Maha Kumbh 2025: जानिए इस अखाड़े की शौर्य गाथाओं के बारे में, 18 बार अकबर को किया था नजरबंद

Maha Kumbh 2025: कुंभ के दौरान सर्वाधिक महत्व यहां स्नान करने आए नाग, साधू संतों का होता है जो अलग अलग अखाड़ों से संबंध रखते हैं। अखाड़ों की बात करें तो अखाड़ों की शुरुआत आदि गुरु कहे जाने वाले शंकराचार्य ने की थी।

Written By :  Jyotsna Singh
Update:2024-11-15 20:26 IST

जानिए इस अखाड़े की शौर्य गाथाओं के बारे में, 18 बार अकबर को किया था नजरबंद: Photo- Social Media

Maha Kumbh 2025: धरती पर यदि धर्म और अध्यात्म का कही संगम होता दिखाई देता है तो वह कुंभ स्नान का स्वर्गीय नजारा ही हो सकता है। जहां मौजूद हर व्यक्ति सीधा अपने परमात्मा से जुड़ाव होता हुआ महसूस करता है। कुंभ के दौरान सर्वाधिक महत्व यहां स्नान करने आए नाग, साधू संतों का होता है जो अलग अलग अखाड़ों से संबंध रखते हैं। अखाड़ों की बात करें तो अखाड़ों की शुरुआत आदि गुरु कहे जाने वाले शंकराचार्य ने की थी। कुछ ग्रंथों के मुताबिक अलख शब्द से ही 'अखाड़ा' शब्द की उत्पत्ति हुई है। जबकि धर्म के कुछ जानकारों के मुताबिक साधुओं के अक्खड़ स्वभाव के चलते इसे अखाड़ा का नाम दिया गया है।

अखाड़ा का सीधा सा मतलब है जहां पहलवानी का शौक रखने वाले लोग दांव पेंच सीखते हैं। अखाड़े में बदन पर मिट्टी लगा कर ताकत आजमाते हैं और दुश्मनों को पटखनी देने की नई नई तकनीक ईज़ाद करते हैं। ये अखाड़े पहलवानी के काम आते हैं। बाद में कुछ ऐसे अखाड़े सामने आए जिनमें पहलवानी के बजाए धर्म के दांव-पेंच आजमाए जाने लगे।

देश के चार कोनों उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगरनाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकापीठ की स्थापन कर शंकराचार्य ने धर्म को स्थापित करने की कोशिश की। इसी दौरान उन्हें लगा कि समाज में जब विरोधी शक्तियां सिर उठा रही हैं तो सिर्फ आध्यात्मिक शक्तियों के जरिये इन चुनौतियों का मुकाबला काफी नहीं है। शंकराचार्य ने जोर दिया कि युवा साधु कसरत करके शरीर को सृदृढ बनाये और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसके लिए ऐसे मठ स्थापित किये जायें जहां कसरत के साथ ही हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाए। ऐसे ही मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा।

प्राचीनकाल में धार्मिक अखाड़ों की स्थापना आदि गुरू शंकराचार्य ने मठ-मंदिरों और आम जनमानस को आक्रमणकारियों से बचाव के लिए किया था। आदि गुरू शंकराचार्य का जन्म आठवीं शताब्दी के मध्य में हुआ था, जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा अच्छी नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे आक्रमणकारी यहाँ से खजाना लूट कर ले गए। कुछ भारत की दिव्य आभा से मोहित होकर यहीं बस गए। धर्म ध्वजा अखाड़ा की पहचान होती है। कुंभ पर्व पर जहां अखाड़ों का शिविर लगता है, वहीं उनकी धर्मध्वजा भी लहराती रहती है। धर्म ध्वजा में अखाड़ा के आराध्य का चित्र अथवा धार्मिक चिह्न होता है,जबकि अखाड़ा के आराध्य की प्रतिमा शिविर के मुख्य स्थान में स्थापित होती है। फिलहाल देश में कुल 13 अखाड़े हैं जिसमें 7 शैव, 3 बैरागी और 3 उदासीन अखाड़े हैं। ये अखाड़े देखने में एक जैसे लगते हैं । लेकिन इनकी परंपराएं और पद्धतियाँ बिल्कुल भिन्न हैं। शैव अखाड़े जो शिव की भक्ति करते हैं, वैष्णव अखाड़े विष्णु के भक्तों के हैं और तीसरा संप्रदाय उदासीन पंथ कहलाता है। उदासीन पंथ के लोग गुरु नानक की वाणी से बहुत प्रेरित हैं, और पंचतत्व यानी धरती, अग्नि, वायु, जल और आकाश की उपासना करते हैं।

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शैवों और वैष्णवों में शुरू से रहा है संघर्ष

शैवों और वैष्णवों में शुरू से संघर्ष रहा है। शाही स्नान के वक्त अखाड़ों की आपसी तनातनी और साधु-संप्रदायों के टकराव खूनी संघर्ष में बदलते रहे हैं। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई थीं। वर्ष 1760 में शैव सन्यासियों और वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुंभ में भी शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। वर्ष 1954 के कुंभ में मची भगदड़ के बाद सभी अखाड़ों ने मिलकर अखाड़ा परिषद का गठन किया। विभिन्न धार्मिक समागमों और खासकर कुंभ मेलों के अवसर पर साधु संतों के झगड़ों और खूनी टकराव की बढ़ती घटनाओं से बचने के लिए “अखाड़ा परिषद” की स्थापना की गई। इन सभी अखाड़ों का संचालन लोकतांत्रिक तरीके से कुंभ महापर्व के अवसरों पर चुनाव के माध्यम से चुने गए पंच और सचिवगण करते हैं।

शैव संन्यासी संप्रदाय के 7 अखाड़े हैं:

1.श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, दारागंज, प्रयाग (उत्तर प्रदेश)।

2.श्री पंच अटल अखाड़ा, चैक हनुमान, वाराणसी, (उत्तर प्रदेश) ।

3.श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी, दारागंज , प्रयाग (उत्तर प्रदेश)।

4.श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती त्रयम्बकेश्वर, नासिक (महाराष्ट्र)।

5.श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, बाबा हनुमान घाट, वाराणसी, (उत्तर प्रदेश)।

6.श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा दशाश्वमेघ घाट, वाराणसी, (उत्तर प्रदेश)।

7.श्री पंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा, गिरिनगर, भवनाथ, जूनागढ़ (गुजरात)।

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बैरागी वैष्णव संप्रदाय के 3 अखाड़े

1.श्री दिगंबर अनी अखाड़ा, शामलाजी खाकचौक मंदिर, साभंर कांथा, (गुजरात)।

2.श्री निर्वानी आनी अखाड़ा, हनुमान गढी, अयोध्या (उत्तर प्रदेश)।

3.श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा- धीर समीर मंदिर बंसीवट, वृंदावन, मथुरा (उत्तर प्रदेश)

वहीं उदासीन संप्रदाय के तीन अखाड़े हैं जिसमें पहला अखाड़ा है:-

1.श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा- कृष्णनगर, कीटगंज, प्रयाग (उत्तर प्रदेश) ।

2.श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन- कनखल, हरिद्वार (उत्तराखंड) ।

3. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा- कनखल, हरिद्वार (उत्तराखंड) से है।

श्री पंच अटल अखाड़े से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य

शैव संन्यासी संप्रदाय के 7 अखाड़ों में अगर हम श्री पंच अटल अखाड़े से जुड़ी परंपराओं के बारे में बात करें तो इस अखाड़े की खासियत है कि इसमें केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दीक्षा ले सकते हैं। श्री पंच अटल अखाड़ा, वाराणसी के चैक हनुमान में स्थित है। इसकी स्थापना 569 ईस्वी में हुई थी। यह अखाड़ा बुद्धि के अधिष्ठाता श्री गजानन गणेश को अपना आराध्य मानता है।

पंच अटल अखाड़े का इतिहास

अटल साधना, अटल समाधि, अटल संकल्प, अटल विश्वास और अटल विरासत कुंभ की परंपरा में पल्लवित और आदि गणेश के आशीर्वाद से सनातन संस्कृति के विस्तार का आधार है अटल अखाड़ा। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए शुरुआत में चार अखाड़ों का गठन किया था उनमें से एक अटल अखाड़ा भी है और गणेश इसके इष्ट देव हैं। अटल अखाड़े का इतिहास ऐसा है कि इसे आप सुनेंगे तो आश्चर्य से भर जाएंगे सनातन धर्म की रक्षा के साथ 1857 की क्रांति की बात करें या फिर चाहे आजादी की लड़ाई के बाद भगत सिंह के वक्त तक अटल अखाड़े का जो इतिहास है उसकी वीरताएं गाथाएं भरी पड़ी हैं। अटल अखाड़े का इतिहास बहुत वैभवशाली है । सनातन धर्म की रक्षा के लिए भगवान शंकराचार्य ने सबसे शुरुआत में जिन अखाड़े का गठन किया उनमें से एक है अटल अखाड़ा। श्री पंचायती अटल अखाड़ा की स्थापना विक्रम संवत 703 और सन 550 ईसवी में की गई थी। आवाहन अखाड़े के बाद अटल ही ऐसा अखाड़ा था सनातन धर्म की रक्षा के लिए जिसकी स्थापना की गई। दस्तावेज और परंपरा के आधार पर श्री पंचायती अटल अखाड़ा की स्थापना जरूर 550 ई के आसपास बताई जाती है लेकिन अखाड़े के संतों का एक दूसरा मत भी है, संत कहते हैं कि अटल अखाड़े का अस्तित्व शंकराचार्य के पहले भी था और इष्ट देव आदि गणेश को साक्षी मानकर धर्म प्रचार कर रहा था । लेकिन इतना जरूर है शंकराचार्य के द्वारा औपचारिक तौर से स्थापित किए जाने के बाद इसका वैभव बहुत ज्यादा बढ़ गया।

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18 बार अकबर को उसी के किले में किया था नजर बंद

अटल अखाड़े की वीरता की बात करें तो इसका गौरवशाली शौर्य से भरा भारत का इतिहास मिलता है। संतों ने आठवीं शताब्दी से लेकर आजादी की लड़ाई तक कई संग्राम लड़ाई जीते और धर्म रक्षा के साथ ही साथ राष्ट्र रक्षा का भी मार्ग प्रशस्त किया।ये कितने वीर थे इसकी भी एक बड़ी रोचक कहानी सुनने को मिलती है और कहानी यह है कि अटल अखाड़े के लोग संतों ने अकबर को 18 बार उसी के किले में नजर बंद कर दिया था और यही वजह थी कि खुद अकबर ने अटल अखाड़े को नागा संतो को बादशाह की उपाधि दी थी। इस परंपरा में चार उपनाम भी मिलते हैं। इन नाम में अटल अखाड़े को बादशाह, आवाहन अखाड़े को सरकार, आनंद अखाड़े को पुजारी और जूना को सैनिक कहा गया है। जूना अखाड़े का पहला भैरव अखाड़ा नाम था।

मुगल काल में धोखे से की गई थी इनकी सामूहिक हत्या

श्री पंचायती अटल अखाड़े के बेड़े में गोला बारूद, अस्त्र शस्त्र के साथ सवा लाख साधु हर वक्त होते थे। अटल अखाड़े की सेना इतनी बड़ी थी कि अहमदाबाद के धोलका, धुंधका और विरमगांव के शहर कांड में केवल अटल अखाड़े के ही 65000 संत मारे गए थे।

धोलका, धुंधका और विरम वही गांव हैं जहां आवाहन, अटल और आनंद अखाड़े के संतो को भंडारे के बहाने जहर देकर मार दिया गया था। इन तीन गांव में आज भी संन्यासी पानी तक नहीं पीते । श्री पंचायती अटल अखाड़े के परंपरा और इतिहास में जाएं तब इसकी विशालता का अंदाजा अपने आप हो जाता है । अटल अखाड़े का इतिहास जितना बड़ा है उतनी ही रहस्यमय है इसकी कहानियां।

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कुंभ स्नान पर इस तरह निकलती है अटल अखाड़े की पेशवाई

कुंभ परंपरा के अनुसार कुंभ स्नान पर अखाड़े के संत दही-खिचड़ी का प्रसाद खाकर निकलते हैं। फूलों से सजी पालकी पर गुरु गजानन भगवान और आचार्य महामंडलेश्वर अटल पीठाधीश्वर स्वामी विश्वात्मानंद जी महाराज की अगुवाई में पेशवाई में बड़ी संख्या में नागा संन्यासी, महामंडलेश्वर, साधु-संत, श्रद्धालु झूमते-नाचते, गाते हुए चलते हैं। प्रत्येक महामंडलेश्वर के रथ के आगे बैंडबाजे देशभक्ति की धुन और भजन कीर्तन के साथ सम्मान के साथ नागा संन्यासी भालों को कंधे पर लेकर आगे-आगे चलते हुए दिखाई देते हैं। शाही स्नान में सबसे पहले इन्हीं भालों को स्नान कराया जाता है।फूलों से सुसज्जित रथों पर आचार्य और अन्य महामंडलेश्वरों के अतिरिक्त अन्य रथों पर वरिष्ठ संत और श्रीमहंत बैठे। पेशवाई में हाथी, घोड़े, ऊंट पर नागा संन्यासी और साधु विराजकर पेशवाई में शामिल होते हैं। नगाड़ों और हर हर महादेव के जयकारों के बीच पेशवाई में शिव तांडव, कृष्ण लीला सहित कई तरह की झांकियां भी निकाली जाती हैं। महांमडलेश्वरों के साथ बड़ी संख्या में श्रद्धालु भी जयकारे लगाते हैं।

संतों को मिलती है गलतियों की सजा

कुंभ में शामिल होने वाले सभी अखाड़े अपने अलग-नियम और कानून से संचालित होते हैं। यहां जुर्म करने वाले साधुओं को अखाड़ा परिषद सजा देता है। छोटी चूक के दोषी साधु को अखाड़े के कोतवाल के साथ गंगा में पांच से लेकर 108 डुबकी लगाने के लिए भेजा जाता है। डुबकी के बाद वह भीगे कपड़े में ही देवस्थान पर आकर अपनी गलती के लिए क्षमा मांगता है। फिर पुजारी पूजा स्थल पर रखा प्रसाद देकर उसे दोषमुक्त करते हैं। विवाह, हत्या या दुष्कर्म जैसे मामलों में उसे अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है। अखाड़े से निकल जाने के बाद ही इन पर भारतीय संविधान में वर्णित कानून लागू होता है।

अगर अखाड़े के दो सदस्य आपस में लड़ें-भिड़ें, कोई नागा साधु विवाह कर ले या दुष्कर्म का दोषी हो, छावनी के भीतर से किसी का सामान चोरी करते हुए पकड़े जाने, देवस्थान को अपवित्र करे या वर्जित स्थान पर प्रवेश, कोई साधु किसी यात्री, यजमान से अभद्र व्यवहार करे, अखाड़े के मंच पर कोई अपात्र चढ़ जाए तो उसे अखाड़े की अदालत सजा देती है। अखाड़ों के कानून को मानने की शपथ नागा बनने की प्रक्रिया के दौरान दिलाई जाती है। अखाड़े का जो सदस्य इस कानून का पालन नहीं करता उसे भी निष्काषित कर दिया जाता है।

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अखाड़ों से जुड़े नियम और कौन संत ले सकते हैं दीक्षा

विभन्न अखाड़ों के अपने-अपने नियम हैं। जैसे बात अगर अटल अखाड़े की करे तो इसमें केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दीक्षा ले सकते हैं और कोई भी अन्य इस अखाड़े में नहीं आ सकता है। इसी तरह अवाहन अखाड़ा में अन्य अखाड़ों की तरह महिला साध्वियों को दीक्षा नहीं दी जाती है। निरंजनी अखाड़ा सबसे ज्यादा शिक्षित अखाड़ा माना जाता है। इस अखाड़े में महामंडलेश्वरों की संख्या 50 है। अग्नि अखाड़े में केवल ब्रह्मचारी ब्राह्मण ही दीक्षा ले सकते हैं। महानिर्वाणी अखाड़ा के पास महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा की जिम्मेदारी होती है। वहीं आनंद अखाड़ा शैव अखाड़ा है जिसे आज तक एक भी महामंडलेश्वर नहीं बनाया गया है। इस अखाड़े में आचार्य का पद ही प्रमुख होता है। दिगंबर अणि अखाड़े को वैष्णव संप्रदाय में राजा कहा जाता है। इस अखाड़े में सबसे ज्यादा खालसा यानी 431 हैं। निर्मोही अणि अखाड़े में वैष्णव संप्रदाय के तीनों अणि अखाड़ों में सबसे ज्यादा अखाड़े शामिल हैं। इनकी संख्या 9 है। निर्वाणी अणि अखाड़े में कुश्ती प्रमुख होती है। इसी वजह से इससे जुड़े कई संत पेशेवर पहलवान रह चुके हैं। उदासीन अखाड़े का उद्देश्य सेवा करवा है। इस अखाड़े में केवल 4 मंहत होते हैं जो कभी कामों से निवृत्त नहीं होते है।

अखाड़ों में चुनाव के नियम

-जूना अखाड़ा :3 और 6 साल में चुनाव। 3 साल में कार्यकारिणी, न्याय से जुड़े साधुओं का और 6 साल में अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष का चुनाव किया जाता है।

-पंचायती निरंजनी अखाड़ा :पूर्ण कुंभ, अर्द्धकुंभ इलाहाबाद में छह-छह साल में नई कमेटी चुनते हैं।

-पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा :5 साल में पंच परमेश्वर चुनते हैं।

-पंच दशनामी आवाहन अखाड़ा :तीन साल में रमता पंच। बाकी छह साल में चुनाव।

-पंचायती आनंद अखाड़ा : छह साल में होते हैं चुनाव।

-पंच अग्नि अखाड़ा :तीन साल में चुनाव।

-पंच रामानंदी निर्मोही अणि अखाड़ा :छह साल में चुनाव।

इन अखाड़ों में नहीं होते चुनाव

-पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा: पंच व्यवस्था नहीं। चार महंत होते हैं, जो आजीवन रहते हैं, रिटायर नहीं होते।

-पंचायती उदासीन नया अखाड़ा :एक बार बने तो आजीवन रहते हैं।

-पंचायती निर्मल अखाड़ा: चुनाव नहीं होते, स्थाई चुनते हैं।

-पंच दिगंबर अणि अखाड़ा: चुनाव नहीं। एक बार चुनते हैं। उन्हें असमर्थता, विरोध होने पर पंच हटाते हैं।

-पंच रामानंदी निर्वाणी अणि अखाड़ा:

-एक बार चुने जाने पर आजीवन या जब तक असमर्थ न हो जाएं।

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कैसे बनते हैं नागा साधू

भारत की संन्यास परंपरा का ऐसा नाम जिसका जिक्र करते ही रोमांच और उत्सुकता आसमान तक पहुंच जाती है। नागा शब्द का अर्थ : 'नागा' शब्द की उत्पत्ति के बारे में कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह शब्द संस्कृत के 'नागा' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है और इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं। कच्छारी भाषा में 'नागा' से तात्पर्य 'एक युवा बहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है। टोल्मी के अनुसार 'नागा' का अर्थ 'नंगे' रहने वाले व्यक्तियों से है। डॉक्टर वैरियर इल्विन का कथन है कि 'नगा' शब्द की उत्पत्ति 'नॉक' या 'लोग' से हुई है। अत: उत्तरी-पूर्वी भारत में रहने वाले इन लोगों को 'नगा' कहते हैं। राख से लिपटे हुए, बिना लिबास वाले, माथे पे तिलक, हाथों मे त्रिशूल और आंखों में हरदम एक अलग सा गुस्सा और जुबां पर हर दम ‘हर हर महादेव ‘का नारा इन नागाओं की पहचान है। जो हमेशा कुंभ के समय गंगा घाटों पर हजारों की भीड़ के साथ उमड़ पड़ते हैं। नागा भलें ही आपकों अलग इसलिए लगते हों क्योंकि ये लोग नग्न रहते हैं लेकिन असल में एक नागा बनना इतना आसान नही है, कहा जाता है कि 12 साल की कठिन तपस्या के बाद ही एक आम इंसान नागा साधु बन पाता है।

ये होती है नागा साधु बनने के प्रक्रिया...

पहला चरण - लेखा-जोखा रखने वाला आदमी व्यक्ति से जुड़े ब्यौरे लेता है, मसलन उसका नाम, तारीख वगैरह। उसके बाद उसका सिर मुंडवा दिया जाता है। फिर मंत्र गुरु के साथ शिष्य पवित्र अग्नि के पास त्रिकोण बनाकर बैठते हैं। ईश्वर को पुष्म और जल अर्पित करते है। चार गुरुओँ द्वारा भस्म, लंगोटी, जनेऊ और रूद्राक्ष दिया जाता है। इसके बाद नागा साधु बनने के इत्छुक व्यक्ति के सिर पर जो चोटी बची होती है उसे भी हटा दिया जाता है। काम में उसके मंत्र कहा जाता है और नया नाम दिया जाता है।

दूसरा चरण - इसमें महापुरूष से संन्यासी बनने की प्रक्रिया होती है। विराज हवन नाम का यज्ञ कुंभ मेले के वक्त होता है। लेकिन इससे पहले एक इसके साथ ही उसे घर परिवार के पास संसार के पास लौटने का आखिरी मौका दिया जाता है। इसके बाद महापुरूष को कपड़े उतारकर कुछ कदम उत्तर दिशा की ओर चलने के लिए कहा जाता है। फिर वापस बुला लिया जाता है। दरअसल, ये हिमालय की यात्रा को दर्शाने वाला कदम है। अब महापुरूष वापस अखाड़े में लौटता है। जिसके बाद चार चिताओं की आड़ में यज्ञ शुरू होता है। अब वो दुनिया के लिए मर चुका है।

टांग तोड़ - किसी भी नागा अखाड़े के बीचों बीच स्थापित एक लंबा स्थापित खंभा कीर्ति स्तंभ का बहुत बड़ा महत्व है। संन्यासी चार महंतों के साथ इस स्तंभ के सामने पहुंचता है। जल का लोटा लिए एक आचार्य उसके सामने आते हैं। संन्यासी के ऊपर जल डालने के बाद आचार्य पूरी ताकत से उसका लिंग खींचते हैं। वो भी एक बार नहीं बल्कि पूरे तीन बार। इस संस्कार को टांग तोड़ कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि टांग तोड़ में सन्यासी के लिंग के नीचे का मेम्ब्रेन तोड़ दिया जाता है जिससे उसका लिंग कभी भी उत्तेजित अवस्था में नहीं आता। इससे उसके अंदर की काम की इच्छा ही मर जाती है वह वासना और काम के किसी भी किस्म से मुक्त हो जाता है।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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