27 वर्षों से दिल्ली की सत्ता के लिए मचल रही है भाजपा
मुख्य लड़ाई सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता के बीच होने के बाद अब सबकी निगाहें मतगणना पर लगी हुई हैं कि आखिर दिल्ली की जनता सत्ता की चाभी किसके हाथों में सौंप चुकी है।
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: देश की राजधानी दिल्ली में चुनाव होने के बाद उसके रिजल्ट 11 फरवरी को आने हैं। मुख्य लड़ाई सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता के बीच होने के बाद अब सबकी निगाहें मतगणना पर लगी हुई हैं कि आखिर दिल्ली की जनता सत्ता की चाभी किसके हाथों में सौंप चुकी है। चुनाव रिजल्ट को लेकर सबके अपने-अपने दावे हैं लेकिन अतीत पर गौर करें तो भाजपा पिछले 27 वर्षो से दिल्ली की सत्ता पाने के लिए मचल रही है पर उसे सफलता नहीं मिल रही है। दिल्ली में पहली और आखिरी बार भाजपा ने सरकार 1993 में बनाई थी।
पहली बार मदनलाल खुराना को बनाया गया मुख्यमंत्री
बताते चलें कि राज्य का दर्जा मिलने के बाद वह दिल्ली का पहला विधान सभा चुनाव था। जिसमें भाजपा ने मदनलाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसके बाद भाजपा हाईकमान ने खुराना की कार्यशैली को नापसंद किया तो साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री बना दिया गया लेकिन अगले विधानसभा का चुनाव आते -आते दिल्ली की बागडोर संभालने में नाकाम दिख रहे।
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1998 में हुए चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी
साहित सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को दिल्ली की गद्दी सौंपी गयी। पर प्याज के मुद्दे पर सुषमा स्वराज की सरकार को विपक्ष ने बुरी तरह से घेरा। इसके बाद 1998 में हुए चुनाव में भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी और कांग्रेस सत्ता में आ गयी। पार्टी हाईकमान ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री बनाया। इसके बाद शीला दीक्षित ने दिल्ली में विकास की ऐसी गंगा बहाई कि 2003 और 2008 में भी उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी।
राजनीतिक इतिहास में भाजपा का सबसे सुनहरा दौर
दिल्ली को राज्य का दर्जा मिलने के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में जनता दल को सीटें तो केवल चार मिलीं लेकिन वोट लगभग 13 प्रतिशत मिला। उसने कांग्रेस का अच्छा खासा नुकसान किया। जिससे भाजपा को भरपूर लाभ मिला और भाजपा ने लगभग 47 प्रतिशत वोट के साथ 70 विधानसभा वाली दिल्ली में 49 सीटें पाई। इस चुनाव में कांग्रेस ने 35 प्रतिशत वोट लेकर केवल 14 सीटें हासिल कीं। दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में भाजपा का सबसे सुनहरा दौर यही कहा जाएगा।
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1998 में हुए चुनाव में बीजेपी ने जीती 15 सीटें
इसके बाद जब दिल्ली विधानसभा का अगला चुनाव 1998 में हुआ तो कांग्रेस ने 48 प्रतिशत वोट के साथ 52 सीटें जीतीं। वहीं भाजपा 34 फीसद वोट के साथ 15 सीटों पर रह गयी। इसके बाद 2003 के विधानसभा चुनाव जब हुए तो उस समय दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने विकास कार्यो से जनता का मन पहले ही जीत चुकी थी। इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को क्रमशः 49 व 35 प्रतिशत वोट व क्रमशः 47 व 20 सीटें मिलीं।
इसके बाद 2008 में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ही नेतृत्व में कांग्रेस एक बार फिर चुनावी घमासान के बीच चुनाव मैदान में उतरी तो कांग्रेस ने 41 परसेंट वोट के साथ 43 और भाजपा ने 36 फीसद वोट के साथ 23 सीटें हासिल कीं।
2012 केजरीवाल ने गठित की आम आदमी पार्टी
इसी बीच 2012 के अन्ना आंदोलन की उपज कहे जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन किया और 2013 के विधानसभा चुनाव में वह पहली बार चुनाव मैदान में उतरे। इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी ‘आप’ ने लगभग 29 फीसद वोट पाकर 28 सीटें हासिल की जबकि कांग्रेस ने लगभग 25 प्रतिशत वोट के साथ 8 सीट प्राप्त कीं। भाजपा 34 सीटों व 33 प्रतिशत वोट के साथ सरकार बनाने के करीब तो पहुंची लेकिन भाजपा विरोध के चलते आप ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली। चूंकि कांग्रेस का किसी को भी ईमानदारी से समर्थन न देने का इतिहास रहा है लिहाजा यह सरकार लगभग एक साल में ही निपट गयी।
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2015 में चला आम आदमी पार्टी का जादू
2014 की मोदी लहर को लेकर राजनीतिक पंडितों का अनुमान था कि मोदी का जादू 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी चलेगा पर इसका उल्टा हुआ। सारे अनुमान फेल हो गए। जनता ने 55 फीसद वोट के साथ आप को 70 में से 67 सीटें दे दीं और 15 साल लगातार राज करने वाली कांग्रेस का तो खाता नहीं खुला जबकि वोटों का प्रतिशत रहा मात्र नौ प्रतिशत। अब इस बार क्या होगा ? यह तो 11 जनवरी को ही पता चलेगा लेकिन एग्जिट पोल फिलहाल आम आदमी पार्टी के पक्ष में सत्ता की हवा बता रहे हैं।
इस वजह से पीछे रह सकती है बीजेपी
दअरसल दिल्ली में विधान सभा चुनाव में भाजपा के लिए चुनाव न जीत पाने के तीन चार प्रमुख कारण हैं। यहां लगभग 25 प्रतिशत मुस्लिम आबादी एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ वोट करती है। त्रिकोणीय मुकाबले में 2013 में भाजपा सरकार बनाने के करीब पहुंची भी थी। इसी तरह उसने 1993 में मुस्लिम वोट बंटने से अपनी सरकार बना ली थी।
यदि कांग्रेस इस बार मजबूती से चुनाव लड़ी होगी तब तो भाजपा को इसका लाभ मिलेगा लेकिन सीधी लड़ाई में मुस्लिम वोटों का एकतरफा केजरीवाल के प्रति झुकाव भाजपा को सत्ता से रोकने के लिए काफी है।
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