क्‍या सियासत का कद हो चुका है मुल्क से ऊंचा? धीरे-धीरे उठ रहा है पर्दा

Update:2016-03-09 17:30 IST
योगेश मिश्र

yogesh mishra

परउपदेश कुशल बहुतेरे। इन दिनों भारतीय संसद इस उक्ति की ठोस गवाह बन रही है। यह बात दीगर है कि इस उक्ति के चरितार्थ करने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बीच संवाद की परत दर परत जो खुल रही है उसमें जनता की ओट के बहाने लोकतंत्र की जो यात्रा दिखती है वह बेहद निराश करने वाली है।

हालांकि भारतीय शास्त्र में वाद, विवाद, संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा बहुत पुरानी है। पर भारतीय संसद जिसकी गवाह बन रही है उसमें पुरानी परंपरा के बहाने मानदंडों की नई कसौटी निजता पर आकर खत्म हो रही है। वह लोकतंत्र में निहित स्वतंत्रता के तमाम अभिप्रायों को झुठलाती दिखती है। संवाद और शास्त्रार्थ की हमारी परंपरा कभी इस हद तक नहीं गई ।

शायद यही वजह है कि राहुल गांधी को जेएनयू अध्यक्ष कन्हैया का बीस मिनट का भाषण सुनते समय कहीं कुछ बेवजह नजर नहीं आया। वह उस दृश्य को नजरअंदाज कर रहे थे जिसमें कन्हैया की उपस्थिति में हमारे तमाम नौजवानों को राष्ट्रभक्ति के खिलाफ खड़ा करते हुए विपथगामी बनाया जा रहा था। राहुल को कन्हैया के भाषण के साथ-साथ दृश्य और परिदृश्य भी देखना चाहिए। दूसरे लोग क्या बोल रहे हैं यह भी जानना चाहिए।

रोहित वेमुला की मौत को जिस तरह दलित संत्रास से जोड़ा जा रहा वह भी हमारी राजनैतिक परंपराओं खंडन मंडन से आगे निकलते हुए जातिपक्षी और जातिद्रोही बना और बता रहा है। रोहित की मौत एक नौजवान की मौत है। उसे अगर सिर्फ इसी नजरिए से देखा गया होता तो शायद यह भारत के नौजवानों के लिए एक बड़ा सबक होता और सचमुच हैदराबाद की चिंगारी तमाम परिसरों में इस तरह प्रज्जवलित होती कि दिल्ली की गद्दी पर बैठी सरकार को कान खोलने पड़ते। लेकिन दुर्भाग्य ! ऐसा नहीं हुआ रोहित की मौत एक महत्वाकांक्षी सपने के मर जाने में तब्दील नहीं हो पाया।

पंजाबी भाषा के ख्यातिलब्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश ने अपनी कविता में सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में सपने के मर जाने को चित्रित किया है। अगर हमारी राजनीति ने रोहित वेमुला की मौत को इस नज़रिए से देखा होता तो हैदराबाद की आग लखनऊ के भीमराव अंबेडकर से निकलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जाकर बुझ नहीं जाती।

बनारस के इस विश्वविद्यालय में मोदी का दीक्षांत समारोह में शरीक होना एक ऐसा लिटमस टेस्ट था जो करने के लिए शायद ही कोई राजनेता तैयार होता। इस बात की पूरी गुंजाइश थी कि रोहित का सवाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के इस परिसर में भी उठ खड़ा हो। पर स्वाभाविक तौर पर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि पक्ष में बंटे हमारे राजनेताओं ने उसकी मौत को दलित छात्र की मौत से जोड़ दिया। वह बसपा सुप्रीमो मायावती उसकी मां से मिलकर मीडियामय हुई जिन्होंने अपने चार बार के मुख्यमंत्रित्व और कई दशक के सियासी सफर के पूरे कार्यकाल में मीडिया के सामने की दस दलित व्यक्तियों को इस मुद्रा में कभी अपने पास नहीं फटकने दिया।

हद तो यह हो गई है कि हमारी राजनीति में कई शब्दों के ऐसे अनर्थ अर्थ रूढ़ कर दिए हैं जो वस्तुतः हैं ही नहीं। गरीब, दलित, कमजोर, पिछड़ा, सांप्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका असली अभिप्राय सियासी बयार में न जाने कहां तिरोहित हो गया।

राजनीति, जबानी जमाखर्च का नाम हो गई है। विरोध के लिए विरोध उसका संस्कार हो गया है। तभी तो जो जीएसटी बिल कांग्रेस का है, व्हिसल ब्लोअर जो कांग्रेस के समय का है उसके विरोध में अब खुद कांग्रेस ही तन कर खड़ी हो गई है। कभी सदन की बहसें ज्ञानवर्धन करती थी। लोकतंत्र के पथ निर्माण में काम आती थीं। तमाम सवालों पर नेता दलीय सियासत से ऊपर उठकर कम से कम सदन के अंदर तो सोचते ही थे। सदन के अंदर संसद से लेकर प्रधानमंत्री के लिए देश बड़ा हो जाता था। अब सबकी कोशिश बिल रोकने और बिल पास कराने तक सिमट कर रह गई है।

मीडिया की सक्रियता और पारदर्शिता के इस दौर में मोदी और राहुल संवाद आरोप-प्रत्यारोप पर सिमट कर रह जाते हैं। नरेंद्र मोदी अपने भाषण में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाधी और राजीव गांधी का नाम लेकर अपने बड़प्पन का अहसास तो कराते हैं पर राहुल की आलोचनाओं के तीखे बाण से बींधे वह आहत भी साफ-साफ नज़र आ जाते हैं। हालांकि कई बातें राहुल ठीक से भले ही न कह पा रहे हों, पर ठीक तो कह रहे हैं। पीएफ निकासी पर टैक्स, काला-धन और उनके तमाम कबीना साथियों की निष्क्रियता इनमें से महत्वपूर्ण है। यह भी सच है कि भाजपा नीति केंद्र सरकार में अपने वायदों को पूरा करने की दिशा में भले ही दूरी तय की हो पर परिणाम नहीं दिए हैं।

हमारे यहां कहा जाता है कि अंत भले का सब भला। संवाद में मनरेगा को सावरकर और गांधी का जिक्र यह बताता है कि राहुल फिर खाचों से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में कुछ शब्दों का प्रयोग निजता की सीमा उसी तरह पार करता है जैसे सोनिया का गुजरात का चुनावी जुमला “मौत का सौदागर”।

कांग्रेस मुक्त भारत का निर्माण करने मे जुटे नरेंद्र मोदी को यह उम्मीद नहीं होनी चाहिए उनके विधेयक पास कराने में कांग्रेस मदद करेगी। विधेयक पास कराना किसी भी सरकार के फ्लोर मैनेजमेंट का हिस्सा है जिसे कर पाने में उनके ही संसदीय कार्यमंत्री कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ऐसी स्थिति हर बार उस सरकार के सामने आती है जिसका उच्च सदन में बहुमत नहीं होता है यह कोई नया अध्याय नहीं है लेकिन यह जरूर नया अध्याय है कि विपक्ष का कोरम न पूरा करने वाले कांग्रेस को इतनी ताकत हासिल हो रही है।

यह भी अकाट्य सत्य है कि भारतीय राजनीति में सर्वाधिक आलोचनाओं के केंद्र में रहने वाले नेता का नाम नरेंद्र मोदी है। कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों, स्वयंसेवी संगठनों, वामपंथ और कांग्रेस के सीधे निशाने पर लंबे समय तक रहे नरेंद्र मोदी को वैसे तो आलोचनाओं का अभ्यस्त हो जाना चाहिए क्योंकि हर बार की उनकी आलोचना ने उन्हें नई ताकत दी है। नया मुकाम दिया। जनता में और अधिक हैसियत दी है। यदि यह सत्य नहीं होता तो बतौर मुख्यमंत्री रहते हुए लड़े गए उपचुनाव में अपेक्षित प्रदर्शन न पाने वाले नरेंद्र मोदी आज देश के सिंहासन पर काबिज नहीं होते। चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री नहीं बनता। चाय की चर्चा लोकतंत्र का उत्सव न बनती। यह आलोचना से मिली ताकत का ही नतीजा था कि उन्होंने सपष्ट बहुमत का एक नया भाजपाई कीर्तिमान रच दिया। जो न तो भाजपा का सपना था न ही लंबे समय तक भाजपा के प्रतीक पुरुष रहे अटल बिहारी वह कर पाए थे।

जब अलोचनाएं ताकत देती हों तो राहुल गांधी द्वारा निजता पर हमला करने वाली आलोचनाएं इनकैश कराने की कोशिश की जानी चाहिए। यह सब नरेंद्र मोदी के लिए संवाद के नए संदेश हैं। पर राहुल गांधी कि वह कन्हैया का वीडियो देखते समय सिर्फ शब्द नहीं दृश्य माध्यमों पर भी नज़र दौड़ाएं। दृश्य भी देखें।

मेक इन इंडिया का उपहास करना उनका धर्म नहीं है। उनका धर्म है इसकी उपलब्धियों के दावे को खारिज करना। उनके पूरे संवाद में कहीं नरेंद्र मोदी सरकार पर हमला करने का वह औजार नहीं दिखता जिसमें तेजी व तल्खी भी हो, जो मोदी समर्थकों को यह सोचने पर मजबूर करे कि उनका नेता सचमुच अच्छे दिन लाने में देर कर रहा है। संवाद में राहुल ऐसा भी नहीं कर पाते।

वह रोहित वेमुला को दलित से बाहर निकाल कर युवा शक्ति का प्रतीक नहीं बना पाते। वह राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रबोध के बीच की उस रेखा पर कोई इबारत नहीं लिख पाते जो जनता को उनके राष्ट्रबोध और राष्ट्र प्रेम पर सोचने पर मजबूर करे। हालांकि इसके उन्होंने प्रतीक के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चुना है। पता नहीं क्यों हर राजनेता के एजेंडे में संघ होता है।

राहुल गांधी यह भूल गए कि संघ ने इंदिरा गाधी की हत्या के बाद कांग्रेस के समर्थन में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर एक नई इबारत लिखी थी। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुए इस वाद-विवाद-संवाद का स्वरूप वितंडा की ओर चला गया। ऐसे में हमारे नेताओं की जिम्मेदारी बनती है कि वे-मत दो के बाद भी प्रत्याशी जीत जाता है, भारत में ऐसे भी लोकतंत्र आता है कि उक्ति को खारिज करने की दिशा में आगे बढें।

अंग्रेजी के व्याकरण के मुताबिक दो न को एक हां की तरह पढ़ने की तरह हां कह के कम से कम सदन के अंदर सियासत से पहले देश को मानें और जानें। कौन क्या कह रहा है, किसका कितना असर है इसे हमारा लोकतंत्र समय समय पर साबित करता रहता है। पांच राज्यों के चुनाव फिर इसकी कसौटी बन गए हैं।

योगेश मिश्र

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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