यह क्या हो रहा, गांधी तेरे देश में

Update:2020-03-02 16:50 IST
जैसे-जैसे देश में लोकतंत्र की उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे उसे परिपक्वता की ओर बढ़ना चाहिए। लेकिन सीएए को लेकर शाहीनबाग ही नहीं, देश के दूसरे इलाकों से जिस तरह की सूचनाएं आ रही हैं। वह यह बताती हैं कि लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के हथियार और रुख हिंसक हो गए हैं। गांधीजी के देश में विरोध का यह तरीका शर्मसार करने वाला है। गांधीजी ने धरना-प्रदर्शन के दौरान अहिंसा को अपनाए जाने का स्टैंड ऐसे ही नहीं लिया था। वह जानते थे कि अंग्रेजों से हिंसक लड़ाई लड़कर, हथियारों से लड़कर जीतना मुश्किल है। जरूर उन्होंने भारतीय इतिहास के उन अध्यायों को पढ़ा होगा, जिनमें मुट्ठी भर मुगल, अफगान, तुर्क, मंगोल, गुलाम वंश, खिलजी और बाद में तुगलक और लोदी वंश के लोग आए और उन्होंने पांच सौ 62 रियासतों पर एक छत्रराज किया। आज गांधीजी के देश में गांधीजी के ही अस्त्र-शस्त्र अप्रासंगिक हो रहे हैं। यह भारत ही नहीं दुनिया भर के लिए चिंता का विषय है।
लोकतंत्र में जब चुनी सरकार पर यकीन करना चाहिए। जब उसे अपदस्थ करने के लिए अगले चुनाव तक की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तब मुट्ठी भर लोग संविधान की शपथ खाकर काम करने वाली सरकार पर यकीन करने से गुरेज कर रहे हैं। देश में माहौल बिगाड़ने की सियासत हो रही है। यह सच है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के चाल-चरित्र और चेहरे एकदम अलग होते हैं। उलटे भी होते हैं। लेकिन क्या यह देश का माहौल बिगाड़ने की कीमत पर होना चाहिए। सरकार के फैसलों के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार कराने के बहुत से तरीके हैं। जरूरी नहीं है कि रक्त रंजित तरीके अख्तियार किये जाएं। वह भी तब जब कोई विदेशी मेहमान देश में पधारा हो। जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत पहुंचे, तब से लेकर उनके वापस उड़ान भरने तक धरना प्रदर्शनकारियों ने जो हिंसक रुख अख्तियार किया, वह संयोग नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत दौरे पर आए थे तब भी ऐसी ही कोशिश की गई थी।

शाहीनबाग और देश के अन्य इलाकों में मच रही हिंसा को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं के बयान और उनकी कुटिल चालें यह चुगली करती हैं कि नेता के लिए देश की छवि अपनी पार्टी के अस्तित्व से छोटी है। इन नेताओं में सोनिया गांधी, कपिल मिश्रा, संजय सिंह, अमित शाह, प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर, गौतम गंभीर, ओवैसी, वारिस पठान, शरजिल इमाम, इशरतजहां, ताहिर हुसैन, साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, मणिशंकर अय्यर समेत तमाम लोगों की भूमिका राजनीतिक नफा-नुकसान के लिहाज से थी। ये ही नहीं हर नेता के लिए यह मानना अनिवार्य है कि गांधीजी हमारे राष्ट्रपिता हैं। उनके सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को लेकर सवाल उठाने का अधिकार ही चुने हुए नेताओं को नहीं है।
इस हिंसा में चर्चित कट्टरपंथी संगठन पापुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) की जो भूमिका सामने आई है उससे यह समझने में देर नहीं लगती है कि दिल्ली ही नहीं अलीगढ़ और पूर्वोत्तर तक सुनियोजित तरीके से माहौल खराब करने की साजिशों को अंजाम दिया जा रहा है। यह लोगों का स्वस्फूर्त आंदोलन नहीं है। सोशल मीडिया पर जो चीजें लोड की जा रही हैं, वह भी बताती हैं कि उपद्रव को कहां तक ले जाने की मंशा है। यह हिंसा 48 लोगों की जिंदगी अकेले दिल्ली में लील चुकी है। इसमें गोकुलपुरी एसीपी आफिस में तैनात कांस्टेबल रतनलाल व आईबी अफसर अंकित शर्मा भी शामिल हैं। गांधीजी ने चौरीचौरा हिंसा के चलते अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। यह आंदोलन जलियावाला बाग कांड व रोलेट एक्ट के खिलाफ था। आंदोलन वापस लेने के बाद गांधीजी ने यंग इण्डिया में लिखा था कि, आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ।“ जिस पर मोतीलाल नेहरू ने कहा कि, “यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।“ अपनी प्रतिक्रिया में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, “ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं।
सीएए की आड़ में जो कुछ हो रहा है उसे हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से देखना और दिखाना भी एक साजिश ही कही जाएगी। क्योंकि बीते सालों में राजनीति ने जिस तरह अपना सिद्धांत बदला है। वह अल्पसंख्यक मुखापेक्षी की जगह बहुसंख्यक आश्रित हुई है। जिस तरह अफ्तार के समय बेवजह टोपी पहनने और खजूर खिलाने का सियासी प्रसंग नेपथ्य में चला गया है। जिस तरह तुष्टिकरण बीते जमाने की बात हो गई है। तीन तलाक का मुस्लिम महिलाओं द्वारा स्वागत किया गया तथा रामजन्मभूमि को लेकर आए सर्वोच्च अदालत के फैसले को सिर माथे पर लिया गया और इन बदलावों पर कोई जुम्बिश तक नहीं हुई। यह आश्वस्त कर रहा था कि देश में बांटो और राज करो के दिन खत्म हो गए। हिन्दू और मुसलमान को लड़ने, लड़ाने का काम राजनेताओं के लिए सियासत चमकाने का जरिया नहीं रह गया।
लेकिन सीएए को लेकर देश भर में जो दृश्य उभर रहे हैं, वे निराशा जनते हैं। लगने लगता है कि हम आजादी के कालखंड में लौट रहे हैं। इसके लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराना मामले को हल करने का जरिया नहीं हो सकता। इसके लिए खुद को और अपनी कौम को ही हर आदमी को जिम्मेदार बनाना होगा। संसद से सड़क तक विरोध के लिए जगह होनी चाहिए। सत्तारूढ़ दल को विपक्ष से परेशान रहना चाहिए। सत्तारूढ़ दल को अपने एजेंडे लागू करने चाहिए। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह सब देश और समाज की कीमत पर किया जाना चाहिए। देश को दंगाई जो घाव दे रहे हैं, वह नक्सलवाद के दौर की याद ताजा करा रहा है। जिस तरह नक्सली नेता मानते थे कि आंदोलन जितना बर्बर और नृशंस होगा, उसका खौफ और असर उतना ही ज्यादा होगा। कुछ यही सोच इस आंदोलन में भी शक्ल ले रही है। उस समय नक्सली आंदोलन के कर्णधारों में चारू मजूमदार और कानू सान्याल थे। चारू मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्सेतुंग के समर्थक थे। इस आंदोलन के माओ से प्रभावित होने की वजह से ही नक्सलवाद को माओवाद तक कहा गया। वर्ष 1972 में आंदोलन के हिंसक होने के चलते चारू मजूमदार को दस दिन के लिए जेल भेज दिया गया, जहां उनका निधन हो गया। कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने से तंग आकर 23 मार्च 2010 को पार्टी कार्यालय में आत्महत्या कर ली। हिंसा की परिणिति हिंसा में ही होती है। हमारे यहां कहा गया है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय।

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