हर चुनाव में उठता है हरित प्रदेश का मुद्दा!

इस बारे में राष्ट्रीय लोकदल के प्रवक्ता अनिल दुबे का कहना है कि रालोद उप्र पुनर्गठन की मांग तो शुरू से करता रहा है और वह अब भी इस पर कायम है यह तो हमारे एजेण्डे में है।

Update: 2019-03-11 14:45 GMT

श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: हर चुनाव में पश्चिमी उप्र में हरित प्रदेश की मांग का मुद्दा इसबार ठंडे बस्ते में है। हरित प्रदेश की मांग करने वाला राष्ट्रीय लोकदल इसबार के चुनाव में अबतक चुप्पी साधे हुए है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सपा के साथ चल रही गठबन्धन की सौदेबाजी है क्योंकि समाजवादी पार्टी हरित प्रदेश की मांग को लेकर अपना विरोध जताता रहा है।

1953 में राज्य पुर्नगठन आयोग के गठन के बाद एक पृथक राज्य की मांग उठने लगी थी। तब 97 विधायकों का हस्ताक्षरयुक्त एक संयुक्त मांगपत्र का समर्थन आयोग के सदस्य एम पणिक्कर ने किया था। उन्होने पृथक राज्य के गठन की संस्तुति भी की थी फिर राजनीतिक कारणों से यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। कई वर्षो बाद 1977 में जनता पार्टी ने सरकार गठन के पूर्व अपने चुनावी वायदों में इसे शामिल किया लेकिन जनता पार्टी सरकार जल्द ही गिर जाने से मामला सिमट कर रह गया।

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इस बीच 1963 में तत्कालीन विधायक मंजूर अहमद व वीरेन्द्र वर्मा आदि ने एक बार फिर इस मुहिम को आगे बढ़ाने पद के लिए पद यात्राएं आदि भी की। 70 के दषक में दोआब प्रदेष, पष्चिमी उप्र,गंगा प्रदेष पष्चिमाचंल जैसे अलग नामों से आंदोलन होते रहे। इसके बाद 1980 में बंटवारे का एक प्रस्ताव सदन में पास नहीं हो सका। 90 के दशक में कांग्रेस के नेता निर्भयपाल शर्मा व इम्तियाज खां ने इसे हरित प्रदेश का नाम देकर आंदोलन शुरू किया। प्रस्तावित हरित प्रदेश में 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल तथा १२ लाख से अधिक आबादी वाले इस प्रस्तावित राज्य में मेरठ, सहारनपुर, आगरा, मुरादाबाद तथा बरेली मंडल शामिल हैं।

1991 में विधानपरिषद सदस्य जयदीप सिंह बरार और तथा चौ. अजित सिंह ने एक बार फिर हरित प्रदेश की मांग उठाई। कल्याण सिंह की सरकार में हरित प्रदेश की मांग उठी लेकिन उन्होने भी मामले को लटकायें रखा। इसके बाद चौ अजित सिंह जरूर मामले को संसद तक ले गयें लेकिन किन्ही कारणों से वह आन्दोलन को सडकों तक नही ला सके।

2002 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब चौ. अजित सिंह ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लडा तो उन्होने हरित प्रदेष को एक बार फिर प्रमुख मुद्दा बनाया लेकिन इस दौरान रालोद विधानसभा के अन्दर न और न बाहर दूसरे दलों को समर्थन हासिल कर पाया। इसके बाद 2003 में हरित प्रदेश के धुर विरोघी मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में बनी सरकार में जैसे ही चै. अजित सिंह षामिल हुए आन्दोलन की हवा निकल गयी विधानसभा में रालोद विधायक केवल संकल्प ही प्रस्तुत करते रहे।

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2007 में बसपा सरकार के गठन के बाद जब मुख्यमंत्री मायावती ने अक्टूबर महीने में एक रैली के दौरान उ.प्र. के पुर्नगठन की मांग रखी तो लगा कि अब हरित प्रदेश की मांग को बल मिलेगा। तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 15 मार्च 008 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश का पुर्नगठन कर इसे चार हिस्सों बुंदेलखण्ड पूर्वाचंल पश्चिमी उप्र और बचें शेष हिस्सों में बांटने की सिफारिस भी की लेकिन केन्द्र की ओर से कहा गया कि पहले राज्य सरकार विधानसभा से प्रस्ताव पारित कराकर भेजें तब इस पर विचार किया जाएगा। इसके बाद मायावती ने नवम्बर 2011 में विधानसभा से उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव पारित कराकर केंद्र को भेजा। लेकिन बाद में य​ह मामला ठंडे बस्ते में चला गया क्यों कि इसके बाद सपा की सरकार आ गई।

हरित प्रदेश की मांग यूपी के 22 जिलों को मिलाकर बनाने की उठती रही है जबकि भाजपा लगातार हरित प्रदेश का विरोध करती रही है। पार्टी के कुछ नेताओं का मानना है कि इस राज्य का नाम हरित प्रदेष न होकर बल्कि मुस्लिम प्रदेश होना चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र में अधिकतर मुसलमान समाज के लोग ही शामिल है। कांग्रेस फिलहाल बुंदेलखण्ड और पूर्वाचंल की मांग का तो समर्थन करती है लेकिन हरित प्रदेश के मामलें में वह चुप्पी साध लेती है।

उधर पश्चिमी उप्र के लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र के विकास पर कभी भी ध्यान नही दिया। क्षेत्र में हाईकोर्ट की बेंच की मांग लगातार उठती रही है। इसके अलावा उच्चस्तरीय विश्वविद्यालयों इंजीनियिरिंग कालेजों का भी अभाव है। अब इसके पीछे राजनीतिक कारण चाहे जो लेकिन पिछले कई चुनावों में राष्ट्रीय लोकदल हरित प्रदेश की मांग को लेकर खूब चुनावी लाभ उठाता रहा है।

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इस बारे में राष्ट्रीय लोकदल के प्रवक्ता अनिल दुबे का कहना है कि रालोद उप्र पुनर्गठन की मांग तो शुरू से करता रहा है और वह अब भी इस पर कायम है यह तो हमारे एजेण्डे में है।

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