रंगों से सराबोर हो गई देवा शरीफ़ की दरगाह, देश भर से जुटे ज़ायरीन ने खेली रवायती होली
होली पर इस बार भी देवा शरीफ़ की हाजी वारिस अली शाह की सफ़ेद दीवारों वाली दरगाह रंगों से सराबोर हो उठी। दरगाह के आंगन में मौजूद सूफ़ी फ़क़ीर हर तरफ उड़ रहे रंगों में रंगे हुए थे। परंपरा है कि यहां सूखे रंगों से होली खेली जाती है।
बाराबंकी: ब्रज की होली के रंग तो सबने देखे हैं। मथुरा की गलियां तो होली से महीनों पहले ही रंगों से रंग जाती हैं। लेकिन शायद कम लोगों को मालूम है कि जितनी रंगभरी होली देश के दूसरे हिस्सों में खेली जाती है, होली के रंगों से उतनी ही सराबोर हाजी वारिस अली शाह की दरगाह भी होती है। बाराबंकी में सूफी फ़क़ीर वारिस अली शाह की दरगाह इकलौती ऐसी दरगाह है जहां देश भर से जुटे बाबा के मुरीद होली पर जम कर रंग खेलते हैं।
ख़ूब उड़े रंग
होली पर इस बार भी देवा शरीफ़ की हाजी वारिस अली शाह की सफ़ेद दीवारों वाली दरगाह रंगों से सराबोर हो उठी।
दरगाह के आंगन में मौजूद सूफ़ी फ़क़ीर हर तरफ उड़ रहे लाल, पीले, हरे, नीले और गुलाबी रंगों में रंगे हुए थे।
दरगाह में हर तरफ गुलाल उड़ रहा था। परंपरा है कि यहां सूखे रंगों से होली खेली जाती है।
देश भर से पहुंचीं टोलियां
दरगाह के सूफ़ी फ़क़ीर ग़नी शाह वारसी कहते हैं, 'सरकार ने फ़रमाया था कि मोहब्बत में हर धर्म एक है। सरकार ने ही यहां होली खेलने की रवायत शुरू की थी।
सरकार खुद होली खेलते थे और उनके सैकड़ों मुरीद जिनके मज़हब अलग थे, जिनकी भाषाएं अलग थीं, वे उनके साथ यहां होली खेलने आते थे।'
हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर कई ज़ायरीन महाराष्ट्र, दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों से हाजी वारिस शाह के दरबार में होली खेलने आए थे।
दिल्ली से किन्नरों का एक समूह भी होली खेलने दिल्ली से देवा शरीफ़ आया था।
किन्नरों ने कहा, वे पहले होली नहीं खेलते थे लेकिन बाबा की मज़ार पर होली देखने के बाद वे अब हर साल यहां होली खेलने के लिए आने लगे।
मुग़लों और नवाबों की होली
वैसे, मुग़लों के दौर की तमाम ऐसी पेंटिंग्स मौजूद हैं जिनमें मुग़ल बादशाह होली खेलते दिखाए गए हैं।
कहते हैं कि जहांगीर नूरजहां के साथ होली खेलते थे, जिसे 'ईद-ए-गुलाबी' कहा जाता था। यह होली गुलाल और गुलाब से खेली जाती।
बहादुर शाह ज़फ़र का कलाम तो आज भी गाया जाता है, 'क्यों मोपे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी।'
अवध में नवाब वाजिद अली शाह के होली खेलने के तमाम ज़िक्र मिलते हैं।
नवाब आसफ़ुद्दौला खुद आम लोगों के बीच होली खेलते थे और होली के दिन महल सजाया जाता था।
सूफ़ी संतों का होली इश्क़
सूफ़ी बुल्ले शाह लिखते हैं, 'होरी खेलूंगी कह-कह बिस्मिल्लाह, बूंद पड़ी इनल्लाह।' इसे तमाम शास्त्रीय गायकों ने गाया है।
सूफी शाह नियाज़ का कलाम आबिदा परवीन ने गाया है जिनकी होली में पैग़म्बर मोहम्मद साहब के दामाद अली और उनके नातियों हसन और हुसैन का ज़िक्र है।
सूफ़ी शाह नियाज़ लिखते हैं, 'होली होय रही है अहमद जियो के द्वार, हज़रत अली का रंग बनो है, हसन-हुसैन खिलद'।
फिर ख़ुसरो ने भी गाया, 'खेलूंगी होली ख़्वाजा घर आये' या फिर 'तोरा रंग मन भायो मोइउद्दीन।'
जारी है दरगाह की परंपरा
इन्हीं में एक रंग हाजी वारिस अली शाह का भी है, जिसमें उनके मुरीद दूर-दूर से यहां रंगने आते हैं।
यहां होली की शुरुआत कब हुई, किसी को नहीं मालूम लेकिन इसमें शिरकत करने मुल्क के तमाम हिस्सों से तमाम मज़हबों के लोग आते हैं।
बता दें, कि हाजी वारिस अली शाह का रिश्ता इस्लाम के पैग़म्बर मोहम्मद साहब के ख़ानदान से माना जाता है।
आगे देखिये हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर होली के रंगों के फ़ोटोज़....