बेल पर रिहाई को 'बाइज्जत' रिहाई न समझें दंगाई, मानवीय आधारों पर मिलती है रिहाई

दिल्ली में साल 2020 के फरवरी महीने में हुए सांप्रदायिक दंगों को उकसाने के दोषियों देवांगना कालिता, नताश नरवाल और आसिफ इकबाल तनहा को दिल्ली हार्ई कोर्ट से बेल मिल गई।

Written By :  RK Sinha
Published By :  Shweta
Update:2021-06-19 17:19 IST

कॉन्सेप्ट फोटो ( फोटो साभार सोशल मीडिया)

दिल्ली में साल 2020 के फरवरी महीने में हुए सांप्रदायिक दंगों को उकसाने के दोषियों देवांगना कालिता, नताश नरवाल और आसिफ इकबाल तनहा को दिल्ली हार्ई कोर्ट से बेल मिल गई। इसके बाद इन तीनों को तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया है। इन सबको सांप्रदायिक दंगों से जुड़े मामले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून के तहत मई 2020 में गिरफ्तार किया गया था। उन दंगों में लगभग 53 लोगों की जानें गईं थीं और हजारों करोडो की संपत्ति स्वाहा हो गई थी। ये दंगे जानबूझ कर उस वक्त करवाये गये थे जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के सरकारी दौरे पर थे। दंगों के कारण अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा तो जैसे नेपथ्य में चली गई थी।

इन तीनों को बेल मिली तो सोशल मीडिया पर कुछ लोग सारे मामले को इस तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं कि ये सब बरी कर दिए गए हैं। ये तीनों भी जेल से बाहर निकलते हुए खुद भी नारेबाजी कर रहे हैं। इनके साथियों ने अपने हाथों में जो बैनर लिए हुए हैं,उनमें उमर खालिद तथा शरजील इमाम को रिहा करने की मांग की गई है। ये दोनों अभी भी जेल में हैं। पहले तो ये जान लेते हैं कि किसी अभियुक्त को बेल मिलने का मतलब यह तो नहीं होता कि उसे कोर्ट ने दोषमुक्त घोषित कर दिया। जमानत तो मेडिकल, उम्र और अनेकों मानवीय आधारों पर दोषियों का हक है। उसी हक क तहत इन सबकों जमानत मिली है। नताशा नरवाल को कुछ समय पहले भी अपने पिता की मृत्यु के समय जमानत पर जेल से छोड़ा गया था। अब ये भी देश जान ले कि ये किन आरोपों के तहत जेल में हैं। देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा को लेकर दिल्ली पुलिस की चार्जशीट कहती है कि 2020 में हुए दंगों के पीछे इनकी भी सक्रिय भूमिका थी।

अगर बात देवांगना कलिता की करें तो वह कहने को तो जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिर्टी ( जेएनयू) से एम फिल कर रही हैं। लेकिन, उस पर आरोप है कि उसने दंगों के दूसरे 'साजिशकर्ताओं' के साथ मिलकर मुस्लिम बहुल इलाकों में रहने वाले लोगों को गलत ढंग से भ्रम फैलाकर भड़काया, खासतौर पर महिलाओं को और उनमें 'उत्पीड़न' की भावना भरी, जिसके चलते हिंसा और दंगा भड़के। अब बात करें नताशा नरवाल की। हरियाणा की रहने वाली नताशा भी जेएनयू से पढ़ाई कर रही हैं। उसने बीए और एमए की पढ़ाई दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज से पूरी की। अंत में बात करते हैं आसिफ इकबाल तन्हा की। वह जामिया मिलिया इस्लानमिया यूनिवर्सिटी से बीए (ऑनर्स) फारसी की पढ़ाई कर रहा है। उस पर हिंसा भड़काने में अहम भूमिका के आरोप हैं। निचली अदालत ने कहा था कि आरोप सत्य प्रतीत होते हैं। दिल्ली पुलिस के अनुसार, तन्हा स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन का सदस्य है। पुलिस ने उसे उमर खालिद, मीरान हैदर, सफूरा जरगर का करीबी साथी बताया है।

अत: साफ है कि तीनों पर लगे आरोप बेहद गंभीर हैं। इसके बावजूद हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस के विरोध के बाद भी इन्हें किसी न किसी आधार पर जमानत पर रिहा कर दिया। दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाने का वैसे तो कोई मतलब नहीं है। पर दिल्ली पुलिस ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील भी दायर की है। दिल्ली पुलिस ने कहा है कि हाईकोर्ट ने मामले का इस तरह से निपटारा किया जैसे कि छात्रों द्वारा विरोध का एक हल्का सा मामला हो। अगर पुलिस के दावों को मानें तो अभियुक्तों को जमानत देते वक्त हाईकोर्ट ने सबूतों और बयानों पर पूरी तरह से ध्यान ही नहीं दिया, जबकि स्पष्ट रूप से तीनों आरोपियों द्वारा अन्य सह-साजिशकर्ताओं के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर दंगों के आयोजन की एक भयावह साजिश रची गई थी।

देखिए इस केस में फैसला आने में तो अभी वक्त लगेगा। अभी तो केस हाई कोर्ट में ही है। फिलहाल हैरानी कि वजह यह है कि सामान्य जमानत को "बाइज्जत रिहाई " की तरह से पेश किया जाना। दूसरी चिंता की बात यह है कि जो देवांगना कालिता, नताश नरवाल और आसिफ इकबाल तनहा के हितैषी जेल के बाहर इनका स्वागत करने के लिए आए थे, वे उमर खालिद और शरजील इमाम की रिहाई की मांग में नारेबाजी भी कर रहे थे। इसका क्या मतलब है? क्या नारेबाजी करने से या पोस्टर हाथ में ले लेने से गंभीर आरोपों के कारण जेल में बंद अभियुक्तों को रिहा किया जा सकता है? उमर खालिद पर दिल्ली दंगों में रही उनकी खतरनाक भूमिका के चलते केस चल रहा है। उमर खालिद बेहद शातिर इंसान है। वह पहले भी जेएनयू कैंपस में हिंदू देवी देवताओं की आपत्तिजनक तस्वीरें लगाकर नफरतें भी फैलाता रहता था। खालिद उस कार्यक्रम में भी शामिल था जब आतंकी अफजल की फांसी पर जेएनयू कैंपस में मातम मनाया गया था। खालिद कई मौकों पर कश्मीर की आजादी की बेबुनियाद मांग को भी उठाता रहा था। आरोप है कि जेएनयू में 26 जनवरी, 2015 को 'इंटरनेशनल फूड फेस्टिवल' के बहाने कश्मीर को अलग देश दिखाकर उसका स्टॉल लगाया गया।

अब आप समझ सकते हैं कि वह कितना शातिर किस्म का इंसान है। उमर खालिद की दिल्ली दंगों को भड़काने में निर्णायक भूंमिका थी। उमर खालिद पर आरोप है कि वह 24 फरवरी 2020 को मुसलमानों को स़ड़कों पर गैरकानूनी तरीके से जाम लगाने का आहवान कर रहा था, जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दिल्ली में थे। उसे शरजील इमाम जैसे जेएनयू में ही रह रहा एक अन्य देश विरोधी छात्र का भी साथ मिल रहा था। उस शरजील इमाम को भी रिहा करने की मांग हो रही है, जो गांधीजी को फासिस्ट कहता है। वह एक वीडियो में कह रहा- " 20वीं सदी का सबसे बड़ा फासिस्ट लीडर गांधी ख़ुद है। कांग्रेस को हिंदू पार्टी किसने बनाया?" शाहीन बाग धरने का हिस्सा था शरजील इमाम। वह गर्व से ख़ुद को शाहीन बाग़ में चले विरोध प्रदर्शन का आयोजक भी बताता था। शरजील इमाम कहता था "अगर हमें असम के लोगों की मदद करनी है, तो उसे भारत से काट देना होगा।" इमाम खुल्लम खुल्ला झूठ बयाँ कर रहा था, " असम में जो मुसलमानों का हाल है, आपको पता है। सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून) लागू हो गया वहां। डिटेंशन कैंप में लोग डाले जा रहे हैं। वहां क़त्ल-ए-आम चल रहा है। छह-आठ महीने में पता चला सारे बंगालियों को मार दिया, हिंदू हो या मुसलमान।" वह साफ झूठ बोल कर मुसलमानों को भड़का रहा था।अपने साथियों को जमानत मिलने पर गदगद बहुत से लोग घोर देश विरोधी तत्वों की जेल से रिहाई के लिए बेताब है। फिलहाल तो वे बस इतना ही जान लें कि बेल का मतलब बरी होना नहीं होता।बेल तो जेल से अस्थायी रूप से बहार आना भर ही है I

(लेखक वरिष्ठ स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

Tags:    

Similar News