मौजूदा समय देश की एकता और अखंडता के सवाल का है। यह स्थिति एक दिन में नहीं बनी है। लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर की सत्ता पर या तो फारुख अब्दुल्ला का परिवार हावी रहा या मुफ्ती मोहम्मद सईद का। केंद्र में कांग्रेस की सत्ता भी करेले पर नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ करती रही। यह कहने में किसी को भी गुरेज नहीं होगा कि कश्मीर घाटी में आतंकवाद जितना पाकिस्तान प्रायोजित है, उतना ही इन दोनों परिवारों द्वारा पालित और पोषित भी है। स्थानीय नेताओं के संरक्षण में आतंकवादी कश्मीर में पनाह पाते रहे हैं। अलगाववादी नेताओं और दहशतगर्दों से भी फारुख और मुफ्ती परिवार के मधुर रिश्ते रहे हैं। तभी तो उनकी सुरक्षा और सहूलियतों का मुकम्मल ध्यान इन दलों द्वारा रखा गया। फारुख अब्दुल्ला यह कह रहे हैं कि कश्मीर समस्या में मुसलमानों का हाथ नहीं था, यह पाकिस्तान की साजिश थी।
सवाल यह है कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म क्या पाकिस्तान ने किया? उन पर कहर ढाने का काम तो कश्मीरी मुसलमानों ने ही किया था। अगर एकबारगी उनकी इस दलील को स्वीकार भी कर लिया जाए तो पाकिस्तान के साजिश वाले हाथों को तोडऩे की दिशा में आपने क्या किया? आप तो उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। मुख्यमंत्री सबका होता है,वह किसी जाति-धर्म का नहीं होता। इतनी सी बात का भी अगर फारुख अब्दुल्ला ने ध्यान रखा होता तो क्या कश्मीर से लाखों कश्मीरियों को पलायन करना पड़ता? खता लम्हों की होती है,भुगतान पड़ता है सदियों को। फारुख अब्दुल्ला ने वह किया है,जिसकी कोई भी माफी नहीं है। आज उमर अब्दुल्ला को भी राज्यपाल सत्यपाल मलिक की बात पर गुस्सा आ रहा है। वह कश्मीर के हालात से अपने और महबूबा को जोड़े जाने से नाराज हैं, लेकिन इससे सच्चाई बदल तो नहीं जाती।
फारुख और उमर अब्दुल्ला पाकिस्तान का नाम लेकर अपने कर्मों पर पर्दा नहीं डाल सकते। फारुख अब्दुल्ला सवाल कर रहे हैं कि अलगाववादियों से सरकारी सुरक्षा वापस ले लिए जाने के बाद क्या हालात सामान्य हो जाएंगे। पत्थरबाजों में भी उन्हें शायद मुसलमान नजर नहीं आते होंगे। उन्हें तो धन्यवाद कहना चाहिए कि आरपीएफ और राष्ट्रीय राइफल्स के अधिकारियों का कि वे पत्थर खाकर भी पत्थरबाजों के जीवन की रक्षा कर रहे हैं। जिस पुलवामा को लेकर आज पूरा देश चिंतित है उसी पुलवामा में आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-इस्लाम ने जगह-जगह पोस्टर लगाए थे, जिनमें कहा गया था कि कश्मीरी पंडित या तो घाटी छोड़ दें या फिर मरने के लिए तैयार रहें। कश्मीर में वर्ष 1990 में हथियारबंद आंदोलन शुरू होने के बाद से लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर-बार छोडक़र चले गए थे। उस वक्त सैकड़ों पंडितों का कत्लेआम हुआ था।
1987 से 1990 में राष्ट्रपति शासन लगने तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ही थे। केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी। फारुख अब्दुल्ला ने दहशतगर्दों और उन्मादी कश्मीरी मुसलमानों के सामने हथियार डाल दिए थे या कश्मीरी हिंदुओं पर हो रहे जुल्मो सितम को देखकर भी अपनी आंखें बंद कर ली थी। इसके बाद भी फारुख अब्दुल्ला यह कहने का साहस कर पाते हैं कि कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन में मुसलमानों की भूमिका नहीं थी। यह पाकिस्तान की साजिश थी। सबकुछ अगर पाकिस्तान ही कर रहा था तो बतौर मुख्यमंत्री आप क्या कर रहे थे? हालात को नियंत्रण करने के लिए जब वहां जगमोहन को दोबारा राज्यपाल बनाकर भेजा गया था तो यही फारुख अब्दुल्ला थे जिन्होंने अपने पद से 1990 में इस्तीफा दे दिया था। जो महबूबा मुफ्ती जम्मू-कश्मीर और हिंदू-मुस्लिम के मुद्दे उछाल रही हैं, पुलवामा उन्हीं का निर्वाचन क्षेत्र है। उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र में क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, अगर वह इतना भी विचार कर लेतीं तो भी समस्या का जन्म न होता।
घाटी में कश्मीरी पंडितों के बुरे दिनों की शुरुआत 14 सितंबर 1989 से हुई थी। आतंक के उस दौर में अधिकतर हिंदू नेताओं को मौत की नींद सुला दिया गया। तत्कालीन मीडिया रिपोट्र्स पर गौर करें तो आतंकियों ने सभी कश्मीरियों से कहा था कि इस्लामिक ड्रेस कोड ही अपनाएं। कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया गया, जिसमें लिखा था या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो। यह सच है कि पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भी उन दिनों टीवी पर कश्मीरी मुस्लिमों को भारत से अलग होने के लिए भडक़ा रही थीं।
हिंदू मिटाओ-हिंदू भगाओ अभियान चलाने से पहले 1984 से 86 के बीच में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के मुस्लिम जिहादियों को भारतीय कश्मीर में बसाया गया था और घाटी में जनसंख्या संतुलन मुस्लिम जिहादियों के पक्ष में बनाकर हिन्दुओं पर हमले शुरू करवाए गए थे। क्या इससे भी फारुख अब्दुल्ला इनकार कर पाएंगे कि ये सब पाकिस्तान के इशारे पर हुआ था। कहना न होगा कि उनका परिवार उस समय पाकिस्तान के षड्यंत्र में बराबर का सहभागी था। अगर यह कहें कि कश्मीर की बर्बादी में पाकिस्तान से ज्यादा वहां की हिन्दू विरोधी सेक्युलर सरकारों का योगदान रहा है तो कदाचित यह गलत नहीं होगा। मौजूदा समय हिन्दू-मुसलमान के विवाद में फंसने के नहीं है। यह समय सबके साथ और सबके विकास का है। फारुख अब्दुल्ला को हवा का रुख बदलने और देश को गुमराह करने की बजाय अपने पूर्व कर्मों का प्रायश्चित करना चाहिए था।