लखनऊ: पराजय हर सूरत में दुखदायी होती है, लेकिन भारतीय क्रिकेट टीम के दक्षिण अफ्रीका दौरे से पहले ही अगर पराजय की भविष्यवाणी की जाए और वह सही भी साबित हो तब इसका मतलब साफ है कि या तो तैयारियों में कमी थी या इच्छाशक्ति में। सेंचुरियन में भारतीय क्रिकेट टीम की हार के बाद कप्तान विराट कोहली का बयान एकदम सही था कि हमें हार तो स्वीकार है, लेकिन इस ढंग की हार नहीं। बात बिल्कुल सच है। पहले टेस्ट मैच में भारतीय बल्लेबाज उछाल नहीं झेल पाए तो दूसरे टेस्ट में क्या हुआ? दूसरे टेस्ट में तो पिच भी भारत की ही पिच जैसी थी। यहां क्या हुआ? लगातार नौ सीरीज जीतने के बाद यह हार स्वीकार करना मुश्किल है। एक बहुत बड़े खिलाड़ी ने एक बार कहा था कि अगर बल्लेबाज फुलटॉस गेंद पर आउट हो रहा है तो यह खराब भाग्य नहीं है बल्कि खराब प्रैक्टिस है।
रन आउट भी क्रिकेट का अंग है, लेकिन जिस तरह दोनों पारियों में चेतेश्वर पुजारा और पहली पारी में हार्दिक पांड्या रन आउट हुए,यह निश्चित तौर पर प्रैक्टिस और बेसिक्स को नजरअंदाज करना है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बल्लेबाज रन कैसे बनाता है यह महत्वपूर्ण है, लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि वह आउट कैसे होता है। भारतीय टीम के कोच और प्रशासकों को इस पर ध्यान देना होगा। वैसी लापरवाही नहीं होनी चाहिए जो पिछले दो टेस्ट मैचों में नजर आई। जाहिर है कि खिलाड़ी बेसिक्स से दूर हैं और यहां पर कोच की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
विराट कोहली की टीम एकादश में सही फेरबदल न करने के लिए आलोचना हो रही है। लेकिन यह आलोचना समझ से परे और बिल्कुल बेकार है। जो खिलाड़ी अंतिम 16 या 17 में हैं, वे सभी एक ही स्तर के हैं। यह समझ से परे है कि अजिंक्य रहाणे में ऐसा क्या है जो शिखर धवन में नहीं है अथवा के.एल.राहुल में ऐसा क्या खास है जो धवन में नहीं है। राहुल की दोनों पारियों में असफलता उन्हें कोई खराब बल्लेबाज नहीं साबित कर देती है। यही बात भुवनेश्वर और शमी पर भी लागू होती है।
हार-जीत खेल का हिस्सा है,लेकिन कप्तान कोहली के बराबर ही कोच रवि शास्त्री की भी जिम्मेदारी बनती है। जब सब लोग भारत की हार की भविष्यवाणी कर रहे थे, तो ऐसे में टीम को विशेष तैयारी की जरुरत थी जो कि कोच का काम है। आप हार्दिक पांड्या के टैलेंट की पहचान कर सकते हैं,लेकिन मानसिक दृढ़ता उन्हें ही लानी होगी। दोनों पारियों में वह जिस तरह आउट हुए, इस पर कपिल देव का कथन समीचीन है कि हार्दिक की उनसे तुलना तब तक बेकार है जब तक वह अपनी मानसिक दृढ़ता नहीं प्रदर्शित करते हैं। देश के बाहर बल्लेबाजों का प्रदर्शन देखने के बाद कम से कम हम लोगों को मौजूदा खिलाडिय़ों को बेवजह महिमामंडित करने के बजाय यह अहसास दिलाना चाहिए कि उन्हें द्रविड़, सचिन, लक्ष्मण और सौरव तक पहुंचने के लिए काफी मेहनत करनी है।
यह बात पुजारा और विराट पर भी उतनी ही लागू होती है जितनी रोहित, धवन और राहुल पर। सिर्फ मूंछ पर ताव देना या विकेट लेने पर ‘हाइपर’ होकर गाली दे देना न तो आपकी तकनीक का हिस्सा है न ही खेल का। यह आपका चरित्र और स्वभाव तो दर्शाता है, लेकिन आपके खेल के स्तर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह बात भारतीय खिलाडिय़ों को और भी ध्यान से देखनी चाहिए कि डी विलियर्स या अमला क्या यही सब करते हैं? अगर नहीं तो टेलीविजन पर अपनी उपस्थिति दर्ज करने के बजाय मैदान पर ध्यान दें।
खिलाड़ी और क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अगर ठीक समझें तो क्यों नहीं मौजूदा प्लेयर्स को बीच-बीच में राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी भेजकर बेसिक्स को मजबूत करने की दिशा में काम किया जाए। रोटेशन पॉलिसी ने इतना तो कर ही दिया है कि खिलाडिय़ों का बड़ा पूल हमेशा तैयार रहता है। हर बात अच्छे के लिए होती है और दक्षिण अफ्रीका का दौरा भी भारतीय टीम के उस चरित्र को परिलक्षित करने में सफल हुआ है जो लगातार जीतते रहने से पता ही नहीं चल सकता था। अभी तो कुछ भी नहीं हुआ है। भारत में टैलेंट की भरमार है। बस दिशा दिए जाने की आवश्यकता है जैसा राहुल द्रविड़ जूनियर क्रिकेट के साथ कर रहे हैं।