संपादकों को नजरिया बदलना होगा!

Journalist K. Vikram Rao Suggestion : विदेशी मामलों की खबरों की उपेक्षा अरसे से होती रहती है। बस दो ही अपवाद है।

Written By :  K Vikram Rao
Published By :  Shraddha
Update: 2021-06-04 02:17 GMT

के. विक्रम राव (फाइल फोटो सौ. से सोशल मीडिया)

Journalist K. Vikram Rao Suggestion : भाषायी समाचार पत्रों से मुझे एक शिकायत रही है। विदेशी मामलों की खबरों की उपेक्षा अरसे से होती रहती है। बस दो ही अपवाद है। सम्पादकीय पृष्ठों (editorial pages) पर विचारवान वैश्विक विषयों पर लेख तो छपते रहते हैं। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, अफगानिस्तान अर्थात समीपस्थ दक्षिण, मध्य एशिया के समाचार यदाकदा स्थान भी पा जाते है। यूं तो ये सारे देश अखण्ड भारत के भूभाग रहे। ब्रिटिश हुकूमत (British rule) के तहत साथ थे। सवाल यह है कि प्रतियोगात्मक परीक्षा की तैयारी करता छात्र बहुधा अंग्रेजी अखबार ही क्यों पढ़ता है? चूंकि मराठी, गुजराती, तेलुगु और बांग्ला दैनिक पढ़ लेता हूं, और यूपी से हिन्दी में प्रकाशित करीब सभी दैनिक नित्य पढ़ता हूं। अत: मैं आग्रह कर सकता हूं कि संपादकों को विदेश के समाचार को उचित स्थान देना चाहिये। पाठक की संकुचित रुचि पूर्ति नहीं। पत्रकारिता की व्यापकता और प्रगति हेतु ऐसा जरुरी है।

इसी परिवेश में अपने मंतव्य के पक्ष में आज के अंग्रेजी दैनिकों से दो खबरों का जिक्र कर दूं। ये सीधे भारत के गंभीर विदेश संबंधों से जुड़े हैं। जरुरी भी हैं।मसलन भारत के विदेश मंत्रालय ने वैश्विक महत्व के मुद्दों पर महज एशियाई निर्णय लिया है जिसका प्रभाव दूरगामी होगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष पद हेतु अगले सप्ताह (7 जून) प्रस्तावित चुनाव पर भारत ने बड़ा गहन निर्णय लिया है। इसका पड़ोसी राष्ट्रों पर निश्चित असर पड़ेगा। खासकर संवेदनशील इस्लामी देशों से हमारे रिश्तों पर तो पड़ेगा ही। रुसवाई भी होगी। खट्टापन उपजेगा। शायद तकलीफदेह भी हो।

अफगानिस्तान और मालद्वीप के बीच मुकाबला

इस अध्यक्ष पद हेतु अफगानिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री जल्मायी रसूल और मालद्वीप के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद के बीच मुकाबला है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भारत का वोट मालद्वीप के पक्ष में देने की घोषणा कर दी है। हालांकि ऐसे ऐलान करने का नियम नहीं है। मगर इसके कारण है। मालद्वीप शतप्रतिशत सुन्नी मुस्लिम राष्ट्र है। केरल के निकट है। वहां जब लिट्टे के हमलावरों ने 3 नवम्बर 1988 में कब्जा कर लिया था और राष्ट्रपति अबुल गयूम का तख्ता पलटा था तो राजीव गांधी ने भारतीय नौसेना को भेजकर गयूम की सत्ता को फिर से स्थापित करा दिया था। चीन और पाकिस्तान इस द्वीपराष्ट्र को हड़पने के लिये लार टपकाते हैं। अर्थात भारत का सर्वाधिक अजीज, मनपसन्द और प्यारा पड़ोसी देश है इस्लामी मालद्वीप। लेकिन अफगानिस्तान महाभारत के समय से भारत का मित्र राष्ट्र रहा। रुसी लाल सेना द्वारा काबुल पर सोवियत कम्युनिस्ट आधिपत्य जमा लिया था। तब इन्दिरा गांधी की मौन स्वीकृति भी रही।

संयुक्त महासभा के लिये अफगानिस्तान की उम्मीदवारी का समर्थन कम्युनिस्ट चीन और इस्लामी पाकिस्तान कर रहे हैं। यूं भी अमेरिकी सेना की वापसी से आशंकित रिक्तता को भारतशत्रु तालिबान ही भरेंगे। अत: स्वाभाविक है कि भारत काबुल से कटता जायेगा। इस महत्वपूर्ण भौ​गोलिक पहलू से जुड़ी खबर को हिन्दी दैनिकों में स्थान नहीं मिला। कोई टिप्पणी भी नहीं।

अफगानिस्तान से भी कहीं ज्यादा दिलचस्प और अचरजभरी खबर है कि फिलिस्तीन और इस्राइल के संघर्ष पर मानवाधिकार उल्लंघन वाले प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत तटस्थ रहा। गत सात दशकों में पहली बार भारत ने हमेशा की भांति खुलकर फिलिस्तीन के पक्ष में वोट नहीं दिया। बल्कि नकार दिया। इस पर उनके विदेश मंत्री रियाद मालिकी द्वारा बुराभला कहना प्रत्याशित ही है। खासकर गाजापट्टी पर इस्राइल की बमबारी के संदर्भ में । देश की पारम्परिक विदेश नीति में यह नया मोड़ है। इस्लामी मुल्कों का भारत से नाराज होना स्वाभाविक है। इसके पश्चिम एशिया में गंभीर परिणाम भी पड़ेंगे।

मगर इतना तो साफ है कि भारत अरब तेल की आवश्यकता और स्वदेशी बीस करोड़ मुस्लिम नागरिकों के प्रभाव में न आकर अपनी राह खोज लेगा। गौर करें श्रीलंका के प्रति भारतीय नीति के संदर्भ में अटल बिहारी बाजपेयी तथा मनमोहन सिंह की सरकार पर द्रमुक सरकार का दबाव पड़ता रहा था। श्रीलंकायी तमिल (लिट्टे) का अहम तरफदार द्रमुक रहा। मगर मोदीराज में अब मंजर बदल गया है। दिल्ली सरकार की श्रीलंका नीति अब निर्बाध है। द्रमुक का प्रभाव नहीं है।

तो प्रश्न यह है कि इतनी असरदार खबरें पड़ोस में हो रहीं हैं जिनपर अपनी परम्परागत नीति और नजरिये को बदल कर भारत सरकार नया रुख, नवीन तेवर अपना रही है। इस पर भाषाई समाचारपत्रों को तवज्जोह देना होगा। वर्ना पत्रकारिता सामयिक और सार्थक कैसे होगी?

यूं तो यह विषय मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों के लिये अत्यधिक गमनीय है। पर हमारे संपादकीय साथियों को भी अपने व्यवसायिक तौर-तरीके और तेवर माकूल गढ़ने पड़ेगे। पाठकों की खबर के प्रति रुचि सजीव हो, यह निपुण पत्रकार का दायित्व है। वर्ना सरदार खुशवंत सिंह का मार्केटिंग फार्मूला मानना पड़ेंगा कि ''जो दिखती है, वही बिकती है।'' यह वाक्य यौन समाचार के प्रसंग में कहा गया था। सूचना और ज्ञानवर्धन के लिये संपादकीय दृष्टि में परिष्कार जरुरी है। हिन्दी संपादकीय दिग्गजों को यह चुनौती है। उन्हें गुणात्मकता के लिये सामना तो करना ही पड़ेगा।

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