामक देवताओं की कथाएं भी इससे मिलती-जुलती हैं।
इन्द्र का दूसरा महत्वपूर्ण युद्ध शंबर से हुआ था। पौराणिक उल्लेख मिलता है कि शम्बर वैदिक युग का अत्यधिक शक्तिशाली असुर था जिसने 99 नगरों की रचना की थी आैर ये नगर अत्यंत समृद्ध तथा ऐश्वर्यशाली थे। इन्द्र का जब उससे युद्ध हुआ तो उसकी समस्त पुरियां नष्ट हो गयीं। इन्द्र ने सौंवी पुरी को अपने निवास के लिए रखकर शेष सब को अपने वज्र से नष्ट कर दिया। तभी से इन्द्र का पुरन्दर नाम विख्यात हो गया। आधुनिक इतिहाकारों की धारणा है कि हड़प्पा.मोहन जोदड़ो की नगर सभ्यता असुरों की सभ्यता थी आैर उसी को इन्द्र ने नष्ट किया। इनकी यह भी मान्यता है कि वह असुर द्रविण जाति के थेए हालांकि वेदों में कहीं भी उस जाति की चर्चा नहीं मिलती।
ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के अठरहवें सूक्त में दाशराज्ञ युद्ध की सुप्रसिद्ध कथा का विस्तृत विवरण है। इस युद्ध में एक आैर सूर्यवंशी राजा सुदास थे तथा दूसरी ओर अन्य दस नरेश। यह नरेश संभवतरू आर्य नहीं थे । सुदास के सहायक तथा पुरोहित वशिष्ठ ऋषि थे। जिन्होंने अपने राजा की सहायता करने के निमित्त इन्द्र का आवाहन किया ।
सुदास पहले बहुत साधारण आैर धनहीन व्यक्ति थे। वशिष्ठ की ही कृपा से उनके दिन फिरे तथा इन्द्र ने उनकी सहायता की। यह युद्ध परुष्णी अर्थात रावी-नदी के तट पर हुआ था। सुदास के शत्रुओं जिनके नाम तर्वश यक्थ भलान अलिन विषाण मत्स्य आदि बताये गये हैं। पारुष्णी नदी के बांध को तोड़ दिया जिसकी वजह से नदी का जल समस्त भूप्रदेश को डुबाने लगा। फलस्वरूप इन्द्र को उनके साथ युद्ध करना पड़ा जिसमें प्रतिपक्ष के हजारों व्यक्ति मारे गये। अंततरू उन लोगों ने इन्द्र का वर्चस्व स्वीकार कर एक विशाल अश्व वाहिनी उन्हें समर्पित की। इन तीन महायुद्धों के अतिरिक्त अनेक बार इन्द्र युद्ध के मैदान में उतरे तथा उन्हांने आर्य संस्कृति की पताका फहरायी। उन्होंने शरत नामक असुर की सात पुरियां का विध्वंस किया। इसके साथ ही नमुचिका सुश्रुवा शुष्ण आैर कुयव नामक राजाओं से भी युद्ध कर इंद्र ने स्वयं को ष्विजेताष् के रूप में प्रतिष्ठित किया।वैदिक काल में युद्ध विद्या अत्यंत विकसित थी। सैनिकगण घोड़े की सवारी करते थे आैर धनुषबाण उन दिनों के सर्वाधिक प्रचलित अस्त्र थे पुराने काठोंए पक्षियों के पंखों तथा उज्जवल शिलाओं सेवाणों का निर्माण किया जाता था बाणों की नोंक पर लोहा लगा रहता था तथा उनको जहर से बुझाया जाता था। प्रत्यंचा गो अथवा अन्य पशुओं के चमड़ों से निर्मित होती थी। तलवार तथा कटार का प्रयोग भी प्रचलित था दो धारों वाली तलवारें भी बनती थीं। लोहे के कुठार होते थे तथा फरसे आैर मुगदरों का इस्तेमाल भी किया जाता था। उस काल के रथों में सामान्यत सौ चक्के होते थे आैर छह घोड़ों द्वारा उसका परिचालन किया जाता था। अनेक रथों पर आठ सारथियों के बैठने का स्थान होता था। उन पर पताकाएं फहराया करती थीं। पांच-पांच सौ रथ एक साथ चला करते थे। इन्द्र के आयुध का गहरिद्वर्थ घोड़े का हरि व हाथी का ऐरावत नाम से उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद के दसवे मंडल के सत्ताईसवें सूक्त में इन्द्र ने अपने बल तथा पराक्रम का स्वयं वर्णन किया है। उक्त सूक्त उन्होंने कहा है।वह केवल यज्ञकर्म शून्य व्यक्तियों का ही विनाश करते हैं। कोई भी यह नहीं कह सकता कि उन्होंने कभी किसी सात्विक पुरुष का वध किया है। युद्ध में कोई उन्हें निरुद्ध नहीं कर सकताए पर्वतों में भी इतनी शक्ति नहीं कि वह उनका रास्ता अवरुद्ध करने में सफल हो सके। जब वे शब्द करते हैं तो बहरे लोग भी कांपना शुरु कर देते हैं।
इसी तरह ऋग्वेद के चौथे मंडल के अठारहवें सूक्त में इन्द्र के जन्म आैर जीवन का पता चलता है। उनकी माता का नाम अदिति था। कहते हैं इन्द्र अपनी मां के गर्भ में बहुत समय तक रहे थे जिससे अदिति को पर्याप्त कष्ट उठाना पड़ा था लेकिन अधिक समय तक गर्भ में रहने की वजह से वे अत्यधिक बलशाली आैर पराक्रमी हुए। उल्लेख है कि जब इन्द्र ने जन्म लिया, तब कुषवा नामक राक्षसी ने उनको अपना ग्रास बनाने की चेष्टा की थी, लेकिन इन्द्र ने सूतिकागृह में ही उसको मार डाला। असुरराज पुलोमा की पुत्री शची इद्र की पत्नी थीं। वे इन्द्राणी के नाम से भी विख्यात हैं। उनके पुत्रों के नाम भी वेदों में अनेक स्थानों पर आये हैं। इनमें से वसुक्त तथा वृषा ऋषि हुए जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की । इनके रचे हुए सूक्त वेदों में मिलते हैं। विष्णु जो पौराणिक काल में स्वतंत्र देवता हो गये, वैदिक काल में इन्द्र के सखा व वृहस्पति पुरोहित थे।
विद्वानां का अनुमान है कि वैदिककाल में इन्द्र एक पद था, जिसपर विभिन्न कालों में विभिन्न व्यक्ति आसीन होते थे। जो भी हो इतना निश्चित है कि इंद्र तत्कालीन आर्य राष्ट्र की विजय गाथा के सर्वमान्य प्रतीक थे आैर प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य उनके नेतृत्व में किया जाता था। इसी से विजयदशमी के पावन पर्व पर भगवान राम के साथ ही इन्द्र का भी पुण्य स्मरण प्रासंगिक हो जाता है।