Taliban-Pakistan Alliance: पड़ोस में नई आफत, तालिबान-पाकिस्तान गठजोड़ लाएगा मुसीबत

भारत के पड़ोस में एक नई और बड़ी आफत पैदा हो रही है। ये आफत है तालिबान और पाकिस्तान के गठजोड़ और सामंजस्य की जिसके खतरनाक परिणाम सामने आ सकते हैं।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Shashi kant gautam
Update: 2021-08-11 09:36 GMT

तालिबान-पाकिस्तान गठजोड़: फोटो- सोशल मीडिया

Taliban-Pakistan Alliance: भारत के पड़ोस में एक नई और बड़ी आफत पैदा हो रही है। ये आफत है तालिबान और पाकिस्तान के गठजोड़ और सामंजस्य की जिसके खतरनाक परिणाम सामने आ सकते हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका और अन्य नाटो राष्ट्रों की सेनाओं की वापसी के बाद हालात दिन प्रतिदिन खराब होते चले जा रहे हैं। अफगान सरकार की स्थिति बेहद कमजोर है और तालिबान के हमले बढ़ते जा रहे हैं।

एक दशक से पाकिस्तान की नीति तालिबान को समर्थन देने की रही है। बल्कि भारत के प्रभाव, आक्रामक रुख और अफगानिस्तान में उसके भारी निवेश और बड़ी भूमिका के चलते पाकिस्तान ने तालिबानियों के लिए अपना सपोर्ट और भी बढ़ा दिया है। इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान को समर्थन दे कर पाकिस्तान का एक इरादा भारत के हितों को नुकसान पहुंचाना है और वह तालिबानियों के जरिये कश्मीर और लद्दाख में गड़बड़ी फैलाने के मंसूबे भी पाल सकता है। तालिबान के रिश्ते अल कायदा से भी बने हुए हैं और तालिबान के कब्जे वाले इलाकों में अल कायदा फिर अपनी जड़ें जमा लेगा और नतीजतन आतंकवाद का नया सिलसिला शुरू हो सकता है। इमरान खान खुद ही कह चुके हैं कि भारत के खतरे से निपटना पाकिस्तान की सामरिक जरूरतों में सबसे ऊपर है। यानी इरादा साफ़ है।

तालिबान को सपोर्ट करके पाकिस्तान की रणनीति इस क्षेत्र में भारत के प्रभाव को घटाने या ख़त्म करने की है। पाकिस्तान को डर है कि भारत और पश्चिमी देशों के साथ मिल कर एक मजबूत अफगान सरकार, पाकिस्तान की घेराबंदी कर सकती है। अपने उद्देश्य को हासिल करने के लिए पाकिस्तान, तालिबान को चीन की सहायता दिलाने में भी लगा हुआ है और इसी के चलते तालिबान ने चीन से बिना शर्त मदद भी मांगी है और अफगानिस्तान में बड़ा निवेश करने का आग्रह किया है। पाकिस्तान और चीन साथ साथ हैं और अब तालिबानी के कंट्रोल में अफगानिस्तान आ जाये तो तीनों मिल कर भारत के प्रभुत्व को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसीलिए पाकिस्तान का डबल गेम जारी है।

शांति वार्ता

अमेरिका ने अफगानिस्तान में 20 साल बिताने के बाद उसे अब अपने हाल पर छोड़ दिया है। कहने को अब अमेरिकी प्रेसिडेंट जो बिडेन और उनकी टीम इस उम्मीद के साथ लगी हुई है कि तालिबान अफगानिस्तान में शांति समझौते पर राजी हो जाएगा और तालिबान का पुराना पक्का दोस्त पाकिस्तान उसे अफगानिस्तान सरकार के साथ सत्ता में साझेदारी के लिए तैयार कर लेगा लेकिन अमेरिका की उम्मीद सिर्फ एक भ्रम है और वास्तविकता में ऐसा कुछ होने नहीं जाने वाला है।

एक्सपर्ट्स का कहना है कि अंत में इतिहास ही अपने को दोहराएगा, पाकिस्तान और पकिस्तान में बैठी तालिबानी लीडरशिप एक दूसरे का साथ देती रहेगी चाहे वह युद्ध का मैदान हो या शांति वार्ता हो। पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान की जीत हो और इसके लिए पाकिस्तान कोई भी अड़ंगा कतई नहीं डालेगा। अफगानिस्तान पर तालिबान का कंट्रोल पाकिस्तान अपने हित में देखता है। और यही वजह है कि 20 साल तक अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी के दौरान पकिस्तान का पूरा सपोर्ट तालिबान के साथ रहा। अमेरिका के लिए पाकिस्तान अब आगे भी तालिबान से दुश्मनी नहीं लेगा।

 पाकिस्तान तालिबान को सपोर्ट करता है: फोटो- सोशल मीडिया 

पाकिस्तान का सक्रिय समर्थन

पिछले दस वर्षों में अमेरिका के नेतृत्व वाला 46 देशों का गठबंधन अफगानिस्तान की सरकार के पीछे मजबूती से खड़ा रहा है लेकिन इस दौरान भी पाकिस्तान तालिबान को सपोर्ट देता रहा। अमेरिका और सहयोगी देश तालिबान से लड़ते रहे लेकिन पाकिस्तान को न तो अलग-थलग कर पाए और न उसे सजा दे पाए। यहाँ तक कि प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प भी पाकिस्तान को सिर्फ चेतावनी ही देते रह गए। अमेरिका के कितने ही सैनिक तालिबान के हमलों में मारे गए। कितने की नागरिकों को मार डाला गया और ये सब पाकिस्तान के अप्रत्यक्ष समर्थन से होता रहा। लेकिन पाकिस्तान का कोई कुछ न कर सका। ऐसे में अब कोई उम्मीद करना बेकार है।

आज पूरे अफगानिस्तान में जिस तरह तालिबान हमले कर रहा है वह पाकिस्तान के सक्रिय समर्थन के बगैर मुमकिन नहीं है। पाकिस्तान की आईएसआई खुश है कि वह अफगानिस्तान से सभी विदेशी सेनाओं की वापसी कराने में सफल रहा है और अब उसका लक्ष्य अफगानिस्तान सरकार और सेना में अफरातफरी मचाना है ताकि तालिबान को नियंत्रण जमाने में आसानी हो जाए। ब्रूस रिएदल,जो दक्षिण एशिया और मिडिल ईस्ट के बारे में अमेरिका के चार राष्ट्रपतियों के साथ बतौर सीनियर सलाहकार काम कर चुके हैं उनका कहना है कि प्रेसिडेंट बिडेन और उनके टीम को लगता है कि वे तालिबान को विश्व समुदाय से काटने और प्रतिबन्ध लगाने की धमकी दे कर काबू कर लेंगे और उसे अफगान सरकार के साथ मिल कर काम करने को राजी कर लेंगे। इसी उम्मीद पर दोहा, कतर में शांति वार्ता की गयी है। लेकिन जमीनी हकीकत एकदम अलग है। जैसे जैसे तालिबान लड़ाके अफगानिस्तान के शहरों पर कब्जा बढ़ाते जा रहे हैं, उनके पुराने नृशंस तरीके फिर सामने आते जा रहे हैं। हेरात, लश्कर गह और कंधार में लगातार हत्याओं का सिलसिला जारी है।

तालिबान के ज्यादातर नेता और उनके परिवार पाकिस्तान में सुरक्षित शरण पाए हुए हैं। पाकिस्तान से ही तालिबानी नेता अपने लड़कों को कंट्रोल करते हैं और उनको सामरिक मदद मिलती रहती है। इसके अलावा पाकिस्तान के आतंकी ग्रुप लश्कर-ए-तैयबा के सैकड़ों आतंकी तालिबान के साथ मिल कर अफगान सुरक्षा बलों से लड़ रहे हैं। 20 साल तक भटकने के बाद अब तालिबान को मौक़ा मिला है और उसे वह गंवाने वाला नहीं है। अफगानिस्तान में पूर्व अमेरिकी राजदूत रयान क्रोकेर का कहना है कि एक नरम, सौम्य और शांत तालिबान की उमीद करना मूर्खता है। 2001 और आज के तालिबान में फर्क बस यही है कि अब तालिबान और भी सख्त और नृशंस हो गया है। तालिबान, अफगान सरकार के सरेंडर से कम में कुछ भी स्वीकार नहीं करेगा।

कहने को तो पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने वाशिंगटन में बिडेन प्रशासन के साथ हुयी बैठकों के बाद कहा है कि पाकिस्तान भी अफगानिस्तान में राजनीतिक समाधान चाहता है और अफगानिस्तान पर जबरन कब्जा स्वीकार्य नहीं है। लेकिन तालिबान ठीक इसका उलटा चाहता है और जमीनी हकीकत ये है कि पाकिस्तान उसके रास्ते में कतई नहीं आयेगा।

अमेरिका में पूर्व पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक्कानी: फोटो- सोशल मीडिया

अमेरिका को कोई उम्मीद नहीं

अमेरिका में पूर्व पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक्कानी के अनुसार, बिडेन प्रशासन ये मान चुका है कि पाकिस्तान या तो तालिबान पर दबाव डालना नहीं चाहता है या डाल नहीं सकता है। ये महत्वपूर्ण बात है कि अभी तक अमेरिकी प्रेसिडेंट जो बिडेन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को फोन तक करने की जहमत नहीं उठाई है।

तालिबान को पाकिस्तान के समर्थन की कई वजहें हैं। जब अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा था तब उसके खिलाफ लड़ाई करने वाले इस्लामी विद्रोहियों को अमेरिका और पाकिस्तान मिल कर मदद दे रहे थे। इन विद्रोहियों को ट्रेनिंग से लेकर हथियारों तक की सहायता पाकिस्तान के जरिये अमेरिका मुहैया कराता था। 1989 में सोवियत सेनाओं की वापसी के साथ अमेरिका ने भी अपने हाथ खींच लिए लेकिन पाकिस्तान की सीमा पर गृह युद्ध बरकरार था जिसमें तालिबान हावी था। ऐसे में पाकिस्तान को लगा कि उसके पास तालिबान को सपोर्ट करने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन बाद में पाकिस्तान को एहसास हुआ कि भारत के प्रभुत्व सामना करने के लिए वह इस्लामी तालिबान का बखूबी इस्तेमाल कर सकता है। और उसने यही किया।

कुल मिला कर अब अमेरिका को पाकिस्तान से कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिका कोई सख्त कदम उठाएगा, ये भी उम्मीद करना बेकार है। चीन के रूप में पाकिस्तान को एक रहनुमा मिल चुका है। चीन और रूस भी आपस में कोई दुश्मन नहीं हैं और कई मसलों में दोनों में गहरा एका है। ऐसे में भारत के लिए पड़ोस में एक आफत बड़ा स्वरूप लेती जा रही है और आने वाले समय में स्थितियां किस तरफ जायेंगी कुछ कहा नहीं जा सकता।     

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