5, सितंबर- बीते दिनों देश की महिलाओं ने फेसबुक पर सेल्फी विदआउट मेकअप का अभियान चलाया। वे यह बताना चाह रही थीं कि आखिर बिना मेकअप के वे कितनी सुंदर हैं। वह सौंदर्य प्रसाधन से दूर हटकर अपनी नैसर्गिक सुंदरता को दिखाना चाह रही थीं। स्त्री में सादगी के सवाल को रेखांकित करना चाह रही थीं। यह सचमुच एक अच्छी पहल कही जा सकती है। भगवान ने आपको जो कुछ बख्शा है वह आपके देहदृष्टि और कद-काठी के मुताबिक छोटा बड़ा, अड़ा-तिरछा इसीलिए बनाया है कि वह उसे सुंदर लगा। हमने नैसर्गिक सुंदरता को स्वीकार करने और अपनाने की जगह यह मान लिया कि यह रचना की त्रुटि है। नतीजतन, बाहरी सुंदरता पर हमने अपने दृष्टि गड़ा दी। सोलह श्रृंगार बनाए। स्त्री को सोलह श्रृंगार के बिना सुंदर ही नहीं माना। बिना सुंदरता के स्त्री को कुबूल ही नहीं किया।
गलती यह हुई कि स्त्री ने खुद अपनी नज़र से देखना बंद कर दिया। पुरुषों की नज़र में सुंदरता के जो मानदंड थे उस पर खरे उतरने की होड़ में वह शरीक हो गयी। नतीजतन, वह पुरुष सत्ता के वर्चस्व का शिकार भी हुई। इस समूची कोशिश में प्रायः चेहरे का सच और शिकन छिपाने के लिए मेकअप का इस्तेमाल किया गया। तमाम दुख भरी कहानियों को समेटे हर एहसास के चहेरे पर उतर आने की कोशिश ने स्त्री को खंड-खंड किया। उसके फेस विद मेकअप से उबरने की जगह निरंतर उसमें फंसती चली गयी। इस सबके खिलाफ नारी मुक्ति आंदोलनों की तरह वह खड़ी हुई और सेल्फी विदआउट मेकअप का हिस्सा बनी।
सोशल मीडिया पर ऐसी अंसख्य फेसबुकिया महिलाएं अवतरित हुईं जिन्होंने अपनी नैसर्गिक तस्वीर पोस्ट की। वस्तुतः यह पुरुष वर्चस्व से जंग की एक नई कोशिश थी। अगर महिलाओं ने सेल्फी विदआउट मेकअप की शुरुआत अपने नैसर्गिक सुंदरता को दिखाने के लिए किया होता तो इस अभियान का हश्र प्रगति नारी आंदोलनों की तरह नहीं होता। नारी मुक्ति आंदोलन से जुड़ी अधिकांश प्रगतिशील महिलाओं ने ऐसे पुरुषों का जीवन साथी के रुप में वरण किया जिनकी पहली पत्नियां भी थीं। यानी ये महिलाएं एक मोर्चे पर महिला शोषण के खिलाफ खड़ी थी तो निजी मोर्चे पर किसी एक महिला का हक हुकूक मार रहीं थीं।
मनुष्य को अपने मनोवृति और कामनाओं में दुराग्रही नहीं होना चाहिए। सेल्फी विदआउट मेकअप में कूट-कूट कर दुराग्रह भरा हुआ है। तभी तो सेल्फी विदआउट मेकअप के खिलाफ पुरुषों ने भी अभियान। यह अभियान दुराग्रह की प्रतिक्रिया थी। यह सच है कि सुंदर दिखने का न तो कोई दवा होनी चाहिए न कोई मजबूरी। एक दूसरे को उसके नैसर्गिक होने में ही स्वीकार करना जीवन के असली आनंद का हिस्सा होता है। जब आप नैसर्गिक जंगलों से गुज़र रहे हों तब और जब आप मानवीकृत पार्क की यात्रा का कर रहे हों तो दोनों के अहसास का अंतर समझ सकते है। जानवर भी तभी मानवीकृत जंगलों में आते हैं जब उन्हें असली जंगलों में जगह नहीं मिल पाती या असली जंगल से पकड़ कर उन्हें यहां लाया जाता है। लेकिन दोनों तरह जंगलों में उनके हाव-भाव, क्रिया-कलाप सब बदल जाते हैं। मतलब साफ है कि जब भी आप आर्टीफीशियल होते हैं तो बदलाव सिर्फ आपके ऊपर नहीं होता आपके अंदर भी होता है।
दूसरा, आप ऊपर से तो सुंदर हो जाते हैं पर आपके भीतर उतनी सुंदरता नहीं होती लिहाजा आभा मंडल मे आकर्षण का क्षेत्र निस्तेज हो जाता है। अंदर जितनी सुंदरता होती बाहर उतनी खुद ब खुद दिखेगी। जिन्हें भी आपने सुदंरता का प्रतिमान माना होगा वे या तो नैसर्गिक संदरता के धनी हैं अथवा उनके अंदर इतनी सुंदरता रची बसी है जो आपको बरबस बांध लेती है। मेकअप आपको दैहिक स्तर पर ही थाम लेता है। वहीं रोक लेता है। जबकि आपको किसी को समझने, बूझने, जीने और अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाने के लिए जरुरी है कि आप उसकी आंतरिक तक पहुंचें।
सेल्फी विदआउट मेकअप जिसे स्त्री और पुरुष दोनों ने क्रिया और प्रतिक्रिया के रुप में चलाया उसमें सौंदर्य को लेकर सोच का भ्रम ही नहीं बल्कि सौंदर्य को लेकर रुग्णता भी उजागर हुई है। यह रुग्णता सेल्फी के मामले में भी खुली। भारत में औसतन एक युवा रोज 14 सेल्फी लेता है। साल 2016 में पूरी दुनिया में 24 बिलियन सेल्फी सिर्फ गुगल पर अपलोड की गयी। भारत में सेल्फी लेते हुए मरने वालों का आंकडा दुनिया में सबसे अधिक है। मार्च 2014 से सिंतबर 2016 के बीच कारनेज मेलान विश्वविद्यालय और दिल्ली के इंद्रप्रस्थ इंस्टीट्यूट आफ इन्फार्मेश ने 18 महीनों में 127 सेल्फी लेते समय मरने वाले मामलों का अध्यय किया। उसे बेहद निराशा हाथ लगी।
अमरीका साइकैट्रिक एसोसिएशन अत्यधिक सेल्फी लेने के इस शौक को सेल्फाइटिस बीमारी का नाम दिया है। उनका माना है कि अगर आप एक दिन में तीन सेल्फी से अधिक सेल्फी लेते हैं तो कम्पल्सिव ऑबसेसिव डिस्आर्डर (ओसीडी) के शिकार हैं। इनके मुताबिक अगर कोई तीन सेल्फी लेता है और सोशल मीडिया पर पोस्ट नहीं करता तो बार्डरलाइन केस है। लेकिन अगर वह तीनों सेल्फी पोस्ट भी करता है तो वह अक्यूट की श्रेणी में आता है। कम से कम 6 लेने और पोस्ट करने वाले को क्रानिक मरीज की कोटि में रखा जाएगा। सिओन हास्पिटल की डा पायल शर्मा और डा इरा एस दत्ता ने अपने अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला है सेल्फी लेने वाले लोग या असुरक्षा की भावना के शिकार हैं या फिर आत्मप्रवंचना के।
जब आप सेल्फी विद डाटर, सेल्फी विदाउट मेकअप सरीखे सोशल मिडिया के अभियान से जुड़ते हैं कि आप इस मनोरोग के शिकार हो रहे हैं। कोई भी मनोरोगी किसी अभियान को कितनी दूर तक ले जा पाएगा यह आसानी से समझा जा सकता है। इसलिए सेल्फी विदआउट मेकअप का आप हिस्सा बनते हैं तो आप बनावटी तौर पर सुंदर दिखने के मनोरोग से मुक्ति पाने की कोशिश भले कर रहे हों पर आपको दूसरा मनोरोग आकर घेर लेता है। आपके अस्तित्व की सुंदरता कम होने लगती है। जब आपका अस्तित्व सुंदर नहीं होगा तब आप कृत्रिम सुंदरता के बदौलत सिर्फ क्षण भंगुर सुंदरता ओढ़-अपना सकते हैं। हर समय मेकअप में दिखने की विवशता होना भी गलत है इसे चारित्रिक गुण और योग्यता की सुंदरता तिरोहित हो जाती है।
सेल्फी विदआउट मेकअप या नो मेकअप सेल्फी कैंपेन की शुरुआत 2014 में ब्रिटेन में हुई थी। वहां इसे एक बेहद मानवीय पहलू से जोड़ दिया गया और उसे कैंसर पीडितों के लिए फंडरेजर की तरह इस्तेमाल किया गया। यह कैंपेन इतना सफल हुआ कि इससे 6 दिन में 8 मिलियन पाउंड इकट्ठा हो गये। इसके बाद तो पूरी दुनिया में इसे अपनाया जा रहा है। यह बात और है कि 2015 से आज तक फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया पर भारत में इसे चलाया तो जा रहा है पर इसे किसी मुद्दे पर फंडरेजर के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है।
सेल्फी विदआउट मेकअप सरीखे अभियान हमारी समझ में भले ही हमारे नैसर्गिक स्वरुप को रखने का जरिया हो पर ये हमारे विद्रूपता की कलई खोलते हैं जो हमारे अंदर कभी सेल्फी के जरिए कभी मेकअप के जरिए कभी विदआउट मेकअप के जरिए गहरे पैठ गयी हैं।