एक निखलिस समाजवादी का जाना
लोहियावाद के स्तम्भ बाबू भगवती सिंह का आज (4 अप्रैल 2021) लखनऊ में निधन हो गया। निखालिस समाजवादी थे। मृत्यु पर भी परहित.
लोहियावाद के स्तम्भ बाबू भगवती सिंह का आज (4 अप्रैल 2021) लखनऊ में निधन हो गया। निखालिस समाजवादी थे। मृत्यु पर भी परहित ही किया। देहदान कर दिया ताकि उनके अवयवों और अंगों से अपंगों का भला हो सके। संयोग है कि गत माह ही (13 मार्च 2021) को बख्शी का तालाब में उनके निवास पर मिलने गया था। सहायक अजय सिंह भदौरिया ने भेंट करायी थी।
भगवती बाबू के जन्मदिवस (26 अगस्त 2001) पर आयोजित उत्सव पर मेरा लेख प्रसारित हुआ था। मेरी पुस्तक ''मानेंगे नहीं, मारेंगे नहीं'' (प्रकाशक : अनामिका नई दिल्ली) से उद्धृत लेख नीचे प्रस्तुत है:—
मेरे साथ भगवतीजी
''पांच दशक से अधिक हो गये जब बाबू भगवती सिंह जी से पहली बार मेरी भेंट हुई थी। डा. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गठित (1956) सोशलिस्ट पार्टी के मुख्यालय में भगवती बाबू प्रभारी थे। लखनऊ के पानदरीबा-स्थित लीला निवास में तब पार्टी कार्यालय होता था।
उन्हीं दिनों प्रजासोशलिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ था। आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी की अध्यक्षता वाली पीएसपी ने अपने ही महासचिव को पार्टी से निष्कासित कर दिया था, क्योंकि लोहिया ने मांग की थी कि त्रावन्कोर—कोचिन की प्रजासोशलिस्ट सरकार के मुख्यमंत्री पट्टम थानु पिल्लई त्यागपत्र दें। कारण यही कि उनकी सरकार ने शान्त, निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी करा दी थी।
तब (1955) बढ़े सिंचाई दरों के खिलाफ़ सत्याग्रह के दौरान यूपी की जेल में नज़रबंद लोहिया के समर्थन में भगवती बाबू सक्रिय थे। सत्याग्रहियों को संगठित कर रहे थे। उन्हीं संघर्षमय दिनों में भगवती बाबू की संगठनात्मक क्रियाशीलता से मैं अवगत हुआ। हम सब तब लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र थे और विभाजित समाजवादी युवक सभा की नींव डाल रहे थे। उस दौर में दो व्यक्ति पार्टी के आधारभूत स्तंभ थे जिनकी देखरेख में कार्यालय चलता था। पानदरीबा कार्यालय में भगवती बाबू तथा दारूलशफा में राज नारायणजी वाला बी-ब्लाक का 98 नम्बर का कमरा, जहाँ स्व. रमाशंकर गुप्त विधान मण्डलीय कार्य देखते थे।
उसी समय दो खास संघर्ष चलाये गये थे। पहला था विधान भवन के समक्ष किसान रैली जिसे लोहिया ने संबोधित किया था। आयोजन विशाल था। संसाधन शून्य थे। पोस्टर-पर्चें छपाने से लेकर प्रदर्शनकारियों के लखनऊ में प्रवास का प्रबंध आदि करना था। तब भगवती बाबू नवयुवक थे। फिर भी बड़ी दक्षता से काम संभाला। उस रैली के दो नारे आज भी मेरे कान में गूंजते हैं। याद आते है। एक था ''आराम हराम के कहने वालों, काम दो या बेकारी का दाम दो।'' जवाहरलाल नेहरू के उस सूत्र का यह जवाब था कि आजाद भारत के पुनर्निर्माण का काम बहुत ज्यादा है अतः ''आराम हराम है।'' सोशलिस्ट पार्टी रैली में यही बात उजागर हुई थी कि नवस्वाधीन राष्ट्र के करोड़ों युवजन रोजगार की खोज में त्रस्त हैं, नैराश्य में डूबे हैं। दूसरा नारा था ''पूंजीपति से यारी है, इस नेहरू सरकार की।'' तब संदर्भ बिडला—डालमिया—टाटा से था। आज यह तथ्य अत्यधिक सत्यतापूर्ण हो गया है। नेहरू के वंशज, जो भारत सरकार पर भी हावी रहे, वैश्वीकरण की आड़ में अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवादी शोषकों के हमराह तथा हमख्वार बन बैठे थे।
भगवती बाबू की संगठन कुशलता का दूसरा परिचय 10 मई 1957 को हुआ जब भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की शताब्दी थी। सोशलिस्ट पार्टी ने इस शताब्दी को मनाने हेतु एक संघर्षवाला कार्यक्रम तैयार किया था। उसके तहत पहली योजना थी कि बर्तानवी साम्राज्यवादियों की मूर्तियां सार्वजनिक स्थलों से हटाई जाये क्योंकि वे हमारी गुलामी के चिन्ह हैं। लखनऊ के प्रधान डाकघर और अन्य स्थलों से इन बर्तानवी निशानों को हटाने के आन्दोलन में सैकड़ों पार्टीजन जेल गए। भगवती बाबू इस जनसंघर्ष के हरावल दस्ते में थे। इसी आन्दोलन का हिस्सा था कि सार्वजनिक कार्य जनभाषा में हो अर्थात उत्तर प्रदेश में कामकाज हिन्दी में हो। ब्रश और कालिख लेकर युवजनों की टोलियां हजरतगंज, अमीनाबाद, चौक आदि स्थानों में निकलीं और दुकानों के साइनबोर्ड पर से रोमन लिपि हटाकर उन्हें देवनागरी में लिखने का अनुरोध किया। पुलिस ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां की।
साठ के दशक में भगवती बाबू से सामीप्य छूट गया क्योंकि तब मुम्बई में ''टाइम्स आफ इण्डिया'' में रिपोर्टर के पद मेरी नियुक्ति हो गई थी। फिर फरवरी 1978 में लखनऊ मेरी पोस्टिंग हो गई। तभी आपातकाल खत्म होने पर मैं तिहाड़ सेन्ट्रल जेल से रिहा होकर यूपी आया था। मैं राज्य ब्यूरो में था। उन दिनों सभी सोशलिस्टजन नवरचित जनता पार्टी में थे। भगवती बाबू भी तब राजनारायण जी के सक्रिय साथियों में थे।
दो विशिष्ट बातें भगवती बाबू के बारे में भली लगती है। वे सत्ता के गलियारे के इतने निकट रहे, मगर प्रभुता पाकर मद उन्हें छू तक नहीं पाया। जब मुलायम सिंह काबीना में संवैधानिक कारणों से कटौती करनी पड़ी तो भगवती बाबू ने अपना मंत्रीपद त्याग दिया। वैसे ही सामान्य लिबास (कुर्ता-धोती) पहने और साधारण आवास में रहकर वे आम आदमी के लिये सहजता से उपलब्ध रहते थे। विपक्ष में उनके तेवर ज्यादा तेज रहते है क्योंकि तब असहाय आम जन उनका मुरीद हो जाता है, मदद की चाहत रखता है। आज भी भगवती बाबू प्रदर्शन, रैली, संघर्ष में पुरोधा बने रहते हैं।
दूसरी बात भगवती बाबू की यह है कि पार्टी कार्यालय के सक्षम संचालन में वे पूरे माफिक बैठते हैं। पचास वर्ष पूर्व पानदरीबा के कार्यालय को व्यवधानों, संसाधनहीनता और कमजोर पार्टी ढांचे के बावजूद भगवती बाबू चलाते थे। यह उनकी कार्यदक्षता और विवेकशीलता का प्रमाण है। अब तो युग बदल गया है। समाजवादी पार्टी का मुख्यालय एक अत्याधुनिक केन्द्र हो गया है। नई सूचना तकनालोजी और साधन सम्पन्नता के कारण आजाद भारत में पहली बार मजदूर किसानों को इस पार्टी ने अब संकल्प को पूरा करने का सामर्थ्य पाया है। भगवती बाबू इन दोनों दशाओं के साक्षी रहे हैं।
आज अपने लम्बे, संघर्षशील जीवन के 75 वसंत, और अक्सर पतझड़ भी, देख चुके भगवती बाबू के लिये (26 अगस्त 2007) मेरी कामना है, ईशप्रार्थना है कि वे सेंचुरी लगायें और नाट आउट रहें।
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