‘हाँ दादा पायलागी! कैसे हैं...? कल जैसे ही दुकान के शुभारंभ का समाचार मिला मन प्रसन्न हो गया। अब आऊँगा तो लडडू जरूर खाऊँगा...सब आपकी कृपा है...जी हाँ जी हाँ...।’
दूरभाष पर कवि मित्र की दूर शहर में रहने वाले एक वरिष्ठ कवि से बातचीत हो रही है। कवि मित्र बात करते समय यों झुके हुए थे, मानो चरण स्पर्श करने के बाद रीढ़ सीधी करने का समय ही नहीं मिल पा रहा हो। वास्तव में वे एक ऐसे सज्जन से बात करने में लगे थे जिनकी पहुंच पुरस्कार/चयन समितियों में अच्छी थी, और जो जुगाड़मेंट के क्षेत्र में माहिर माने जाते थे। कवि मित्र को जैसे ही पता लगा कि इन सज्जन के तीसरे बेटे ने फोटोकॉपी की दुकान खोली है, उन्होंने तुरंत अवसर का लाभ उठाया और दूरसंचार विभाग के तारों पर सवार होकर उनके पाँव छू लिए।
बात पूरी कर मेरे पास आकर बैठते हुए बोले, ‘बुढ्ढ बहुत खुर्राट है, पर क्या करें! साहित्य के क्षेत्र में जमना है तो ऐसे लोगों के पाँव छूने ही पड़ेंगे।’ मैंने देखा उनके चेहरे पर चंद मिनटों पहले जला हुआ खुशी का बल्ब फक्क से बुझ गया था और वे कडक़ड़ा रहे थे। बाद में बड़ी देर तक तथाकथित ‘खुर्राट बुढ्ढ’ को गालियां देते रहे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उनकी वह खुशी वास्तविक थी या यह गुस्सा वास्तविक है। यह तो जाहिर है कि उनके कथन में कुछ न कुछ असत्य अवश्य था।
सच पूछा जाए तो जीवन में हर आदमी कभी न कभी झूठ बोलता है। झूठ की अपनी महत्ता, अपनी उपयोगिता है। सत्य बोलने वाले लोग सतयुग में भी बहुत कम रहे होंगे इसलिए तो राजा हरिश्चंद्र का ‘सत्यवादी’ होना आज तक याद किया जाता है। धर्मराज युधिष्ठिर का छदम सत्य ‘अश्वत्थामा हत: नरो वा कुंजरो वा’ पुराण प्रसिद्ध है। और तो और बहुत सारे पौराणिक पात्र तो झूठा(छद्म) रूप भी धारण करते थे। गौतम ऋषि नदी पर स्नान के लिए गए तो एक देवता ने तुरंत गौतम ऋषि का डबल रोल लिया व पहुंच गए अहिल्या के समीप। बाकी की कथा आपको मालूम ही है।
झूठ का विकास मानव सभ्यता के विकास के साथ हुआ। जब मानव असभ्य था वह सत्य के नजदीक था, जब वह सभ्य हो गया, सत्य से दूर हो गया। अत्याधुनिक व्यक्ति अत्यधिक झूठ बोलता है। कहते हैं ‘झूठ के पाँव नहीं होते।’ शायद इसीलिए वह उडक़र कभी भी, कहीं भी पहुँच जाता है। झूठ की व्यापकता इतनी है कि यह दुनिया के सभी देशों में अपनी जड़ें जमा चुका है। यह भी ‘बिन पग चले, सुने बिनु काना’ की स्थिति में आ गया है। एक पुराना लोकगीत है, ‘झूठ बोले कौवा काटे, काले कौवे से डरियो’ जिस पर एक फिल्मी गीत की रचना हुई थी। मुझे आज तक किसी कौवे ने नहीं काटा, इसका मतलब यह हुआ कि या तो यह बात झूठी है या आजकल झूठों की बढ़ती ताकत को देखकर कौवों में काँटने की हिम्मत नहीं रही।
भारतीय चिंतन में ‘मनसा वाचा कर्मणा’ को बहुत महत्व दिया गया है जिसका अर्थ है ‘जो मन में है वही कहो और जो कहा है वही करो।’ गोकुल की गोपी बिना किसी लाग लपेट के कहती है ‘मन मोहना. . .बड़े झूठे’। आज स्थिति ठीक उल्टी हो गई है। जो मन में है उसे जुबाँ पर बिलकुल मत आने दो, और जो कह दिया वैसा तो बिल्कुल मत करो। जब कोई नेता कहता है ‘मैं पार्टी छोडऩे की बात सोच भी नहीं सकता।’ तो जनता समझ जाती है कि उसने वर्तमान पार्टी छोडक़र दूसरी पार्टी में घुसने की जोड़तोड़ शुरू कर दी है। या जब पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढऩे का खंडन करें तो जनता ताड़ जाती है कि पेट्रोल - डीजल महँगा होने वाला है।
सुनते हैं पहले आदमी इतना सच्चा होता था कि झूठ पकड़े जाने पर उसका चेहरा फक्क हो जाता था। जब झूठ बढऩे लगा तो झूठ पकडऩे की मशीन ईजाद की गई। आजकल तो कई लोगों ने इस मशीन पर भी उसी तरह विजय पा ली है जैसे मच्छरों ने डीडीटी पर या मलेरिया परजीवी ने ब्लड टेस्ट पर। एक समय एक विशेष प्रकार के झूठ का नामकरण भी हुआ था ‘सफेद झूठ।’ इसमें व्यक्ति इतनी होशियारी से झूठ बोलता था कि उसकी शिनाख्त ही नहीं हो पाती थी और सुनने वाला उसे पूरी तरह सच्चा समझ लेता था। ‘सफेद झूठ’ ने लंबे समय तक संवादों, लेखों, कहानियों में अपना स्थान बना कर रखा।
सभी बदलने के साथ अब इस मामले में भी प्रगति हुई है। झूठ की, और झूठ बोलने वालों की नई नई किस्में तैयार होने लगी हैं। पहले रुपहले पर्दे पर जिस अभिनय के आधार पर ‘अभिनय सम्राट’ या ‘ट्रेजेडी किंग’ की उपाधि मिलती थी वह अभिनय अब ढेरों लोग, खासतौर पर, नेतागण करने लगे हैं। मिसाल के तौर पर चुनाव प्रचार के लिए निकला नेता किसी क्षण रुँधे गले से बोलता है, आँखों में आँसू भरकर जार जार रोने लगता है पर कुछ ही क्षणों बाद खुशी से गदगद होकर लोगों को बधाइयाँ देने लग जाता है।
एक निष्णात झूठ जो इन दिनों खूब चल रहा है उसमें नामकरण का प्रश्न भी चर्चाओं और गोष्ठियों में उठाया जा रहा है, मसलन किसी न्यूज चैनल पर कैमरे के सामने मौजूद पार्टी प्रवक्ता कहता है, ‘हम लोगों में कोई मतभेद नहीं हैं, इस मसले पर सभी लोग एक मत हैं।’ सारे दर्शकों को शत प्रतिशत विश्वास होता है कि उसकी बात में जरा-सी भी सत्यता नहीं है। पार्टी में जूतम पैजार चल रही है। फिर भी प्रवक्ता जी के बोलने में अद्वितीय आत्मविश्वास है। वह बार - बार कहते हैं, ‘पार्टी में मतभेदों की बात विरोधियों द्वारा फैलाई गई है, इनमें कोई सच्चाई नहीं है।’ अब इस झूठ को आप क्या नाम देंगे? इसके सामने तो सफेद झूठ भी पानी भरता प्रतीत होता है। अगले दिन वही प्रवक्ता बड़ी शान से घोषणा करता है, ‘पार्टी में अनुशासन बनाए रखने की खातिर चार लोगों को छ: वर्षों के लिए पार्टी से निष्कासित किया जाता है।’
विज्ञापनों की दुनिया ने ‘रेशमी झूठ’ किंवा ‘चमकीले झूठ’ को घर घर में प्रसारित कर दिया है। बुढ़ाते लोग अपने श्वेत केशों को अश्वेत बनाने के लिए विज्ञापनी वस्तुएँ खरीदते हैं व खुद को जवान सिद्ध करते हैं। बालों को काला करने के जादू ने स्त्री पुरुष सभी को सम्मोहित कर रखा है। संधिकाल में जी रही रमणियाँ, जो जवानी को जाने नहीं देना चाहतीं, अपनी त्वचा को रेशमी मुलायम बनाने के प्रसाधनों का भरपूर दोहन कर रही हैं। जन्नत की हकीकत भले ही सबको मालूम हो, दिल को समझाने के लिए थोड़ी सी लीपापोती में बुरा क्या है? आखिर चमकीला झूठ चमक ही बढ़ाएगा ना? सच बोलने में अक्सर ख़तरा रहता है। चोर को चोर या भ्रष्ट को भ्रष्ट कहना कतई समझदारी नहीं है इसलिए चतुर सुजान अपनी वाक्पटुता से बात को सत्य असत्य से परे ले जाते हैं, अपने पाँव पर कुल्हाड़ी नहीं मारते। यदि जरूरी ही हो तो ‘सत्यं ब्रुयात प्रियं ब्रुयात’ की सुरक्षित नीति अपनाते हैं। आखिर ‘राजा नंगा है’ कहने की नासमझी कोई नादान ही करता है। ऐसी ही नादानी व्यंग्यकार करता रहता है, जहाँ विसंगति देखता है तुरंत बोल पड़ता है, पर इस बारे में कुछ बोलना भी बेकार है क्योंकि यदि वह समझदार ही होता तो व्यंग्यकार क्यों बनता?
- डॉ. अखिलेश बार्चे