लोकमान्यता है कि अनाचार तभी तक बढ़ता है,जब तक उसका प्रतिकार नहीं होता। आतंकवाद और अशिक्षा के खिलाफ भारत की नरेंद्र मोदी सरकार ने जो मुहिम छेड़ी है, उसका असर दुनिया के बाकी देशों में भी नजर आने लगा है। आतंक और अशांति के खिलाफ जनता की आवाज मुखर होने लगी है। पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने भी अपने देश की शिक्षा प्रणाली पर यह कहते हुए सवाल खड़ा किया है कि मदरसों में पढऩे वाले बच्चे मौलवी बनेंगे या आतंकवादी। यह सवाल पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों के लिए भी प्रासंगिक है। भारत सरकार ने इसीलिए मदरसों में दी जाने वाली मजहबी शिक्षा में पहले ही आधुनिक तकनीकी शिक्षण के समावेश पर बल दिया है।
इससे नाराज मौलाना मदनी ने तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुली चेतावनी दे डाली थी कि वे एक भी मदरसे को छू नहीं सकते। सरकार को तो कायदे से यह भी पता नहीं था कि देश में कितने मदरसे चल रहे हैं। मदरसा शिक्षा परिषदों ने बेवसाइट बनाई और उस पर मदरसों के पंजीकरण का निर्देश दिया गया। अकेले उत्तर प्रदेश में 16 हजार से अधिक मदरसों ने पंजीकरण कराया है जबकि इतने ही और मदरसे हैं जो पंजीकरण कराने को तैयार नहीं हैं। इसके पीछे वह विदेशी इमदाद भी है जिसका खुलासा ज्यादातर मदरसा संचालक करना नहीं चाहते। असम के मदरसा शिक्षा बोर्ड के अंतर्गत 700 से ज्यादा मदरसे हैं जबकि सरकार के पास खेराजी मदरसों की संख्या का सटीक आंकड़ा नहीं है। देश भर में मदरसों की तादाद तकरीबन एक लाख हो सकती है। हालांकि अधिकृत तौर पर ऐसा नहीं कहा जा सकता।
एक सर्वे की मानें तो 2050 तक भारत में मुस्लिम आबादी 32 करोड़ से अधिक हो सकती है। ऐसे में इतनी बड़ी आबादी को आधुनिक शिक्षा तो देनी ही होगी। मोदी सरकार की मदरसा नीति को कमोवेश इसी रोशनी में देखा जा सकता है। हाल ही में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम धर्माचार्यों ने तीन तलाक कानून से निपटने के लिए कुछ ऐसे नियम बनाए हैं जिसमें शादी के दौरान ही ताजिंदगी एक साथ तीन तलाक न बोलने की शपथ दिलाई जाएगी। मुसलमानों को जागरूक करने के लिए मस्जिदों के इमामों को तैयार किया जा रहा है। सामाजिक बदलाव के इस संकेत का स्वागत किया जा सकता है।
कानपुर से 70 किमी दूर हजरत जिंदा शाह की दरगाह पर जिंदादिली की बात हुई। अन्तर्राष्ट्रीय सूफी सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें जेहाद के नाम पर होने वाले रक्तपात की निंदा की गई। सूफिज्म को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया। दुनिया भर के सूफी सन्तों ने दहशतगर्दी को इस्लाम विरोधी बताया और सभी देशों के शांतिप्रिय लोगों से अपील की कि वे इसके खिलाफ खड़े हों। अफगानिस्तान के सूफी औलिया जरीफ चिश्ती ने हुक्मरानों को नसीहत दी कि दुनिया को जीतने के लिए मिसाइल की नहीं, मानवीय मूल्यों की रक्षा की जरूरत है। युवा ही दुनिया को बदल सकते हैं। मदरसों और अन्य धाॢमक स्थलों के स्तर पर उनका मार्गदर्शन हो। अपनी दुकान चलाने के लिए कुछ तथाकथित धर्मगुरुओं के कट्टरवादी रुख पर भी उन्होंने चिंता जाहिर की। सम्मेलन में यह सवाल भी उठा कि कुछ तथाकथित धर्मगुरु मानवता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।
सूफी सम्मेलन में कश्मीर के मौजूदा हालात पर भी चिंता जताई गई। यह भी कहा गया कि कश्मीर सूफी आन्दोलन से संबद्ध रहा है। आज यहां पत्थरबाजों की वजह से अशांति है। कश्मीरियों को सूफी सन्तों की बात सुननी चाहिए। अंदर के शैतान को मारने को असल जेहाद और इंसानियत की रक्षा को असल मजहब कहा गया। आज जब दुनिया के कई देश आतंकवाद से त्रस्त हैं तब हजरत जिंदा शाह की दरगाह पर इस तरह का आयोजन उम्मीद की रोशनी तो दिखाता ही है।
भारत में अन्तर्राष्ट्रीय सूफी सम्मेलन का यह आयोजन पहला और अंतिम नहीं है। वर्ष 2016 में देश की राजधानी दिल्ली में भी अन्तर्राष्ट्रीय सूफी सम्मेलन हुआ था और कुछ इसी तरह की बातें कही गई थीं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। सूफी दरगाहों पर हमले इस्लामिक देशों में खूब हो रहे हैं। कश्मीर तो सूफी विचारधारा में यकीन रखने वालों का गढ़ ही रहा है, लेकिन वहां के 60 लाख मुसलमानों में से दस लाख का झुकाव हदीस की ओर होना सूफी संतों की परेशानी का सबब तो है ही। कश्मीर के एक सूफी संत मौलवी सरजन बरकती ने भी गत दिनों हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी का गुणगान किया था और लोगों को उसके समर्थन के लिए प्रेरित किया था। कश्मीरियों के बीच वे ‘फ्रीडम चाचा’ के रूप में लोकप्रिय हैं। दुनिया के किसी भी सूफी संत ने आज तक सरजन बरकती का विरोध नहीं किया। इसे मानसिक दुर्बलता कहेंगे या अपनी सुविधा का संतुलन।
कश्मीर में मस्जिद और मोबाइल ही हिंसा और बगावत की वजह हैं। दक्षिण कश्मीर की एक मस्जिद में मुफ्ती शब्बीर अहमद कासमी ने अपनी तकरीर में हिज्बुल कमांडर जाकिर मूसा के इस्लामिक जिहाद की अपील को समर्थन दिया था। कश्मीर में पहली बार किसी धर्मगुरु ने मस्जिद का प्रयोग कश्मीर के मोस्ट वॉन्टेड अलकायदा से संबद्ध आतंकवादी के समर्थन में किया। यूं तो घाटी में 1989 के बाद से ही मस्जिदों का इस्तेमाल अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए होने लगा था, लेकिन हाल के कुछ वर्षों में मस्जिदों और मदरसों की भूमिका पर निरंतर सवाल उठ रहे हैं। इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बहुत सारी मस्जिद और मदरसे ऐसे भी हैं जो देशहित में बहुत अच्छा काम भी कर रहे हैं।
धर्मस्थल देश की व्यापक जनजागृति के केंद्र हैं। ये पूजा-उपासना के केंद्र ही नहीं, मानवीय शिष्टाचार के विकास और विस्तार के आधार स्तंभ भी हैं। समाज को सही राह पर ले जाना दरअसल इन्हीं का दायित्व है। जब तक ये अपना दायित्व ठीक से निभाते रहे, देश सोने की चिडिय़ा रहा। शांति और सद्भावना बनी रही, लेकिन धर्मस्थलों पर देश के हितों की चिंता का बोझ अब शायद नहीं रहा। भारत सर्वधर्मसमभाव के लिए जाना जाता है। भारत में सर्वाधिक आबादी हिंदुओं की है। सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध, पारसी और इस्लाम धर्म से जुड़े लोग भी शान से यहंा रहते हैं,लेकिन लगता है कि इन दिनों भारत को बुरी नजर लग गई है। अपना कुनबा बढ़ाने और अपने धाॢमक सिद्धांतों को वरीयता देने के लिए देश में धर्मांतरण के खेल भी खूब खेले जा रहे हैं।
देश में जितने मंदिर हैं, उससे कम मस्जिद और मदरसे भी नहीं है। राजमार्गों पर जहां देखिए, वहीं कोई न कोई मजार और मस्जिद बनी पड़ी है। शहर ही नहीं, गांव क्षेत्रों में भी मस्जिदों की तादाद बढ़ रही है। गिरिजाघरों की भूमिका पर भी सवाल उठते रहे हैं। उन्हें भी बाहर के देशों से मदद मिलती रही है। भारत सरकार के बाद चर्च के पास सर्वाधिक भूमि है और वह भी शहरों के पाश इलाकों में। गिरिजाघरों ने भारत में कितनी संपति इकट्ठी की है, इसकी निगरानी का यहां कोई नियम नहीं है। धर्मस्थल अगर अपनी जिम्मेदारी आसानी से निभा दें तो देश की अनेक समस्याओं का समाधान चुटकी बजाकर हल किया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)