Banda News: चुनावी पराजय से मिले वैराग्य का पैगाम ग्रहण कर 'हठयोगी' बने स्वामी अवधूत महराज ने 100 वर्ष की आयु में त्यागा शरीर
Banda News: बलराम कठिन तप साधना में रम कर 'हठयोगी' बने और स्वामी अवधूत महराज के रुप में जाने गए। सिमौनी गांव आस्था का केंद्र सिमौनी धाम बन गया।;
Banda News: 69 साल पहले सिमौनी ग्राम प्रधानी के चुनाव में मिली पराजय बलराम को वैराग्य का पैगाम लेकर आई। बलराम कठिन तप साधना में रम कर 'हठयोगी' बने और स्वामी अवधूत महराज के रुप में जाने गए। सिमौनी गांव आस्था का केंद्र सिमौनी धाम बन गया। पूरे देश में प्रसिद्धि मिली। उत्तर प्रदेश के जलशक्ति मंत्री स्वतंत्रदेव समेत पावरफुल शिष्यों की लंबी पंक्ति है। इस पंक्ति से बड़ी आम शिष्यों की पंक्ति है। दोनों पंक्तियों के लोग गुरुदेव के आकस्मिक निधन से आहत हैं। शनिवार तड़के दिल्ली स्थित शिवकला मंदिर आश्रम में स्वामी अवधूत महराज ने करीब 100 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली। हृदयाघात ने उन्हें संभलने नहीं दिया। शनिवार शाम ही दिल्ली के घड़ोली डेरी फार्म में उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनके निधन पर विभिन्न हस्तियों ने दुख जताया है।
32 वर्ष की उम्र में लगा राजनीति का चस्का, पराजय ने दिखाई तप साधना की राह
1923 में बबेरू तहसील के सिमौनी गांव में कर्मकांडी ब्राम्हण पंडित रामनाथ के बेटे के रूप में जन्मे बालक का नाम बलराम रखा गया। बलराम ने शैशव, किशोर और तरुण अवस्था गांव के ही हमजोलियों संग गुजारी। युवा हो कर भी जन सामान्य ही रहे। तकरीबन 32 वर्ष की उम्र में उन्हें राजनीति का चस्का लगा। उन्होंने 1955 के पंचायत चुनाव में हिस्सा लिया। सिमौनी ग्राम प्रधान पद के उम्मीदवार बने। परिणाम आने पर पराजय हिस्से आई। तब कोई नहीं भांप पाया कि यह पराजय बलराम को वैराग्य का पैगाम लेकर आई है।
पूस की रातों में गड़रा नदी में गले तक धंसे रहना और जेठ की दुपहरी में अंगार बने रेत को बिछौना बनाने का किया हठयोग
अचानक बलराम घर छोड़ गए। रातोंरात चित्रकूट पहुंच कर ब्रम्हलीन स्वामी परमहंस से गुरु दीक्षा ली। वस्त्र त्याग का संकल्प लिया। गुरु आश्रम से भेंट में कमंडल और खड़ाऊं लेकर वृंदावन में पहुंचे और कुछ समय तक खुद को सत्संग में रमाया। संतों की सेवा कर आशीर्वाद कमाया। फिर, वापस जन्मभूमि सिमौनी गांव लौटे। जन्मभूमि स्थित अति प्राचीन मौनी बाबा समाधि स्थल को साधना का केंद्र बनाया। समीप ही प्रवाहित गड़रा नदी और उसकी रेती कठिन साधनाओं का जरिया बनी। पूस की कड़कड़ाती ठंड में सूर्यास्त के बाद गड़रा नदी में गले तक उतर कर पौ फटने से पहले तक खड़े रहना और जेठ की चिलचिलाती दोपहरी में गड़रा की रेती को बिछावन बनाकर वासनाएं भस्म करते हुए 'हठयोगी' बनकर सामने आए।
1967 में शुरू हुआ भंडारा लगातार जारी, 15-17 दिसंबर को आयोजन में रुलाएगा हठयोगी का बिछोह
गौरक्षा आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने में भी स्वामी अवधूत पीछे नहीं रहे, बल्कि आगे बढ़कर नेतृत्व भी किया। कहते हैं, 1967 में स्वामी अवधूत को उनके आराध्य संकटमोचक हनुमान महराज ने स्वप्न में सिमौनी स्थित मौनी बाबा समाधि स्थल पर भंडारा करने के लिए प्रेरित किया। हनुमान जी की प्रेरणा से रोपा गया भंडारा का बीज वटवृक्ष बन गया है। जिसकी छांव का आनंद लूटने हर साल तीन दिनों तक हजारों हजार लोगों की भीड़ उमड़ती है। आयोजन में सरकार सहयोगी बनती है। जिला प्रशासन सारे इंतजाम जुटाता है। इस साल भी 15 से 17 दिसंबर तक आयोजन की तैयारियां जारी हैं। लेकिन इस बार हठयोगी स्वामी अवधूत महराज का शरीर नजर नहीं आएगा। उनके आकस्मिक निधन से शिष्य गमजदा हैं। बांदा से आनंद स्वरूप द्विवेदी, बच्चा सिंह, राजाबाबू, पप्पू शर्मा, गंगासागर मिश्र और रमेश पटेल आदि शिष्यों ने दिल्ली पहुंच कर गुरुदेव के अंतिम दर्शन किए। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी।