शायद यह अविश्वसनीय सा लगे कि भारत में चुनाव जीतने का बीज मंत्र स्विस बैंक है। स्विस बैंक में है। जिसका रिश्ता कालाधन से जुड़ता है। तकरीबन 30 साल पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ‘मिस्टर क्लीन’ कहे जाने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सफेद कपड़ों पर कालिख लगाने के लिए इसी स्विस बैंक का इस्तेमाल किया था। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह यह कह रहे थे कि बोफोर्स तोपों की खरीद में बड़ा घोटाला हुआ, दलालों की विदाई में 64 करोड़ रुपये देने पड़े। ये रुपये राजीव गांधी और उनके रिश्तेदारों के हाथ लगे।
विश्वनाथ प्रताप हर सभा में दावा करते थे कि बोफोर्स में लिये गये कमीशन के पैसों का वह खुलासा करेंगे। यही नहीं, वह उन दिनों अपने कुर्ते की बगल वाली जेब से एक मुड़ा हुआ कागज निकाल कर हर रैली में दिखाते थे। कहते थे कि इसमें 64 करोड़ रुपये की दलाली लेने वालों के नाम दर्ज है। सरकार बनते ही इसे सबके सामने रख दूंगा।
स्विस बैंक के बीज मंत्र से वह सरकार बनाने में कामयाब हो गये। उनकी सरकार 11 महीने चली। लेकिन स्विस बैंक से न कोई कागज आया, न इस मामले में कोई जेल गया। ठीक 25 साल बाद वर्ष 2014 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में भी स्विस बैंक का बीज मंत्र काम आया। अपने चुनाव अभियान में वह कहते थे कि उनकी सरकार स्विस बैंक में जमा कालाधन वापस लायेगी। कालाधन जमा करने वालों के नामों का खुलासा भी करेगी। स्विस बैंक का जिक्र करके उन्होंने तालियां भी बटोरी और वोट भी। सर्वोच्च अदालत ने 627 खाताधारकों के नाम साझा करने के लिये कालेधन की जांच करने वाली एसआईटी टीम को दिये भी। पर आज तक ये दस्तावेज गोपनीय हैं।
देश में तकरीबन 11 महीने बाद आम चुनाव होंगे। एक बार फिर स्विस बैंक का बीज मंत्र बोतल के जिन्न की मान्निद निकल कर बाहर आ गया है। स्विटजरलैंड के सेंट्रल बैंक के मुताबिक सभी विदेशी ग्रहकों का पैसा वर्ष 2017 में तीन फीसदी से बढकर 1.46 लाख करोड़ स्विस फ्रैंक हो गया है। जबकि भारतीयों के जमा पैसे में पचास फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। यह बढकर 1.01 अरब स्विस फ्रैंक यानी सात हजार करोड़ रुपये हो गया है। कालाधन बाहर भेजने वाले देशों में चीन, रूस, मैक्सिको, भारत और मलेशिया हैं। इनमें अगुवा चीन और सबसे पीछे मलेशिया है। एक आंकड़े के मुताबिक करीब एक खरब डॉलर कालाधन विकासशील देशों से हर साल स्विस बैंकों में जाता है। पिछले दस सालों में विकासशील देशों से बाहर जाने वाला कालाधन इन देशों को मिलने वाली आर्थिक मदद तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से भी ज्यादा है।
सवाल यह उठता है कि आखिर कालाधन वालों के लिए स्विटजरलैंड सुरक्षित क्यों है? इसकी वजह यह है कि बीते तीन सौ साल से स्विटजरलैंड खातों की गोपनीयता का पालन कर रहा है। अगर वहां के बैंकर अपने ग्राहक से जुड़ी जानकारी किसी को देते हैं तो यह अपराध है। स्विटजरलैंड के बैंक गोपनीयता के लिए नंबर्ड अकाउंट खोलते हैं।
बोरा कमेटी ने भी क्राउनी कैपटलिज्म के बारे में जो अपनी रिपोर्ट दी थी उस पर भी किसी सरकार ने काम नहीं किया। क्योंकि कालाधन चुनावी मुद्दे का हिस्सा भले बनता हो, पर उसके बिना चुनाव प्रचार भी संभव नहीं है। इस हकीकत से सत्ता पाने की चाहत में सियासी समर में उतरी हर पार्टियां बिलकुल ठीक से वाकिफ हैं। ऐसे में अगर 1993 में आयी बोरा कमेटी ने क्राउनी कैपटलिज्म का जो खाका खींचा था उसके खिलाफ लड़ाई और स्विस बैंक से कालाधन लाने के खिलाफ जंग प्रचार के मुद्दों से ज्यादा कुछ भी नहीं हो पाती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारत में कोई भी राजनीतिक दल और कोई भी नेता बिना कालेधन के सहारे सियासी विजय गाथा लिख ही नहीं सकता। यही वजह है कि हर सरकार कालेधन को लेकर अपने दावों में उलझ जाती है। वर्ष 2014 में भाजपा ने प्रचार पर 463 करोड़ और कांग्रेस ने 346 करोड़ रुपये खर्च किये थे। जबकि प्रचार के अलावा पूरे चुनाव में भाजपा का खर्चा तकरीबन 781 करोड़ रुपये और कांग्रेस का 571 करोड़ रुपये के आस-पास था। अगले लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों और निर्वाचन आयोग सबके खर्चों को जोड़ दिया जाये तो एक खरब से अधिक रुपया खर्च होगा। आज जब स्विस बैंकों मेें कालेधन में पचास फीसदी बढ़ोत्तरी को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो वित्त मंत्री पियूष गोयल इस जवाब से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं कि जनवरी 2018 से 31 दिसंबर 2019 तक उन्हें स्विस बैंक के लेन-देन का आंकड़ा उपलब्ध हो जायेगा।
इस समस्या को कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, रालोद, अकाली दल, इंडियन नेशनल लोकदल, द्रमुक, अन्नादमुक, राकांपा, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, जनता दल एस, जनता दल यू, राजद, झामुमो, सीपीआई, सीपीएम, बीजद, तृणमूल कांग्रेस, तेलगुदेशम पार्टी आदि के संदर्भ से ऊपर उठकर देखना चाहिये। क्योंकि कब कौन सा राजनीतिक दल स्विस बैंक के बीज मंत्र का कैसा इस्तेमाल करेगा यह कहना मुश्किल है। इस बीजमंत्र से कौन जीतेगा, कौन हारेगा इसका अंदाज भी मुश्किल है? इस बीज मंत्र पर किसकी साधना सटीक है यह अंदाज लगाना भी मुश्किल है? बस यह देखने की जरूरत है कि अगले लोकसभा चुनाव में यह बीज मंत्र किसका ढाल और किसका हथियार बनता है? क्योंकि नरेंद्र मोदी के खिलाफ हो रहे गठबंधन के अधिकांश नेता इस तरह के किसी न किसी सवाल से घिरे हैं?
विश्वनाथ प्रताप हर सभा में दावा करते थे कि बोफोर्स में लिये गये कमीशन के पैसों का वह खुलासा करेंगे। यही नहीं, वह उन दिनों अपने कुर्ते की बगल वाली जेब से एक मुड़ा हुआ कागज निकाल कर हर रैली में दिखाते थे। कहते थे कि इसमें 64 करोड़ रुपये की दलाली लेने वालों के नाम दर्ज है। सरकार बनते ही इसे सबके सामने रख दूंगा।
स्विस बैंक के बीज मंत्र से वह सरकार बनाने में कामयाब हो गये। उनकी सरकार 11 महीने चली। लेकिन स्विस बैंक से न कोई कागज आया, न इस मामले में कोई जेल गया। ठीक 25 साल बाद वर्ष 2014 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में भी स्विस बैंक का बीज मंत्र काम आया। अपने चुनाव अभियान में वह कहते थे कि उनकी सरकार स्विस बैंक में जमा कालाधन वापस लायेगी। कालाधन जमा करने वालों के नामों का खुलासा भी करेगी। स्विस बैंक का जिक्र करके उन्होंने तालियां भी बटोरी और वोट भी। सर्वोच्च अदालत ने 627 खाताधारकों के नाम साझा करने के लिये कालेधन की जांच करने वाली एसआईटी टीम को दिये भी। पर आज तक ये दस्तावेज गोपनीय हैं।
देश में तकरीबन 11 महीने बाद आम चुनाव होंगे। एक बार फिर स्विस बैंक का बीज मंत्र बोतल के जिन्न की मान्निद निकल कर बाहर आ गया है। स्विटजरलैंड के सेंट्रल बैंक के मुताबिक सभी विदेशी ग्रहकों का पैसा वर्ष 2017 में तीन फीसदी से बढकर 1.46 लाख करोड़ स्विस फ्रैंक हो गया है। जबकि भारतीयों के जमा पैसे में पचास फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। यह बढकर 1.01 अरब स्विस फ्रैंक यानी सात हजार करोड़ रुपये हो गया है। कालाधन बाहर भेजने वाले देशों में चीन, रूस, मैक्सिको, भारत और मलेशिया हैं। इनमें अगुवा चीन और सबसे पीछे मलेशिया है। एक आंकड़े के मुताबिक करीब एक खरब डॉलर कालाधन विकासशील देशों से हर साल स्विस बैंकों में जाता है। पिछले दस सालों में विकासशील देशों से बाहर जाने वाला कालाधन इन देशों को मिलने वाली आर्थिक मदद तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से भी ज्यादा है।
सवाल यह उठता है कि आखिर कालाधन वालों के लिए स्विटजरलैंड सुरक्षित क्यों है? इसकी वजह यह है कि बीते तीन सौ साल से स्विटजरलैंड खातों की गोपनीयता का पालन कर रहा है। अगर वहां के बैंकर अपने ग्राहक से जुड़ी जानकारी किसी को देते हैं तो यह अपराध है। स्विटजरलैंड के बैंक गोपनीयता के लिए नंबर्ड अकाउंट खोलते हैं।
बोरा कमेटी ने भी क्राउनी कैपटलिज्म के बारे में जो अपनी रिपोर्ट दी थी उस पर भी किसी सरकार ने काम नहीं किया। क्योंकि कालाधन चुनावी मुद्दे का हिस्सा भले बनता हो, पर उसके बिना चुनाव प्रचार भी संभव नहीं है। इस हकीकत से सत्ता पाने की चाहत में सियासी समर में उतरी हर पार्टियां बिलकुल ठीक से वाकिफ हैं। ऐसे में अगर 1993 में आयी बोरा कमेटी ने क्राउनी कैपटलिज्म का जो खाका खींचा था उसके खिलाफ लड़ाई और स्विस बैंक से कालाधन लाने के खिलाफ जंग प्रचार के मुद्दों से ज्यादा कुछ भी नहीं हो पाती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारत में कोई भी राजनीतिक दल और कोई भी नेता बिना कालेधन के सहारे सियासी विजय गाथा लिख ही नहीं सकता। यही वजह है कि हर सरकार कालेधन को लेकर अपने दावों में उलझ जाती है। वर्ष 2014 में भाजपा ने प्रचार पर 463 करोड़ और कांग्रेस ने 346 करोड़ रुपये खर्च किये थे। जबकि प्रचार के अलावा पूरे चुनाव में भाजपा का खर्चा तकरीबन 781 करोड़ रुपये और कांग्रेस का 571 करोड़ रुपये के आस-पास था। अगले लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों और निर्वाचन आयोग सबके खर्चों को जोड़ दिया जाये तो एक खरब से अधिक रुपया खर्च होगा। आज जब स्विस बैंकों मेें कालेधन में पचास फीसदी बढ़ोत्तरी को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो वित्त मंत्री पियूष गोयल इस जवाब से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं कि जनवरी 2018 से 31 दिसंबर 2019 तक उन्हें स्विस बैंक के लेन-देन का आंकड़ा उपलब्ध हो जायेगा।
इस समस्या को कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, रालोद, अकाली दल, इंडियन नेशनल लोकदल, द्रमुक, अन्नादमुक, राकांपा, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, जनता दल एस, जनता दल यू, राजद, झामुमो, सीपीआई, सीपीएम, बीजद, तृणमूल कांग्रेस, तेलगुदेशम पार्टी आदि के संदर्भ से ऊपर उठकर देखना चाहिये। क्योंकि कब कौन सा राजनीतिक दल स्विस बैंक के बीज मंत्र का कैसा इस्तेमाल करेगा यह कहना मुश्किल है। इस बीजमंत्र से कौन जीतेगा, कौन हारेगा इसका अंदाज भी मुश्किल है? इस बीज मंत्र पर किसकी साधना सटीक है यह अंदाज लगाना भी मुश्किल है? बस यह देखने की जरूरत है कि अगले लोकसभा चुनाव में यह बीज मंत्र किसका ढाल और किसका हथियार बनता है? क्योंकि नरेंद्र मोदी के खिलाफ हो रहे गठबंधन के अधिकांश नेता इस तरह के किसी न किसी सवाल से घिरे हैं?