अपने उपनिवेश भारत पर राज्य करने के लिए अंग्रेजों ने एक नीति बनाई थी- ‘बांटो और राज करो।‘ स्वराज आने के बाद भी हमारे रहनुमाओं ने इस नीति पर अमल जारी रखा है। ये समाज को खंड-खंड करके देखने के आदी हो गए हैं। अखंड देश सिर्फ उनके फलसफे या जुमले में होता है। खंड-खंड करने का हथियार किसी का तुष्टिकरण होता है। किसी का भाषा, किसी का आरक्षण, किसी का धर्म, किसी का संप्रदाय। कौन किस हथियार का इस्तेमाल करेगा यह राजनेता के मिजाज पर निर्भर करता है? पिछले काफी सालों तक तुष्टिकरण बांटने और राज करने का हथियार था। तभी तो यह सिद्धांत दृढ़ कर गया था कि बिना अल्पसंख्यक मतों के सरकार नहीं बनाई जा सकती। सरकारी खर्चों पर रोजा अफ्तार होने लगे थे। हज जैसा पाक मुक्कदस अवसर सियासी हो गया था। टोपी और दाढ़ी हर राजनेता के अगल-बगल दिखने वाले श्रृंगार हो गये थे।
देश में यह बटवारा इस हद तक था कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए कोई सरकार उद्यत नहीं रही। किसी ने अपने कार्यकाल में इसे अमलीजामा नहीं पहनाया। लेकिन हर किसी ने इसे लेकर स्यापा जरूर पीटा। हद तो यहां तक हुई कि मनमोहन सिंह की अगुवाई वाले यूपीए ने दंगा निरोधक बिल ड्राफ्ट करने की ओर कदम बढ़ा दिए। सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इसका मसौदा तैयार किया था। जो दहेज विरोधी कानून और दलित एक्ट से ज्यादा खूंखार था।
नरेंद्र मोदी ने 2014 के अपने चुनाव अभियान में इस दंगा निरोधक बिल को अपने पक्ष में ठीक से भुनाया। उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान राजनीति में जिस नये सिद्धांत का प्रतिपादन किया उसकी मान्य धारणा यह बनी कि बहुसंख्यक अपने बलबूते पर बहुमत की सरकार बना सकते हैं। इसी का नतीजा रहा कि उत्तर प्रदेश से एक भी अल्पसंख्यक नहीं जीता। यह भारतीय निर्वाचन का अविश्वसनीय सत्य है। इन नतीजों में दंगा निरोधक बिल भी बड़ा टूल था। देश अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक खांचों में बट गया। न्यूटन के वैज्ञानिक नियम के मुताबिक प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है। लेकिन समाज विज्ञान के क्षेत्र में यह सिद्धांत अपना स्वरूप कुछ इस तरह बदलता है कि बराबर प्रतिक्रिया की जगह कई गुना अधिक तेज प्रतिक्रिया होती है।
हाल फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार ने दलित एक्ट के मामले में जो तत्परता दिखाई है। उनकी कोशिश, उनकी मंशा और दलित एक्ट के क्रिया की प्रतिक्रिया आनुपातिक रूप से काफी तेज है। दलित एक्ट के कानून में गिरफ्तारी के प्रावधान पर सर्वोच्च अदालत ने संशोधन की अपनी मुहर लगा दी थी। सीधे गिरफ्तारी से रोक दिया। लेकिन मोदी सरकार ने सर्वोच्च अदालत के फैसले में संशोधन कर शिकायत होते ही गिरफ्तारी के हालात बहाल कर दिये। केंद्र सरकार की इस अतिशय कृपा ने अनंत सवाल जन दिये हैं। जिससे अगड़ों और पिछड़ों के बीच सरकार के खिलाफ गुस्सा देखा जा रहा है। प्रोन्नति में आरक्षण को जिस तरह नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वीकृति दी है, उससे भी इस गुस्से को हवा मिली है। दलित एक्ट और प्रोन्नति में आरक्षण दोनों सवालों को सर्वोच्च अदालत हल कर चुका था। पर आ बैल मुझे मार की तर्ज पर केंद्र सरकार सामने आकर खड़ी हो गई।
अटल विहारी वाजपेयी सरकार ने भी डाॅ. भीमराव अंबेडकर के सहयोगी रहे संघप्रिय गौतम की सलाह पर प्रोन्नति में आरक्षण लागू किया था। अपनी सरकार जाने के बाद लखनऊ में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस के बाद कुछ लोगों से अनौपचारिक बातचीत में अटल विहारी वाजपेयी जी ने सरकार के पराजय के कारणों में जो कारण लोगों से सुने, सुनाये उसमें खुद अपनी ओर से जोड़ा कि प्रोन्नति में आरक्षण से अगड़े और पिछड़े राज्य और केंद्रीय कर्मचारी नाराज हो गये। पर यह संदेश मोदी सरकार तक नहीं पहुंच पाया। उत्तर प्रदेश में तय ढंग से कहा जा सकता है कि मायावती के रहते जाटव किसी दूसरे पार्टी को वोट नहीं दे सकता है। सबसे अधिक सीटे इसी राज्य से आती हैं। अब दलित एक्ट के खिलाफ देशभर में धरना प्रदर्शन हो रहा है। भारत बंद का आयोजन एक बार दलित कर रहा है तो दूसरी बार गैर दलित। हर समूह अपने बंद को सफल और दूसरे को असफल बता रहा है। यह लाग-डाॅट विभाजन की एक नई भूमि तैयार कर रहा है। किसी भी कानून में उसके दुरुपयोग को रोकने के भी प्रावधान किये जाने चाहिए। कोई व्यक्ति किसी कानून का लाभ उठाकर अनावश्यक किसी व्यक्ति व समूह को परेशान न करे यह भी राज्य का मुक्कमल कर्तव्य है।
इस बात का कोई भी ध्यान दलित एक्ट के वर्तमान प्रावधान में नहीं है, वह भी तब जबकि इसके दुरुपयोग की कई नजीरें पसरी पड़ी हैं। अगर इस एक्ट में सिर्फ यह प्रावधान कर दिया गया होता कि इसका दुरुपयोग करने वाला भी दंड का भागी होगा तो इस एक्ट को लेकर नाराजगी के सारे आधार निराधार हो जाते। इसके मार्फत समाज को बाटने वालों के मंसूबे को पलीता लगता। आपसी सौहाद्र्य बना रहता। छांटों, बांटों, राज करो का फार्मूला नहीं लागू होता। अब तो बहुसंख्यक समुदाय ही आमने-सामने है। दलित बनाम अगड़े/पिछड़े चल निकला है। वैसे ही लंबे समय से दलित अस्पृश्यता के शिकार रहे हैं। उन्हें सुरक्षित करने की अनावश्यक कोशिशें उन्हें अलग-थलग कर रही है। इन्हें आर्थिक रूप से संपन्न किया जाना चाहिए। क्योंकि आर्थिक संपन्नता जातीय जड़ता तोड़ देती है। आरक्षण का लाभ चार फीसदी दलितों तक भी नहीं पहुंच पाया है। इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का नाम लेने वालों के लिए यह जरूरी है कि दस साल पर उन्होंने आरक्षण के समीक्षा की जो बात कही थी, उस पर भी अमल करें ताकि आरक्षण का लाभ अंतिम आदमी तक पहुंच सके। ऐसा नहीं करना भी राज करने के फार्मूले का हिस्सा है। दलितों को आर्थिक शक्ति चाहिए। आज समाज अर्थ व्यवस्था से संचालित है। सभी सामाजिक संबंध आर्थिक चरो पर निर्भर करते हैं पर उनके पैरोकार अभी भी सिर्फ सुरक्षा देकर राज कर लेना चाहते हैं। वह सुरक्षा भी ऐसी जो उन्हें समाज का नहीं, टापू का वाशिंदा बनाती हो।