पिछले दिनों विकास से जुड़ी दो प्रमुख खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बनीं। पहली खबर का सम्बन्ध हिमालयी राज्य परिषद के गठन से है। दूसरी खबर नोएडा को प्रयागराज तक जल मार्ग से जोडऩे की है। पहली खबर का सम्बन्ध हिमालयी राज्यों के समन्वित और सतत विकास के लिये काम करना है वहीं दूसरी खबर का सम्बन्ध कम किराए में नदी मार्ग द्वारा परिवहन तथा पर्यटन का विकास है।
हिमालयी राज्य परिषद में उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और असम तथा पश्चिम बंगाल के दो-दो जिले सम्मिलित रहेंगे। महत्वपूर्ण है कि इस परिषद की कमान नीति आयोग के सदस्य के पास रहेगी। यह परिषद जलस्रोतों को सूचीबद्ध कर उनका पुनरुद्धार करेगी, पर्वतीय क्षेत्र की खेती की तकनीक में आमूल-चूल बदलाव करने के लिये काम करेगी, टिकाऊ कौशल विकास करेगी तथा हिमालय की भौगोलिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय पारिस्थितियों के अनुसार पर्यटन विकास तथा पर्यटन नीति को अमलीजामा पहनाएगी। जाहिर है उस कच्चे पहाड़ी इलाके के सतत तथा टिकाऊ विकास में मुख्य भूमिका पर्यावरण के कायदे-कानूनों के पालन की ही होगी।
भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने नोएडा से प्रयागराज तक के 1089 किलोमीटर लम्बे जलमार्ग को अमली जामा पहनाने के लिये उसकी विस्तृत कार्ययोजना पर काम प्रारम्भ कर दिया है। यमुना पर स्थित यह जलमार्ग नोएडा से प्रारम्भ होगा और मथुरा तथा ताजनगरी आगरा होते हुए प्रयागराज पर समाप्त होगा। यह जलमार्ग अन्तत: नोएडा को गंगा की मदद से पश्चिम बंगाल के हल्दिया से जोड़ेगा। इसके प्रारम्भ होते ही देश को एक वैकल्पिक जलमार्ग उपलब्ध होगा।
कुछ ही दिन पहले वाराणसी में रामनगर स्थित मल्टी मॉडल टर्मिनल का उद्घाटन हुआ है। यह पहल इंगित करती है कि फिलहाल सबसे अधिक जोर गंगा नदी के जलमार्ग को धरातल पर उतारने पर है। उसके बनने के बाद भारत तथा बांग्लादेश के मध्य जलमार्ग पर मालवाहक जहाजों या क्रूज़ का संचालन होगा। कोलकाता-ढाका और बांग्लादेश होते हुए गुवाहाटी-जोराहाट के बीच क्रूज़ आधारित परिवहन व्यवस्था अमल में आएगी। भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण की मौजूदा प्लानिंग के अनुसार भविष्य में देश की दस बड़ी नदियों पर भी राष्ट्रीय जलमार्ग बनाए जाएँगे। जल परिवहन के क्षेत्र में यह लम्बी छलांग होगी। नई इबारत होगी।
सभी जानते हैं कि मालवाहक जहाजों को चलाने के लिये उनकी आवश्यकता के अनुसार उपयुक्त चौड़ाई तथा गहराई वाला बारहमासी जलमार्ग चाहिए। अर्थात गर्मी के मौसम में भी पानी, न्यूनतम गहराई तथा उपयुक्त चौड़ाई का होना आवश्यक है। उस न्यूनतम गहराई को बनाए रखने के लिये पानी और समय-समय पर गाद के निपटान की टिकाऊ व्यवस्था जरूरी है।
हिमालयी राज्य परिषद का कार्यक्षेत्र हिमालय है। हिमालय क्षेत्र में उसकी जिम्मेदारी पानी, खेती और पर्यटन से जुड़े एजेंडे पर काम करने की है। निश्चित ही काम जन हितैषी होना चाहिए ताकि उनके क्रियान्वयन से समाज की आर्थिक स्थिति में पुख्ता तथा स्थायी सुधार हो। इसलिए परिषद के एजेंडे का चेहरा मानवीय होना चाहिए। हिमालय क्षेत्र में पानी, स्थानीय भूगोल को बदलता है और मुख्यत: गाद का निपटान करता है। उस भूमिका को अंजाम तक ले जाने में हिमालय के पहाड़ पूरी तरह मदद करते हैं। सभी जानते हैं कि हिमालय के कच्चे पहाड़ बहुत बड़ी मात्रा में गाद पैदा करते हैं। नदियाँ उसे नीचे ले जाती हैं। इस कारण हिमालयी राज्य परिषद को अपने एजेंडे पर काम करते समय स्थानीय भूगोल और पानी तथा गाद के गणित को समझना होगा। साथ ही, पिछले अनुभवों की रोशनी में कतिपय कमियों को दूर करना होगा। गौरतलब है कि मौजूदा मॉडल कुदरत के अनेक कायदे-कानूनों का पालन नहीं करता। उसे बदल कर कुदरत से तालमेल बिठा कर टिकाऊ विकास की राह पकडऩी होगी। कुदरती मॉडल हमेशा कम खर्चीला मॉडल होता है। उस मॉडल का रख-रखाव सबसे अधिक सस्ता होता है। वह मॉडल टिकाऊ होता है। वही मॉडल हिमालय की परिस्थितियों में सफल होगा। इस कारण प्लानिंग करते समय वही काम प्रस्तावित होना चाहिए जो कुदरत से तालमेल बनाकर समाज को आगे ले जा सकते हैं।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि टैक्स देकर, विकास की कीमत समाज ही चुकाता है। वही रख-रखाव और गलतियों की कीमत चुकाता है। इसलिये लाभों पर पहला हक समाज का है। उसका यह हक सुनिश्चित होना चाहिए। गलतियों से मुक्ति चाहिए। अब कुछ मोटी-मोटी बात गंगा और यमुना के जलमार्ग की कुदरती चुनौतियों की।
उल्लेखनीय है कि गंगा नदी द्वारा हर साल लगभग दो सौ नब्बे करोड़ टन मलबा बंगाल की खाड़ी में उड़ेला जाता है। यह मलबा उसे उसकी सहायक नदियाँ उपलब्ध कराती हैं। उसकी सहायक नदियों का उद्गम हिमालय और भारत के प्रायद्वीप में है। दोनों ही स्रोतों से मलबा आता है। जहाँ तक यमुना का सवाल है तो कमी-वेशी उसके मलबे का भी वही स्रोत है। उसकी बहुत सी नदियाँ मध्य प्रदेश से आती हैं। जो नदियाँ भिंड-मुरैना से आती हैं वे अपने साथ बीहड़ की बहुत सारी गाद भी लाती हैं।
अत: आवश्यक है कि गंगा और यमुना में हर साल आने वाले मलबे का सुरक्षित निपटान किया जाये। यह बहुत बड़ी चुनौती है। उचित होगा कि फरक्का बाँध के कारण गंगा में जमा हो रही गाद के समाधान के साथ-साथ भारतीय अन्तरदेशीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा इस नई सम्भावित समस्या का हल खोजा जाये। गौरतलब है कि गंगा में प्रवाहित होने वाली गाद का निपटान उसके कछार में नहीं हो सकता। यदि उसे नदी की तली में जमने दिया तो कालान्तर में सारा जलमार्ग और परिवहन व्यवस्था आईसीयू में मिलेगी। समाज अपने को ठगा महसूस करेगा।
यमुना तथा गंगा नदी को पानी की आपूर्ति उसकी सहायक नदियों, बर्फ के पिघलने तथा उथले एक्वीफर होते हैं। जलवायु बदलाव तथा भूजल दोहन एवं वन विनाश जैसे कारणों से यह आपूर्ति साल-दर-साल घट रही है। सूखे दिनों में, यमुना की सहायक नदियाँ जो भारतीय प्रायद्वीप से निकलती हैं, में पानी की गम्भीर कमी हो जाती है। इस कमी का इलाज खोजे बिना यमुना जलमार्ग में पानी और गहराई बनाए रखना क्रमश: बढ़ती चुनौती होगा।
यह समस्या केवल जलमार्ग पर प्रस्तावित परिवहन की नहीं है वह पूरे नदी तंत्र, उसकी बायोडायवर्सिटी तथा उस पर आधारित विकास को इष्टतम स्तर पर बनाए रखने की भी है। उस पर होने वाले खर्च की भी है। सभी जानते हैं कि योजना निर्माण से लेकर उसके पूरा होने तक और उसके रख-रखाव से लेकर अप्रत्याशित हादसों तक की कीमत समाज चुकाता है। इस कारण आवश्यक है कि हर प्लानिंग तथा क्रियान्वयन का चेहरा मानवीय हो। विकास का मोल समाज की टैक्स चुकाने की सीमा में हो।
(इंडिया वाटर पोर्टल)