कौन सोचता है गांव किसानों की

Update:2018-06-19 11:45 IST
किसानों की आत्महत्या की वजहों में प्रेम प्रसंग , वैवाहिक समस्या , नपुंसकता, बीमारी और नशाखोरी तथा दहेज जैसे कारण  जिम्मेदार हैं। यह नजरिया किसी एक नेता का नहीं है।  देश की कांग्रेस नीत  यूपीए और भाजपा नीत एनडीए दोनों सरकारों ने संसद में एक सवाल के जवाब में किसानों की आत्महत्या को लेकर यही जवाब दिया। हालांकि बाद में दोनों ने अफसरशाही पर इस तरह के जवाब का ठीकरा फोड़ कर छुट्टी पाने की कोशिश की।  मीडिया ने उन्हें छुट्टी भी दे दी।  पर हकीकत यह है कि यह किसानों के बारे में हर सरकार के नजरिये का एक ऐसा सच है जिसे वह बताती भी है और छुपाती भी है। इसे खेती और किसानी को लेकर नेताओं और सरकारों के बयानों तथा किसान और कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सुविधाओं के मद्देनजर परखा जाय तो यह उदघाटित हो जाता है कि संसद में राजनेताओं के खेती किसानी को लेकर दिए गए बयान उनकी इस क्षेत्र की उपेक्षा का वह चेहरा उजागर कर देता है जिसे वे निरंतर छुपाना चाहते हैं।  यह इसलिए भी क्योंकि कोई भी सरकार, केंद्र या राज्य की, यह मानने को तैयार नहीं है कि भारत का ग्राम देवता भूख और गरीबी का शिकार होकर कर्ज से परेशान  निरंतर असफल जिंदगी जीने से बेहतर जिंदगी के खात्मे को समझ लेता है। वह भी तब जबकि पिछले 21सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने आर्थिक तंगी और कर्ज वसूली के कारण आत्महत्या कर ली। देश में इस समय  हर तीस मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है।


उतरप्रदेश के सीतापुर में दिनेश कुमार ने कर्ज से परेशान होकर ख़ुदकुशी कर ली। उसके पिता उमेश ने भी फसल के मुआवजे के इंतजार में मौत को गले लगा लिया था।  रामपुर , मथुरा और बदायूं के किसान फसल की बर्बादी और कर्ज के सदमे से मर गए। बाराबंकी में बरसाती ने  फसल नुकसान का मुआवजा लेने की कोशिश में लेखपाल के उत्पीडऩ से परेशान होकर मौत को चुन लिया। पंजाब के किसान सुरजीत सिंह ने राहुल गांधी को अपना दुखड़ा सुनाया पर मदद न मिलने के चलते मर जाना बेहतर समझ लिया। सीतापुर में एक किसान ने  किसान क्रेडिट कार्ड से लिए गए तीस हजार रुपये की कर्ज की राशि दो लाख हो जाने से परेशान होकर आत्महत्या कर लिया। हमीरपुर में सूर्या बाई , जालौन के बृजकिशोर यादव , महोबा के रतन लाल ने कर्ज से ऊब कर जान गवां  दी। सहारनपुर में किसान रतन ने अपनी पत्नी प्रकाशो और बेटी जमुना के साथ कीटनाशक पीकर जिंदगी ख़त्म कर ली। बांदा के रामसेवक उर्फ साधू ने पिता पर बैंक और रिश्तेदारों के तीन लाख रुपये कर्ज की अदायगी न होते देख जिंदगी को अलविदा कह दिया।  लेकिन आश्चर्य है कि इन सभी मौतों की वजह कुछ वही बताई गयी हैं जिसे एनडीए और यूपीए सरकारों के कृषि मंत्रियों ने संसद को हाजिर-नाजिर मान कर कहा था।




ऐसा महज इसलिए हो रहा है क्योंकि कृषि आज अर्थव्यवथा की रीढ़ नहीं है। देश की कुल  आबादी का 60 फीसद हिस्सा खेती पर निर्भर है पर जीडीपी में उसकी हिस्सेदारी सिर्फ 16  फीसद रह गयी है। कृषि उपज को छोड़ कर बाकी सभी चीजों के दाम उत्पादक तय करते हैं। केंद्र सरकार 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है पर कुल कृषि उत्पादन का 6  फीसद हिस्सा ही खरीद पाती है।  उसके एजेंडे में धान , गेहू , कपास , गन्ना  और रबर की ही खरीद होती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य में श्रम के लिए प्रतिदिन केवल 92  रुपये मजदूरी रखी गयी है जो न्यूनतम मजदूरी का कोरम भी पूरा नहीं करती है। देश में 12.1 करोड़ कृषि सम्पत्तियां , 9.9  करोड़ लघु एवं सीमान्त किसानों के पास हैं जिनकी भूमि में हिस्सेदारी 44 फीसद और किसानों की कुल आबादी में




हिस्सेदारी 87 फीसद है।  ये लोग 52 फीसद अनाज और 70 फीसद सब्जियों के अकेले उत्पादक हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत के हर किसान पर 47 हजार रुपये कर्ज है। किसानों पर कुल कर्ज 2.11 लाख करोड़ रुपये है। 2004 से 15-16 के बीच कॉर्पोरेट टैक्स में उद्योग क्षेत्र को लगभग 50 लाख करोड रूपये सरकार  द्वारा छूट  दी गयी है।  इसके एक तिहाई के बराबर भी कृषि क्षेत्र में निवेश हो जाय तो तस्वीर बदल जाएगी पर सरकारें तस्वीर बदलना नहीं चाहती।




   महात्मा गांधी के चम्पारण आंदोलन के सौ  साल के बाद भी हम अपने किसानों को कर्जमुक्त नहीं कर पाए हैं। गांव में मजदूरी दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गयी है जो बीते दस साल में सबसे कम है। एक सर्वे  के मुताबिक गांव का आदमी 40  साल पहले की तुलना में आज बहुत कम खा रहा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक एक किसान परिवार खेती में औसतन 3078 रुपये ही कमा पाता  है। सीएसडीएस के आंकड़े के अनुसार 62  फीसद किसान खेती छोडऩा चाहते हैं।  2.21  करोड़ सीमान्त और छोटे किसान सेठ साहूकारों से कर्ज लेने को अभिशप्त हैं।  हर पांच साल में एक करोड़ किसान जोत  का आकर कम होने के चलते छोटे होते जा रहे हैं। किसान क्रेडिट कार्ड का पैसा वे अपनी सामाजिक और निजी जरूरतों को पूरा करने में लगाते  हैं क्योंकि नगदी फसलों का भुगतान उन्हें बहुत विलम्ब से होता है।  यही वजह है कि वे पूंजी या लागत  की कमी के शिकार बने रहते हैं।


बावजूद इसके खेती के बारे में सरकार की  सोच न्यूनतम मूल्य से आगे नहीं बढ़ पा रही है।  वह भी समर्थन मूल्य घोषित करने का तरीका ही गलत है।  जब पैदावार बढ़ जाती है तो मूल्य गिर जाते हैं।  समर्थन मूल्य के मायने खत्म हो जाते हैं। आधुनिक उपकरणों के प्रयोग से किसानों के परम्परागत  आमदनी के साधन कम होते गए हैं।  रसायनों ने मिट्टी  को बीमार कर दिया है।  भोजन में आवश्यक तत्वों की कमी हो गयी है।  शरीर के लिए घातक तत्वों का प्रयोग खेती में निरंतर बढ़ रहा है। बावजूद इसके सरकार चाहती है कि  किसान उत्पादन बढ़ाने पर जोर दें जबकि उसका फोकस आय बढ़ाने पर होना चाहिए। यूएनडीपी  की रिपोर्ट पर यकीन करें, तो 2050 तक भारत में ग्रामीण क्षेत्र रहेगा ही नहीं। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान ने जो वैश्विक भूख सूचकांक जारी किया है उसमे हमारा स्थान 97 है जबकि  2006  में हम 96  पर थे। हमारी यह स्थिति 118  विकासशील देशों की सूची में  से है। आजादी के सत्तर सालों में हम देश के सिर्फ आधे कृषि क्षेत्र को ही सिंचित कर पाए हैं। 2001  से 11  के बीच खेतिहर मजदूरों की संख्या 3 . 8 करोड़ बढ़ी है। 12  करोड़ हेक्टेयर कम गुणवत्ता वाली भूमि हमारी उत्पादकता  को प्रभावित कर रही है। लेकिन इन किन्ही समस्याओं पर कोई सरकारें संवेदनशील नहीं है। महज इसलिए क्योंकि किसान देश में वोट बैंक नहीं बन पाया।  वोट बैंक को लेकर राजनेताओं की गंभीरता इससे समझी जा सकती है कि वे लगातार आरक्षण-  आरक्षण खेलते हैं , अगड़े पिछड़े खेलते हैं , अति पिछड़े और अति दलित की चालें चलते हैं।  हमारे राजनेताओं ने 70  सालों में देश के एक भी सामान्य गांव को विकास के सभी मानदंडों पर खरा उतरने लायक तैयार नहीं किया है।  एक भी सामान्य गांव संतृप्त नहीं है।  मोदी सरकार की सांसद ग्राम योजना में गोद लिए गए गांव जमीन पर रेंग ही नहीं पा रहें।  जिस देश के सारे राजनीतिक दल मिलकर भी किसी सामान्य एक गांव को संतृप्त नहीं कर पाए हों उस देश के गांवों में बसने वाली आबादी को इन नेताओं से उम्मीद छोड़ कर - 'कर बहिया बल आपनो -पर ही यकीन करना होगा।




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