Kumbh: कुम्भ' शब्द का अर्थ

Kumbh: गंगा को देवताओं की नदी या सुरसरि के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में जो यह खोज की गई थी उसेउन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में यह सिद्ध कर दिया कि गंगाजल में उल्लेखनीय गुण प्राप्त हुए हैं।

Newstrack :  Network
Update:2024-11-21 17:16 IST

Kumbh

Kumbh: कुम्भ शब्द के बहुत से अर्थ मिलते हैं, अर्थात 'कुम्भ' शब्द बहुत व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है। कुम्भ शब्द का अर्थ है कलश या घडा । और मानव शरीर का भी एक पर्यायवाची कुम्भ है । जैसे घड़े में कोई भी द्रव्य पदार्थ भरा जाता है, वैसे ही मानव शरीर में आत्मा का निवास होता है। ग्रन्थ संख्या-12452, दशकर्मपद्धति में कहा गया है कि कलश के मुख में विष्णु , कंठ में भगवान शंकर, मूल में ब्रह्मा, मध्य भाग में मातृगण एवं चारों वेद सभी अंगों सहित सप्तद्वीप पृथ्वी आदि सभी कलश में समाश्रित हैं।

स्नान के उद्भव और महत्व के रूप में जाना जाने वाला पर्व या त्योहार कुम्भ मेले के विषय में बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। ‘जे. टॉलब्वाय व्हीलरहिस्ट्री ऑफ इण्डिया फ्राम अर्लियर एजेज’ का मानना है कि जल शुद्धता का प्रतीक है और यह अग्नि की भांति ही प्रत्येक घरों के लिए आवश्यक है, जल के शुद्धिकरण सम्बन्धी गुण का जब से एहसास हुआ है, तब से इसका शरीर से सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में बहुत समय नहीं हुआ है कि इसके आध्यात्मिक गुण का भी हम महत्व समझते हैं। गंगाजल में विशिष्ट स्वच्छता गुण होने और उससे मानव को होने वाले लाभ के कारण इसकी प्रशंसा की गई है। सिन्धु सभ्यता के अन्तर्गत मोहनजोदड़ो से प्राप्त स्नानागार की विशेषता बताते हुए जॉन मार्शल कहते हैं कि मोहनजोदड़ो के निवासियों में स्नान का औपचारिक महत्व था। जल के प्रति यहां के निवासियों के द्वारा किया गया यह सम्मान कोई अलग नहीं था और इसे आर्य और इसके पहले के लोग भी महत्व देते थे।


किसी उद्देश्य के लिए स्नान करना और धुलना दुनिया के लगभग सभी धर्मों में होता है। टॉलव्वाय व्हीलर दोबारा लिखते हैं कि आग के बाद जल ही एक ऐसा तत्व है जिसे धार्मिक उपासना में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यदि हम भारत तक सीमित रहें तो वैदिक काल में जिसका समय मैक्समूलर के अनुसार लगभग 1200 - 1000 ई.पू. है, ऋग्वेद के अष्टमअष्टक में कुम्भ पर्व का प्रमाण मिलता है (संदर्भ-महाकुम्भविशेषांक-2001)- जघान वृत्रं स्वधित्तिवं नेव रूरोज पुरो अरन्दनसिन्धून ।

विभेद गिरिं नवभिन्नकुंभ भागा इन्दो अकृणुता स्वयुग्भि ।। 10 | 87|| 7

इसका अर्थ यह है कुम्भ पर्व में तीर्थयात्रा करने वाला मनुष्य स्वयं अपने फलस्वरूप से प्राप्त होने वाले सत्कर्मों, दान, यज्ञादि से काष्ठ काटने वाले कुल्हाड़े आदि की तरह अपने पापों का विनाश करता है, जिस प्रकार सिंधु आदि नदियां अपने तटों को नष्ट करते हुए प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार कुम्भ पर्व मनुष्य के पूर्व जन्मार्जित किये हुए सत्कर्मों से उनके शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन कृत्रिम पर्वतों की भांति बादलों से संसार में सुवृष्टि करते हैं। वैदिक काल में जल की महत्ता दर्शाई गई है और वैदिक स्तुतियों में जल के देवता वरुण माने जाते हैं। हमारे पूर्वज ऐसा मानते हैं कि जल ईश्वर द्वारा दिया गया मानवता के लिए एक उपहार है, कुंआ, तालाब, नदी जिसके द्वारा जल प्राप्त होता है, वह हमारे लिए सम्मान की वस्तु है।


विशिष्ट कारणों से नदियों को हम अलग सम्मान देते हैं। अनन्त काल से सदानीरा नदियां जीवन जीने के विचार देती रही हैं। यह हमें नहीं पता हैकि यह कहाँ से बहना प्रारम्भ हुई हैं और कहाँ तक आ रही हैं, लेकिन सदा से बह रही हैं। इस सम्बन्ध में ऋग्वेद में नद्यः (River) बताए गये हैं, इस प्रकार की कोई सूचना किसी सूक्त के बारे में नहीं है, बल्कि जो भी पुस्तकें उपलब्ध हैं उनमें न केवल देवता, बल्कि ऋषियों का भी उल्लेख श्लोकों में मिलता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न काल कीअनुक्रमणिका भी बनाई गई है। 800 से 1000 ईसा पूर्व के मध्य शौनक नामक एक विद्वान की जानकारी मिलती है जिन्होंने अनुक्रमणिका बनाई जिसमें समस्त सूचनाएं मिलती हैं। ऋग्वेद में ऐसे बहुत सारे श्लोक हैं जिनमें नदियों और उनके देवताओं के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त होते हैं।सिन्धु नदी की विशेषताओं से युक्त नौ मन्त्र भी मिलते हैं, मन्त्र संख्या-5 मेंबहुत सारी नदियों का उल्लेख मिलता है जिनमें सतलज, रावी, व्यास, चिनाब, झेलम और सहायक नदियों के साथ ही गंगा- यमुना और सरस्वती का उल्लेख मिलता है।


सरस्वती वही है जिसका संगम गंगा-यमुना के साथ प्रयाग में हुआ है।ऋग्वेद का नवां मण्डल बाद में जोड़ा गया है। 600-300 ई.पू. के मध्य यह खिल बाद में जोड़ा गया है, कुछ विद्वान कहते हैं कि 10वां मण्डल 1500 ई.पू. के मध्य या 300 ई.पू. के मध्य जोड़ा गया जब आर्य पूर्ण रूप सेप्रकाश में आये और सिन्धु से परिचित हो चुके थे। ऋग्वेद के 10वें मण्डल, 75वां सूक्त के 5वें मन्त्र के प्रारम्भ में गंगा-यमुना का उल्लेख आया है।आर्यों को गंगा-यमुना के माहात्म्य का परिचय प्राप्त हुआ। आर्य गंगा के मैदान से परिचित हो चुके थे। गंगा को देवताओं की नदी या सुरसरि के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में जो यह खोज की गई थी उसेउन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में यह सिद्ध कर दिया कि गंगाजल में उल्लेखनीय गुण प्राप्त हुए हैं। मेगस्थनीज (इण्डिकाका लेखक जो मौर्यकाल में भारत आया था) ने भी गंगा का वर्णन कियाहै। कुछ दिनों बाद लोगों को यमुना नदी की विशिष्टता की जानकारी भी प्राप्त हुई, क्योंकि यह नदी भगवान श्रीकृष्ण के प्रारम्भिक जीवन से जुड़ी हुई थी।

( उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग से प्रकाशित पुस्तक कुम्भ-2019 प्रयागराज से साभार।)

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