एकादशी के दिन ब्रजरज में रहना एक बड़ी उपलब्धि है। बड़ा संयोग है। बड़ा अवसर है। यह बांके बिहारी और राधे कृष्ण की कृपा के बिना संभव नहीं है। इस बार एकादशी के दिन यह कृपा मुझ पर बरसी। दिन भर ब्रजरज में जीने का सुखद संयोग मिला। बांके बिहारी के दर्शन का पुण्य भी कमाया। इस संयोग, अवसर और कृपा का श्रेय अक्षय पात्र के बंधुओं को जाता है। अक्षय पात्र इस्कॉन का एक अभीष्ट लक्ष्य है। हरे राम, हरे कृष्ण के संकीर्तन के साथ-साथ बच्चों को शुद्ध और पौष्टिक मिड डे मील उपलब्ध कराने का काम अक्षय पात्र देश के कई राज्य में कर रहा है। अक्षय पात्र की आर्थिकी पर नजर दौड़ाएं तो रोज तकरीबन 80-85 लाख रुपये इस्कॉन अपने अनुयायियों से एकत्रित करके इसमें लगा रहा है।
वृंदावन के अक्षय पात्र परिसर में गत 24 अक्टूबर को एकादशी के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु की मूल पादुका तथा शोभायात्रा का जीवंत दर्शन मेरी स्मृतियों के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। तीन-चार घंटे सर्वथा दूसरे लोक में चले जाने का अनुभव पहली बार हुआ। इस अनुभव का श्रेय बंधु कुलदीप तिवारी का जाता है। श्री अनंत दास जी को मैं जानता तो बहुत दिनों से हूं। पर उन्होंने कभी वृंदावन पहुंचने का आदेश नहीं दिया। यह कुलदीप जी ही थे जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु की पादुका शोभायात्रा के लिए मेरी उपस्थिति मुझसे अनिवार्य करवाई। इन्होंने ही बांके बिहारी के दर्शन कराने की मुक्कमल व्यवस्था भी कराई। वृंदावन पहले भी आया हूं। तकरीबन सभी हिंदू धार्मिक स्थलों पर जाने का अवसर मिल चुका है। पर इस बार वृंदावन का रज कुछ ज्यादा चैतन्य कर रहा था। यहा की माटी में जीवंतता अन्य धार्मिक स्थलों से कुछ ज्यादा है। शायद इसलिए क्योंकि यहां का कण-कण कृष्ण की उपस्थिति और रास का गवाह रहा है। रास ने यहां रंग भर रखे हैं।
चैतन्य महाप्रभु की पादुका यात्रा- नाचते-गाते इस्कॉन के भक्त और श्रद्धालु सब मिल कर दृश्य को बड़ा बिहंगम और चित्ताकर्षक बना रहे थे। नृत्य और संगीत ने एक नया लोक रच दिया था। यह लोक मेरे लिए एकदम नया था। लेकिन बांधता था। उसमें बह जाने के लिए मजबूर करता था। आनंद का अतिरेक था। सारे रस और रंग एकदम नये थे। कार्यक्रम में शैलजाकांत मिश्र जी मिल गए। उनकी पत्नी मंजरी जी भी थीं। राज्य सरकार ने एक अच्छा और प्रशंसनीय कदम उठाते हुए मथुरा वृंदावन में शैलजाकांत जी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे रखी है।
हमारे भारत में जितनी भी मिथकीय कथाएं हैं। उनमें तीन ही ऐसी विभूतियां हैं। जिन्होंने अपने जाने के बाद अपने पीछे अपनी देह तक नहीं छोड़ी। इनमें दो विभूतियां ऐसी हैं जिनका सीधा रिश्ता इस्कॉन के आराध्य श्री कृष्ण से है। इन तीन विभूतियों में कबीर, मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु आते हैं। जिन्होंने हरे-राम, हरे-कृष्ण का बीज मंत्र दिया। ये सारी प्रतिभाएं अपने आराध्य के विग्रह में समाहित हो गई। जैसे, विग्रह और प्रेम के बीच कोई अद्वैत नहीं था। यह इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है। जब हम हमारे भारत कहते हैं तो हमें अपने भारत होने का गर्व होता है। यह हमने रुसी उपन्यासों से पाया है। जिसमें अपना देश लिखते हैं।
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चैतन्य महाप्रभु के जो अनुयायी हैं। वे उसी विग्रह को सीने से लगाए हुए कीर्तन करते हैं। वे सिर्फ भगवान श्री कृष्ण को नहीं लगाए रहते हैं। चैतन्य महाप्रभु श्री कृष्ण के विग्रह में समाहित हो गए थे। इसलिए उनके सीने से चैतन्य महाप्रभु भी लगे रहते हैं। चैतन्य महाप्रभु वैष्णव संप्रदाय के भक्ति योग के शीर्ष कवियों और संतों में आते हैं। जिन्होंने भजन गायिकी के एक नई शैली को जन्म दिया। विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया। होली के दिन जन्में चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधाशिला रखी।
हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे।
हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे।।
महामंत्र दिया। यह महामंत्र संकीर्तन सारी दुनिया में लोकप्रिय हुआ। चैतन्य महाप्रभु ने हमें केवल आठ श्लोक दिए हैं। जिन्हें शिक्षाष्टक कहते हैं। नीम के नीचे जन्म होने के नाते चैतन्य महाप्रभु को निमाई भी कहा जाता था। वह कीर्तन करते-करते नाचने लगते थे। भगवान जगन्नाथ के मंदिर में हरि बोल, हरि बोल कहते कहते वह बेहोश हो गए। प्राण त्यागने के बाद के लक्षण चैतन्य महाप्रभु के शरीर में दिखाई देने लगे। लेकिन जब उनके एक शिष्य ने उनके पैर के तलवों में कान लगाकर यह जांचने की कोशिश की कि महाप्रभु हैं या नहीं। तो उसने सुना कि महाप्रभु के पैर के तलवे से आवाज आ रही थी- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, हरे राम, हरे राम। आज जब कहा जाता है कि कलयुग केवल नाम अधारा। तब तो चैतन्य महाप्रभु और इस्कॉन की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
इस्कॉन मतलब इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉंसेसनेस। इसका जो कॉसेसनेस शब्द है उसका हिंदी मतलब- चैतन्य, भान, बोध, समझ, आपा, ज्ञान होता है। इस्कॉन को हरे कृष्ण मूवमेंट के नाम से भी जाना जाता है। 1966 में न्यूयार्क में श्री अभयचराणरविंद भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद जी ने इस्कॉन की आधारशिला रखी। भगवद गीता इनका धर्म ग्रंथ है। भक्ति योग इनका साधना पथ है। भक्ति के माध्यम से अपने इष्ट श्री कृष्ण को प्रसन्न करना इनका अभियान है। इस्कॉन की आधारशिला रखने वाले स्वामी प्रभुपाद जी ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। वे मानते थे कि मैं अकेला हूं। इसलिए सब कुछ नहीं कर सकता। पर कुछ-कुछ तो कर सकता हूं। कुछ-कुछ करके भी सब कुछ किया जा सकता है। उनके गुरु ने उन्हें यह टास्क दिया कि वे गीता का अंग्रेजी अनुवाद करें। गुरु ने उनसे कहा कि भगवद गीता के ज्ञान को अंग्रेजी में दुनिया को पहुंचाओ। वह गुरु के कहने पर अनुवाद करने लगे। एक दिन उनकी पत्नी ने उनके द्वारा अनुदित किए हुए कागज बेच कर चाय खरीद ली। उन दिनों अंग्रेज चाय पीने का प्रचार कर रहे थे। प्रभुपाद को लगा कि पत्नी ने ‘टी‘ और ‘मी‘ में ‘टी‘ को चुन लिया।
श्री प्रभुपाद जी 70 साल की उम्र में 30 दिन की जहाज की यात्रा करते हुए न्यूयार्क आ गए। यहां उन दिनों वियतनाम और अमेरिका का युद्ध चल रहा था। अमेरिकी सरकार हिप्पियों से परेशान थी। प्रभुपाद जी ने गीता का अंग्रेजी अनुवाद करने के साथ ही साथ सनातन धर्म के विस्तार का भी संकल्प लिया। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले हिप्पियों को अपना लक्ष्य बनाया। उन्हें समझाया कि उनका अभियान हिप्पियों को हैप्पी बनाने का है। उन्होंने दस हजार शिष्य तैयार कर लिए। इस अभियान को अंजाम देने के लिए पैसे जरूरी थे। इसके लिए उन्होंने 1965 से 1974 तक अगरबत्ती बनाने का काम शुरू किया। कई किताबें लिखीं। उनका दुनिया की 25 भाषाओं में अनुवाद कराया। अगरबत्ती के कारोबार में तीन साल में एक मिलियन डॉलर की कमाई हुई। जबकि पांच करोड़ किताबें बांट कर फंड रेज किया।