TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

Bali Pratha: कौन कहता है वेदों में है बलि प्रथा

Bali Pratha Rules: आज कल बहुत से लोग ऑडियो और वीडियो तथा बातचीत में यह बताने का प्रयास करते है कि बलि प्रथा या मांस भक्षण वेदकाल से होता रहा है। जानकारी के अभाव में या तो हम चर्चा नही करते या कन्नी काटने लगते है।

By
Published on: 23 April 2023 10:57 PM IST
Bali Pratha: कौन कहता है वेदों में है बलि प्रथा
X
Bali Pratha in Hindi (Pic: Newstrack)

Bali Pratha in Hindi: आज कल बहुत से लोग ऑडियो और वीडियो तथा बातचीत में यह बताने का प्रयास करते है कि बलि प्रथा या मांस भक्षण वेदकाल से होता रहा है। जानकारी के अभाव में या तो हम चर्चा नही करते या कन्नी काटने लगते है। ब्राह्मण होंने पर धर्म है की हम कुछ बाते जो आधार है अवश्य जाने और निश्चय ही उनका निवारण भी करें।

हिन्दू -धर्म में सर्वत्र निर्दोषों के प्रति अहिंसा बरतने का ही प्रतिपादन किया गया है और सर्वत्र हिंसा का निषेध। वेदों से लेकर पुराणों तक में पशु-बलि का कहीं भी समर्थन नहीं मिलता। कुछ महाज्ञानी जिव्हा के प्रभाव में वैदिक साहित्य की ऐसी व्याख्या कर देते है कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है, वैदिक साहित्य की जानकारी न होने की वजह से सामान्य जन उनकी बातों को सत्य मान लेते है। भारत मे प्रचलित बली प्रथा को समझने से पहले हम ये देख लेते है कि क्या वास्तव में वैदिक साहित्यो में जीव हिंसा बलि प्रथा आदि बातें है।

जब कोई अंधा होता है तो सोचता है कि सभी अंधे हो जाये और यही कारण था कि पश्चिमी सभ्यता ने जब भारतीय सभ्यता पर अतिक्रमण करना शुरू किया तो सबसे पहले उसने हमारी संस्कृति और सभ्यता को दूषित करना शुरू किया। पश्चिमी सभ्यता में बलिदान या बलि प्रथा का मतलब होता है sacrifice करना जबकि वैदिक साहित्य में आपको बलि का मतलब उपहार देना या कर देना मिलेगा।

संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ सर्वथा मार देना ऐसा नहीं होता। उसका अर्थ दान के रूप में भी उल्लेखित किया गया है। कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम् में ये बलि शब्द को दान के रूप में प्रयुक्त किया है।

प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिम् अग्रहीत्।

सहस्रगुणमुत्स्रष्टुम् आदत्ते हि रसं रविः।।

अर्थात्: प्रजा के क्षेम के लिये ही वह राजा दिलीप उन से कर लेता था, जैसे कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है। मतलब साफ है कि बली देना उपहार देने से आशय था लोगों के किसी को मार देने से नही।

वैदिक साहित्यों में पशुबलि या हिंसा निषेध का उल्लेख और अहिंसा को पुष्ठ करते वेदमंत्र और शास्त्र श्लोक ---

ऋग्वेद-

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति (ऋग्वेद- 1:1:4)

हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल के प्रथम सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि यज्ञ हिंसा रहित ही हों। ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेदों में भी अहिंसा वर्णित हैं। फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?

अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय (ऋग्वेद- 1:164:26)

अर्थ: अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं।

सूर्यवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम

अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती (ऋग्वेद 1:164:40)

अर्थ: अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों।

सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य: (ऋग्वेद- 5:83:8)

अर्थ : अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो।

क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।

एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।। (ऋग्वेद- 7:6:21:9)

अर्थात: "मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस शक्तिशाली हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."

आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु (ऋग्वेद 7:56:17)

अर्थात: ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है।

वैदिक कोष निघण्टु में गौ या गाय के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और अदिति का भी समावेश है। निघण्टु के भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए। अहि – जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए। अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए। इन तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं करना चाहिए। प्राय: वेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है।

घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम !

यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !!

माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि!

प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !! (ऋग्वेद- 8:101:15)

अर्थात- रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार. ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ।

यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः

यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च (ऋग्वेद-10:87:16)

मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए।

अथर्ववेद-

वत्सं जातमिवाघ्न्या (अथर्ववेद- 3:30:1)

आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है।

ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो

रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च (अथर्ववेद- 6:140:2)

हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं। उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं।

शिवौ ते स्तां ब्रीहीयवावबलासावदोमधौ !

एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुण्चतौ अंहस: !! (अथर्ववेद- 8:2:18)

हे मनुष्य ! तेरे लिए चावल, जौं आदि धान्य कल्याणकारी हैं। ये रोगों को दूर करते हैं और सात्विक होने के कारण पाप वासना से दूर रखते हैं।

य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !

गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)

जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !

अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः (अथर्ववेद-10:1:29)

निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है। हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार।

धेनुं सदनं रयीणाम् (अथर्ववेद- 11:1:4)

गाय सभी ऐश्वर्यों का उद्गम है। किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे। त

पुष्टिं पशुनां परिजग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम !

पय: पशुनां रसमोषधीनां बृहस्पति: सविता मे नियच्छात !! (अथर्ववेद- 19:31:5)

इस मन्त्र में भी यही कहा है कि- मैं पशुओं की पुष्टि वा शक्ति को अपने अन्दर ग्रहण करता हूं और धान्य का सेवन करता हूँ। सर्वोत्पादक ज्ञानदायक परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बनाया है कि (पशुनां पय:) गौ, बकरी आदि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण किया जाये न कि मांस तथा औषधियों के रस का आरोग्य के लिए सेवन किया जाए। यहां भी "पशुनां पयइति बृहस्पति: मे नियच्छात:" अर्थात- ज्ञानप्रद परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बना दिया है कि मैं गवादि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण करूँ, स्पष्टतया मांसनिषेधक है !

यजुर्वेद-

अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)

हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो।

पशूंस्त्रायेथां (यजुर्वेद- 6:11)

पशुओं का पालन करो।

ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे (यजुर्वेद-11:83)

सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो।

विमुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म (यजुर्वेद-12:73)

अघ्न्या गाय और बैल तुम्हें समृद्धि प्रदान करते हैं।

घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी: (यजुर्वेद-13:49)

सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |

द्विपादव चतुष्पात् पाहि (यजुर्वेद-14:8)

हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |

अन्तकाय गोघातं (यजुर्वेद-30:18)

गौ हत्यारों का अंत हो।

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: (यजुर्वेद- 40:7)

जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं। जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं।

वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है। यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है।

महाभारत

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।

अहिंसा परमो सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते॥

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः।

अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥

अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।

अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥ (महाभारत/अनुशासन पर्व-115:23/116:28,29)

"अहिंसा सकलो धर्मः।" (अनुशासन पर्व- महाभारत)

भावार्थ:- सभी प्रकार की धार्मिक और सात्विक प्रवृत्तियों का समावेश केवल अहिंसा में हो जाता है।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)

किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है।

प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम।

अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥ (कर्णपर्व-69:23)

मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ। झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे।

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।

धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)

सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।

मनुस्मृति

यद्ध्यायति यतकुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च ।

तद्वाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥ (मनुस्मृति- 5:47)

ऐसा व्यक्ति जो किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह जो चिंतन या कर्म करता है तथा जिसमें एकाग्र होकर ध्यान करता है वह उसको बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त हो जाता है।

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित ।

न च प्राणिवशः स्वर्ग् यस्तस्मान्मांसं क्विर्जयेत् ॥ (मनुस्मृति- 5:48)

किसी दूसरे जीव का वध किया जाये तभी मांस की प्राप्ति होती है इसलिए यह निश्चित है कि जीव हिंसा से कभी स्वर्ग नही मिलता, इसलिए सुख तथा स्वर्ग को पाने की कामना रखने वाले लोगों को मांस भक्षण वर्जित करना चाहिए।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

अर्थ - अनुमति मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।

मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम्।

एतत्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥ (मनुस्मृति- 5:55)

अर्थ – जिस प्राणी को हे मनुष्य तूं इस जीवन में खायेगा, अगामी जीवन मे वह प्राणी तुझे खायेगा।

"अहिंसया च भूतानानमृतत्वाय कल्पते।" (मनु-स्मृति)

भावार्थ:- अहिंसा के फल स्वरूप, प्राणियों को अमरत्व पद की प्राप्ति होती है।

अन्य ग्रंथ-

"अहिंसा परमं दानम्।" (पद्म-पुराण)

भावार्थ:- अहिंसा स्वरूप अभयदान ही परम दान है।

"अहिंसा परमं तपः।" (योग-वशिष्ट)

भावार्थ:- अहिंसा ही सबसे बड़ी तपस्या है।

"अहिंसा परमं ज्ञानम्।" (भागवत-स्कंध)

भावार्थ:- अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है।

"अहिंसा परमं पदम्।" (भागवत-स्कंध)

भावार्थ:- अहिंसा ही सर्वोत्तम आत्मविकास अवस्था है।

"अहिंसा परमं ध्यानम्।" (योग-वशिष्ट)

भावार्थ:- अहिंसा की परिपालना ही उत्कृष्ट ध्यान है।

"अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः।" (योग-शास्त्र)

भावार्थ:- अहिंसा ही संसार रूप मरूस्थल में अमृत का मधुर झरना है।

"रूपमारोग्यमैश्वर्यमहिंसाफलमश्नुते।" (बृहस्पति स्मृति)

भावार्थ:- सौन्दर्य, नीरोगता एवं ऐश्वर्य सभी अहिंसा के फल है।

"ये न हिंसन्ति भूतानि शुद्धात्मानो दयापराः।" (वराह-पुराण)

भावार्थ:- जो प्राण-भूत जीवों की हिंसा नहीं करते, वे ही आत्माएं पवित्र और दयावान है।

विशेष

अक्सर लोगों द्वारा दुर्भावनाओं के वशीभूत, हिन्दुत्व पर हिंसक और माँसाहारी होने के आरोपण किए जाते है। किन्तु हिन्दुत्व अपने आदि-काल से ही अहिंसा प्रधान धर्म रहा है। अहिंसा परमो धर्मः ही इसका आदि-अनादि परम् उपदेश उपदेश रहा है। उतरोत्तर निम्न काल प्रभाव से कुछ विकृतियों का पनपना सामान्य है। पर इस दर्शन की यह विशेषता है कि सिद्धांतो को प्रमुखता देकर यह स्व-सुधार में सक्षम है। जैसे गंगा अपने उद्भव पर परम शुद्ध रहते हुए अपने परिचालन मार्ग में अस्वच्छ हो जाती है। किन्तु इसका जल अपनी पावनता सुरक्षित रखता है। उसी तरह वैदिक धर्म के मूल सिद्धान्त पावन और प्रवर्तमान रहते है। यही अहिंसा का मूल सिद्धांत वेद-उपदेशों में ग्रंथित है। अर्थात अहिंसा गुण ही वेदों की गंगोत्री है।

वेदों, पुराणों और अन्य वैदिक साहित्य में कही भी अकारण हिंसा निषेध है। किंतु हर जगह धर्म रक्षण और मानवता की भलाई के लिए तैयार रहने और शस्त्रों के प्रयोग की बात कही गयीं है , अहिंसा कायरता नही होती ।।अहिंसा परमो धर्मः -धर्म हिंसा तथीव च। "अहिंसा परम धर्म है परन्तु हिंसा का, धर्म के अनुसार प्रतिकार करना भी उतना ही परम धर्म है"।

(कंचन सिंह)

( लेखिका ज्योतिषाचार्य हैं ।)

Next Story