तुर्की के खतरनाक बदलावः नीचे गिरने की शुरुआत तो नहीं ये

कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत के साथ तुर्की का पुराना दोस्ताना संबंध नहीं है। विद्वान हेनरी इलियट के मुताबिक तो भारत का तुर्की से रिश्ता सिर्फ आक्रमण का रहा है महमूद गजनवी ने 1001 से लेकर 1030 ई. तक भारत पर 17 बार आक्रमण किये थे। लेकिन तुर्की के बदलाव सब के लिए चिंता का सबब हैं।

Update:2020-07-20 16:33 IST

योगेश मिश्र

तुर्की में हागिया साफिया स्मारक को मस्जिद में तब्दील करने को इस्लाम में बढ़ते रूढ़िवाद के तौर पर देखना इस पूरे मामले की एक छोटी समीक्षा होगी। इस घटना का विस्तार इससे कहीं बहुत आगे तक है। यह फ़ैसला टर्की को इस्लामिक जगत में सऊदी अरब की हैसियत दिलाने की दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम है।

इस समय सऊदी अरब के अमेरिका से करीबी रिश्ते हैं। चीन मुसलमानों का उत्पीडन करके भले उन्हें ख़त्म कर रहा हो पर इस्लाम का बड़ा दुश्मन अमेरिका है। क्योंकि अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारा है। यह सही है कि ओटोमन साम्राज्य के समय तुर्की इस्लामिक दुनिया में सुन्नी संप्रदाय का सबसे बड़ा केंद्र था।

सैकड़ों साल रहा मुस्लिम शक्ति का केंद्र

भले ही सऊदी अरब में मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था। वहां मक्का और मदीना हैं। पर सुन्नी बहुल देश तुर्की ओटोमन साम्राज्य के दौरान सैकड़ों सालों तक मुस्लिम शक्ति का केंद्र हुआ करता था। बाद में यह हैसियत सऊदी ने हैसियत हासिल कर ली।

इलाकाई चुनावों में अपनी पार्टी की भारी पराजय के बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तय्यिप एर्दोगान ने देश का इस्लामीकरण शुरू कर दिया। आगामी 24 जुलाई को हाजिया सोफिया संग्रहालय से अजान गूंजेगी। अजान की इस रस्म में एर्दोगन भी मोहम्मदुल रसूल अल्लाह का पाठ करेंगे।

हालाँकि उनकी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी ( एकेपी) सोलह साल से सत्ता में है। 2000 के दशक की शुरुआत में एर्दोगान की एकेपी को धार्मिक उदारीकरण के लिए सराहा जाता था।लेकिन आज शासकीय धार्मिक संस्था पर अतिइस्लामीकरण के आरोप लग रहे हैं। समाज को पवित्र और रूढ़िवादी बनाने की हर संभव कोशिशें जारी हैं।

ऐतिहासिक हागिया सोफिया चर्च

इसी कोशिश का नतीजा है कि लगभग 1500 साल पुराने जिस स्मारक को मुस्लिम व ईसाई दोनों बराबर का आदर देते हैं।जिस हागिया सोफिया को चर्च ऑफ द होली विज़डम भी कहते हैं। जिसका निर्माण बायंजटीन सम्राट जस्टिनियन के काल में 532 से 537 के बीच गुंबदनुमा चर्च के रूप में हुआ था। उस्मानी शासक सुल्तान मेहमत दि्वतीय ने 15 वीं शताब्दी में इसे मस्जिद में बदल दिया। लेकिन 1934 में मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने इसे संग्रहालय बना दिया।

जब इसे बसाया गया था तब इस शहर का नाम कॉन्स्टेनटीनोपल था। आज इस्तांबुल है। यह दुनिया में सबसे अधिक मस्जिद वाला देश होने के बावजूद सेकुलर है। यहाँ 82693 मस्जिदें हैं।

बीस सालों में बनीं 17 हजार मस्जिदें

वर्ष 2000 के बाद तुर्की में जो भी कन्स्ट्रकशन हुये हैं उनमें 17 हजार नई मस्जिदें भी शामिल हैं जिन्हें सरकार ने बनवाया है। देश में मीनारों वाली इमारतें अब आम हो गईं हैं। तुर्की की राजधानी इस्तांबुल को एक प्रगतिशील शहर माना जाता है लेकिन अब इसका परिदृश्य भी बादल रहा है।

2016 में यहाँ डेढ़ लाख वर्ग फुट की विशाल मस्जिद का उदघाटन किया गया। ये एक पहाड़ी के ऊपर बनी हुई है और इसकी मीनारें दुनिया की सबसे ऊंची बताई जातीं हैं। पूरे इस्तांबुल से मस्जिद की मीनारें देखी जा सकतीं हैं।

इसी मस्जिद पर कमेन्ट करते हुये तुर्की के प्रमुख विपक्षी दल के नेता कमाल किलिकदारोगलू ने कहा था कि ये तुर्की के इस्लामी रिपब्लिक बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

पहला सेंट पीटर्स चर्च

अमेरिका, ब्रिटेन के बाद सबसे ज़्यादा फ़ेसबुक देखने वाले तुर्की में रहते है। यहाँ सबसे ज़्यादा अखरोट का उत्पादन होता है। दुनिया मे इंसानों द्वारा बनाया गया पहला सेंट पीटर्स चर्च यहाँ है।

सेंटा क्लाज ने तुर्की के पतारा में तीसरी शताब्दी में जन्म लिया था। यहाँ रविवार सार्वजनिक अवकाश है। रोमन लिपि है।यहाँ शराब का इस्तेमाल ईसा से ४००० वर्ष पूर्व से होता आ रहा है। चिड़िया को हिंदी कहा जाता है। लोगों का मानना है कि यह चिड़िया हिंदुस्तान से आयी है। यहाँ की राहत लोको मिठाई दुनिया की सबसे पुरानी मिठाईयों से एक है। तुर्की में ईसा से 7500 वर्ष पहले मानव बसाव के प्रमाण मिले हैं।

मोड़ दी तुर्की की धारा

लेकिन अब तुर्की इन सब के लिए नहीं जाना जायेगा। एर्दोगन ने तुर्की की धारा मोड़ दी। 2010 में उन्होंने राजनीति में सेना की भूमिका को बहुत कम कर दिया। 2016 में एर्दोगान ने तुर्की के गुलेन आंदोलन के साथ साझेदारी खत्म कर दी। और 2018 में देश की शासन प्रणाली को संसदीय से बदल कर रिपब्लिकन कर दिया।

अब वहाँ हिजाब व बुर्का पहनना अनिवार्य होगा। जबकि वहाँ इस पर पाबंदी थी। तुर्की में परदा करना दंडात्मक अपराध है। कमाल पाशा ने निजामे मुस्तफा को रद्द कर दिया।उन्होंने इसलाम के विश्व मुख्यालय को, खलीफा के सिंहासन को, ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान मोहम्मद द्वितीय को बिलकुल खत्म कर डाला था।

उन्होंने एक पिछड़े, सामंती राष्ट्र का पूर्णरूपेण आधुनिकीकरण कर दिया। बहुपत्नी व्यवस्था ख़त्म किया। आज के इसलामी दुनिया में तुर्की काफी ऊँचे पायदान पर है, क्योंकि वहां मतदान द्वारा निर्वाचन, सेक्युलर निजाम, स्त्री- पुरुष समानता, अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा उपलब्ध है।

चिंतित करने वाले बदलाव

लेकिन नये निज़ाम में यह कब तक उपलब्ध रहेगा ? यह सवाल तुर्की के निवासियों के साथ ही साथ धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को भी सालने लगा है। हालाँकि भारत में इस शब्द का इतना ग़लत इस्तेमाल हुआ है कि इसके मायने बदल गये हैं। पर तुर्की व अन्य देशों के लिए ऐसा नहीं है। तभी तो सेकुलर करेक्टर खोने के बीच ही तुर्की में जो बदलाव हो रहे हैं वह बेहद चिंतित करने वाले हैं।

वहाँ 2018 में तुर्की के धार्मिक मामलों के निदेशालय ‘दियानत’ ने कहा था कि इस्लामी क़ानूनों के तहत 9 साल की बच्चियों की भी शादी की जा सकती है। जबकि तुर्की के कानून के अनुसार 16 वर्ष से कम उम्र में विवाह प्रतिबंधित है। मामला गर्माने पर ‘दियानत’ ने कहा कि वह बाल विवाह को स्वीकृति नहीं देता है। प्रतिबंध के बावजूद तुर्की, खासकर ग्रामीण इलाकों में, बाल विवाह बहुत प्रचलित है। सत्ताधारी एकेपी का आधार ग्रामीण इलाकों में ही है।

अजीबो गरीब फतवे

दियानत ने पिता-पुत्री के सम्बन्धों पर विवादित फतवा दिया था। इसके अलावा वह बाएँ हाथ से खाना खाने वालों को शैतान करार दे चुका है। तुर्की में अल्कोहल और सिगरेट पर टैक्स दुनिया में सबसे ज्यादा है जिसके चलते यहाँ के लोग घर में ही शराब बनाने लगे हैं। तुर्की के स्कूलों में धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है।

मुझे तुर्की जाने का अवसर मिला है। मैं तो मुस्लिम देश पाकिस्तान व भारत के मुसलमानों को देख इस्लाम के बारे में धारणा बनाने वालों में रहा हूँ। पर तुर्की देख मेरा समूचा नज़रिया बदल गया। लगा ही नहीं कि हम इस्लाम को मानने वाले देश में है।

वहाँ तो यूरोप नज़र आ रहा था। महिलाएँ स्वतंत्र व स्वच्छंद दीख रही थीं। वूमेन्स लीव साक्षात था। बुर्का नदारद था। दाढ़ी और मुसलमानों के पहचान वाली दुप्पली टोपी कहीं नहीं दिखी।यह तुर्की की ही तासीर है कि दुनिया भर के पर्यटकों का मुक़ाम यह देश है।

अहदनामा

पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब ने मिस्र के सेंट कैथरीन मोनेस्ट्री को चिट्ठी लिखी । इस पत्र को मोहम्मद साहब का अहदनामा कहा जाता है । इसमें उन्होंने लिखा कि ईसाईयों की इबादत घर को न तो नुक़सान पहुँचाने की अनुमति है।और न ही उनके इबादत घरों में रखी किसी वस्तु को लेने की । यह अहदनामा मुसलमानों के मार्गदर्शन के लिए था।

1517 में तुर्क शासकों द्वारा अहदनामा मिस्र से इस्तांबुल लाया गया । यही सुरक्षित है । लेकिन इसी शहर में उनके अहदनामे की अनदेखी हो गयी। पता नहीं तुर्की के लोगों को राष्ट्रपति एर्गोदान व उनकी पार्टी यह समझने का अवसर दे रही है कि नहीं कि वह जो कुछ कर रहे हैं वह इस्लामीकरण नहीं है।

इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा उमर इब्न अल खताब को सोफ्रोनियस द्वारा यरुशलम आमंत्रित किया गया । ख़लीफ़ा ने चर्च ऑफ़ द रिसरेक्शन देखने की इच्छा जतायी। वह चर्च में ही थे कि नमाज़ का समय हो गया।

ख़लीफ़ा ने सोफ्रोनियस से नमाज़ अदा करने के लिए कोई जगह पूछा। उन्होंने कहा कि आप चर्च में नमाज़ अदा कर सकते हैं । ख़लीफ़ा ने मना कर दिया। कहा कि अगर वो आज चर्च के अंदर नमाज़ अदा करेंगे तो एक मिसाल बन जाएगी । मुसलमान मस्जिद बनाने के लिए प्रेरित होंगे।

ये आगे बढ़ना नहीं

तुर्की में इन सब के अनदेखा करके इसके बाद जो हो रहा है वह किसी देश का पीछे लौटना है। आगे बढ़ना नहीं है। ये बदलाव तुर्की को आज सऊदी अरब की जगह नहीं दिखा सकते। यहां की प्रति व्यक्ति आय 29139 डालर है। जबकि तुर्की की 9042 डालर। यह भी तब हुई जब तुर्की के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले कमाल पाशा के राज में तुर्की ने शेष इस्लामिक देशों से अलग राह पकड़ी। अब यह अलग पथ भटक गया है।

अतातुर्क का शासन और व्यापक सुधार

तुर्की की पहचान का एक हिस्सा प्रभावशाली धर्मनिरपेक्ष तत्व की वजह से है जो ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद 1923 से 1938 के बीच मुस्तफा कमाल अतातुर्क या कमाल पाशा की वजह से बना है।

ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद अतातुर्क के शासन में व्यापक सुधार किए गए। अतातुर्क ने तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष और औद्योगिक राष्ट्र बनाने में मदद की। अतातुर्क को बीसवीं सदी के महान नेताओं में से एक माना गया है।

अतातुर्क भले ही एक तानाशाह थे लेकिन उनका शासन जनकल्याणकारी था। पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के साथ तुर्की पर मित्र देशों की सेनाओं ने कब्जा कर लिया था और तुर्की के अलग अलग हिस्से बांट लिए थे।

अतातुर्क की अगुवाई में टर्किश नेशनल मूवमेंट ने मित्र देशों का सामना किया और उनकी सेनाओं को हरा दिया। अतातुर्क ने तुर्की से खिलाफत की व्यवस्था को खतम कर दिया। ये राजनीतिक प्रणाली की सुधार की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कदम था।

इतिहास के आईने में तुर्की

- दुनिया में सबसे प्राचीन स्थाई रिहाइशों में मेसोपोटामिया और अनातोलिया शामिल थे। यहीं से अनेक समुदायों और समाजों का जन्म हुआ। जिनमें ग्रीक, अर्मेनियन और पर्शियन भी थे। ईसा पूर्व 1200 के आगे ग्रीक समुदायों ने जिन ठिकानों की स्थापना की उनमें कोंस्टांटिनोपल (आज का इस्तांबुल) शामिल था।

- ईसा पूर्व 334 में अनातोलिया सिकंदर महान ने अनातोलिया को फतह किया। 232 ईसा पूर्व में सिकंदर की मृत्यु के बाद अनातोलिया कई छोटे छोटे साम्राज्यों में बंट गया जो बाद में रोमन साम्राज्य का हिस्सा बन गए।

- 285 ईस्वी में रोमन साम्राज्य को पूर्वी और पश्चिमी, दो प्रशासनिक हिस्सों में बांट दिया गया। पूर्वी रोमन साम्राज्य को बाइजेंटाइन साम्राज्य कहा गया जिसका कंट्रोल अनातोलिया से बहुत आगे उत्तरी अफ्रीका तक था। इस साम्राज्य की राजधानी थी कोंस्टांटिनोपल (आज का इस्तांबुल)। एक हजार साल से ज्यादा के अपने अस्तित्व के दौरान बाइजेंटाइन साम्राज्य में एक बेहतरीन सभ्यता का निराम्न किया जिसमें ग्रीक, रोमन, ईसाई और अन्य धर्म साथ साथ आए।

चुनौती का सामना

- 1029 से 1072 ईस्वी के बीच बाइजेंटाइन साम्राज्य को सेलजुक तुर्कों के राजा आल्प आर्सलान से चुनौती का सामना करना पड़ा। आगे चल कर अनातोलिया के बड़े हिस्से रूम की सेलजुक सल्तनत के अधीन आ गए। सेलजुक तुर्कों और बाइजेंटाइन साम्राज्य के बीच धार्मिक विवाद भी था। जहां सेलजुक तुर्क इस्लाम को अपना चुके थे वहीं बाइजेंटाइन साम्राज्य को रूढ़िवादी ईसाइयत का केंद्र माना जाता था।

- इस्लामी तुर्कों से खतरा देख कर बाइजेंटाइन साम्राज्य के सम्राट एलेक्सियस प्रताहम ने रोमन कैथोलिक पोप से मदद मांगी। इसके बाद 1095 में उरबानुस द्वितीय ने तुर्कों के खिलाफ क्रूसेड यानी धर्मयुद्ध का आह्वान कर दिया। धर्मयुद्ध का उद्देश्य यरूशलम को आज़ाद कराने के साथ और पवित्र भूमि को मुस्लिम (सेलजुक) आधिपत्य से मुक्त कराना था।

- 1096 में फ्रांस से फ़्रांकिश और इटली से नॉर्मन शूरवीरों की अगुवाई में धर्मयुद्ध की सेनाएँ कूच कर गईं। कुल छह में में से यह पहला क्रूसेड था। चौथे क्रूसेड में कोंस्टांटिनोपल (आज का इस्तांबुल) पर कब्जा कर लिया गया। लेकिन तब तक बाइजेंटाइन साम्राज्य काफी कमजोर पद चुका था और वह सेलजुक साम्राज्य के पाटन से लाभ नहीं उठा पाया। नतीजनत कई छोटे छोटे स्वतंत्र तुर्क राज्य बन गए। इन्हीं में से एक था ओटोमन राज्य।

साम्राज्य का विस्तार

- 1453 में महमेद द्वितीय ने कोंस्टांटिनोपल पर फतह हासिल की और इसके बाद ओटोमन साम्राज्य का विस्तार होता गया। मध्य यूरोप तक ओटोमन साम्राज्य फैलने के बाद इन्होने पूर्व और दक्षिण, खासकर अरब भूभाग पर ध्यान केन्द्रित किया।

- ओटोमन सम्राट सेलिम प्रथम ने अरब देशों पर फतह हासिल की जिसके बाद मिस्र से युद्ध चला। इस युद्ध में सेलिम प्रथम ने न केवल ओटोमन साम्राज्य का विस्तार कर डाला बल्कि खलीफा की पदवी पर भी कब्जा कर लिया।

मिस्र पर फतह के बाद काहिरा के खलीफा अल मुतवक्किल को पकड़ कर कोंस्टांटिनोपल लाया गया। वहाँ मुतवक्किल ने खलीफा की पदवी सेलिम प्रथम के हवाले कर दी। यहीं से ओटोमन खिलाफत की स्थापना हुई।

खिलाफत के हस्तांतरण का मतलब था धार्मिक शक्तीयन काहिरा से ओटोमन साम्राज्य को चलीं गईं। 1924 में खिलाफत के खात्मे तक ये टाइटल ‘हाउस ऑफ उस्मान’ के पास ही रहा।

- 16वीं सदी के अंत और 17वीं सदी की शुरुआत में ओटोमन साम्राज्य को आंतरिक हिंसक विद्रोहों का सामना करना पड़ा। 1683 में ओटोमन साम्राज्य ने विएना (आस्ट्रिया) को फतह करने की कोशिश की लेकिन पराजय का सामना करना पड़ा। यहीं से ओटोमन की यूरोप में मौजूदगी को गहरा धक्का पहुंचा। इस पराजय के बाद ओटोमन को यूरोप में और भी परेशानियाँ झेलनी पड़ीं।

युवा तुर्क विद्रोह

- 1876 से 1909 के बीच अब्दुल हमीद द्वितीय का शासन ओटोमन साम्राज्य को संभालने का दौर कहा जाता है। अब्दुल हमीद सख्त शासक, पश्चिमी रंग ढंग वाले, आधुनिक और इस्लामिक – इन सबका मिश्रण थे। उनका शासन ‘युवा तुर्क’ विद्रोह के साथ खतम हुआ युवा तुर्क एक गुप्त संगठन था जो युवा ओटोमन अधिकारी चलाते थे। इनमें एक था नाज़िम बे जिसने राजा अतातुर्क की हत्या की कोशिश की थी और इस जुर्म में उसे फांसी पर लटका दिया गया था।

- 12 जुलाई 1912 को तुर्की में सरकार का तख़्ता पलट दिया गया। इसके बाद ओटोमन साम्राज्य के तीन पाशाओं का शासन रहा। ये थे जमाल पाशा, अनवर पाशा और तलत पाशा। 1914 में पाशाओं ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी का साथ देने का फैसला किया। जर्मनी की शिकस्त के साथ ओटोमन साम्राज्य का 1918 में पतन हो गया।

ईसाई और राजनीतिक चालबाजी

ओटोमन साम्राज्य अपने ईसाई नागरिकों की आकांक्षाओं का कोई राजनीतिक समाधान या जवाब ढूंढ पाने में विफल रहे थे जबकि ईसाई नागरिक संख्या में ज्यादा थे और उनका उत्पीड़न बी सबसे ज्यादा होता था। इस कारण ईसाई लोग आज़ादी और समानता की मांग उठाते रहते थे। ओटोमन ने ईसाइयों की समस्याओं को सुलझाने की बजाए उनके असंतोष को हिंसा के जरिये कुचलने का रास्ता अपनाना उचित समझा। नतीजतन तुर्की के मामलों में हस्तक्षेप करने वाली पश्चिमी ताकतों को अच्छा मौका मिल गया।

आगे चल कर 19वीं सदी में सर्ब, बोस्नियन, ग्रीक बुल्गारियन, और रोमानियन तुर्की के शासन से अलग हो गए। यानी ओटोमन साम्राज्य का करीब 60 फीसदी इलाका उसके हाथ से निकल गया।

दस लाख मुस्लिम शरणार्थी

1912-13 के बाल्कन युद्ध के बाद ओटोमन का यूरोप में बचा खुचा क्षेत्र भी हाथ से चला गया। युद्ध के परिणामस्वरूप करीब दस लाख मुस्लिम शरणार्थी अपने घर छोड्ने को मजबूर हो गए। ये तीन पाशाओं के शासन का काल था।

उनको लग गया कि साम्राज्य का अंत समीप है सो वे अपने साम्राज्य से ईसाइयों को बाहर निकालने की राजनीतिक चालबाजी में लग गए। इसी चाल के तहत गैर तुर्क मुस्लिमों को जबरन तुर्कों में शामिल किया जाने लगा। ये कुर्द, बुल्गारियन, बोस्नियान और अरब लोग थे।

नतीजतन एक मिश्रित धर्म वाला अनातोलिया का निर्माण हुआ जो ईसाई सेना का सामना करने में सक्षम था। 1915 में ओटोमन राजाओं ने आदेश दिया कि अर्मेनियन लोगों को दक्षिण की तरफ सीरिया और मेसोपोटामिया में धकेल दिया जाये।

इसके बाद बड़े पैमाने पर अर्मेनियाओं पर अत्याचार किए गए। अनुमान है कि कम से कम दस लाख आर्मेनियन मार डाले गए।

कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत के साथ तुर्की का पुराना दोस्ताना संबंध नहीं है। विद्वान हेनरी इलियट के मुताबिक तो भारत का तुर्की से रिश्ता सिर्फ आक्रमण का रहा है महमूद गजनवी ने 1001 से लेकर 1030 ई. तक भारत पर 17 बार आक्रमण किये थे। लेकिन तुर्की के बदलाव सब के लिए चिंता का सबब हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व न्यूजट्रैक के संपादक हैं)

 

Tags:    

Similar News