आशुतोष सिंह
वाराणसी: महिलाओं के शरीर में होने वाली आंतरिक प्रक्रिया मासिक धर्म को लेकर देश में एक नई बहस छिड़ी हुई है। गत दिनों संसद तक में इसकी गूंज सुनाई पड़ी। इसे लेकर एक फिल्म तक बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की एक बेटी ने मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियों के प्रति महिलाओं को जागरूक करने की अनोखी मुहिम छेड़ी है। नाम है स्वाति सिंह। स्वाति गांव-गांव जाकर महिलाओं को पीरियड्स से जुड़ी बातें बताकर उनकी झिझक दूर करने की कोशिश कर रही हैं।
गांवों में स्वाति की सार्थक पहल
बीएचयू से पत्रकारिता से परास्नातक कर चुकी स्वाति आज वाराणसी में महिलाओं के लिए नजीर बन चुकी हैं। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने देश के एक बड़े मीडिया हाउस में कुछ सालों तक काम किया, लेकिन उनके दिल में कुछ अलग करने का जज्बा था। यही कारण है कि वे दिल्ली छोडक़र वाराणसी लौट आईं और कुछ साथियों के साथ मिलकर मासिक धर्म पर महिलाओं को जागरूक करना शुरू कर दिया। उनकी मुहिम का ही असर है कि मासिक धर्म जैसे विषय पर महिलाएं बेहिचक अपनी बात रखती हैं।
काशी की इस बेटी ने पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ नारी शक्ति में न केवल ज्ञान की ज्योति जला रखी है बल्कि कई सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ चुप्पी तोडऩा भी सिखा रही हैं। शहर से दूर गांव की महिलाओं, खास तौर से युवतियों के बीच वे मासिक धर्म से जुड़े मिथक और भ्रांतियां दूर कर रही हैं। आम तौर पर समाज मासिक धर्म पर बात करने से गुरेज करता है,लेकिन स्वाति इस मसले पर खुलकर चर्चा करती हैं। स्वाति कहती हैं कि सदियों से छिपाई जाने वाली बात के खिलाफ चुप्पी तोडऩा, लड़कियों की झिझक खत्म कर इस मुद्दे पर बात करने को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से साल भर पहले ‘मुहिम: एक सार्थक पहल’ की शुरुआत की गई। बनारस के असवारी, नागेपुर, खुशीपुर, भदवड़, सिहोरवां, फरीदपुर जैसे तमाम गांवों में यह मुहिम चलाई जा रही है। स्वाति कहती हैं कि शहर से ज्यादा इस मुद्दे पर काम करने की जरूरत हमने गांव में समझी।
संसद में सुनाई देने लगी गूंज
पिछले दिनों संसद में भी मासिक धर्म को लेकर चर्चा हुई थी। अरुणाचल प्रदेश के सांसद निनॉन्ग एरिंग ने मांग की थी कि पीरियड्स के दौरान महिलाओं को ऑफिस से हर महीने कम से कम दो दिन की छुट्टी मिले। क्या औरतों को मासिक धर्म के दौरान ऑफिस से छुट्टी नहीं मिलनी चाहिए? क्या ये उनका अधिकार नहीं है? क्यों अब तक भारतीय कंपनियां इस दिशा में नहीं सोच रही?
ऐसे कई सवाल काफी वक्त से पूछे जा रहे हैं और अब इसे लेकर बिल पेश किया गया है। भारत में पहली बार मासिक धर्म से जुड़ा इस तरह का कोई बिल संसद के सामने रखा गया है। इसमें कहा गया है कि सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करने वाली महिलाओं को दो दिन के लिए पेड पीरियड लीव मिलनी चाहिए।
स्वाति कहती हैं कि यह बढ़ती जागरुकता का ही असर है कि संसद में भी अब इसकी गूंज सुनाई देने लगी है। स्वाति बताती हैं कि शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी महिलाएं इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहती। उनकी मांग है कि महिला स्कूलों में इस मुद्दे पर खासतौर से ध्यान दिया जाना चाहिए। स्वाति के मुताबिक उनकी मुहिम का ही असर है कि बनारस के पंद्रह गांवों की लगभग 700 महिलाएं इससे जुड़ चुकी है।
स्वाति को मिल चुके हैं कई अवॉर्ड
अवलेशपुर निवासी स्वाति का पढ़ाई के दौरान ही महिलाओं के हक, उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य पर जोर रहा। गल्र्स फॉर चेंज, साथ बढ़ते हैं, मेरी रात मेरी सडक़, बचपन बचाओ जैसे अभियान से जुडक़र स्वाति ने लड़कियों की सुरक्षा, आत्मरक्षा के साथ उन्हें समानता का हक दिलाने का अभियान चलाया। इन समस्याओं पर उनकी कलम भी खूब चलती है। इसी साल फरवरी में उनकी पहली पुस्तक ‘कंट्रोल जेड’ भी आई है जिसमें उन्होंने भूली-बिसरी शख्सियतों को याद किया है।
‘प्रतिरोध की जमीन’ नाम से वो ब्लॉग भी लिखती हैं। वर्तमान में वे ‘फेमिनिज्म इन इंडिया’ के लिए लिख रही हैं। सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें कन्या शिक्षा एवं महिला सुरक्षा सम्मान और सरस्वती सम्मान से नवाजा जा चुका है। महिलाओं को उनके अधिकार के प्रति जागरूक करने वाली स्वाति सिंह को काका साहेब कालेलकर पुरस्कार के लिए चुना गया है। अंधविश्वासों और अवधारणाओं के खिलाफ चेतना फैलाने में जुटी इस युवा समाजसेवी को इस मुहिम के लिए पुरस्कार से नवाजा गया है।
गांवों में पैड बनाने की ट्रेनिंग
स्वाति न सिर्फ महिलाओं को जागरुक कर रही हैं बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी प्रयासरत हैं। आमतौर पर देखा जाता है कि पीरियड्स के दौरान गांव की महिलाओं के पास इतना पैसा नहीं होता है कि वे दुकानों से पैड खरीद सके। महिलाओं को हर महीने होने वाली इस परेशानी से मुक्ति दिलाने के लिए स्वाति ने नई तरकीब निकाली है। वह महिलाओं को घर के कपड़ों से पैड बनाने की ट्रेनिंग दे रही है।
स्वाति के मुताबिक गरीब महिलाओं के सामने हर महीने पैड खरीदने की समस्या होती है। इन महिलाओं के पास इतने पैसे नहीं होते है कि वह इसका वहन कर सके। ऐसे में हम इन महिलाओं को खासतौर से ट्रेनिंग दे रहे हैं। प्रत्येक गांव में दो या तीन महिलाओं को पैड बनाने के लघु उद्योग से जोड़ा जा रहा है। इन पैड को गांव की महिलाएं कम कीमत पर खरीदती है। इस तरह महिलाओं को दोहरा फायदा हो रहा है।