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Bhagavad Gita Satsang: सत्संग से मिट जाती है अनिष्ट की चाह
Bhagavad Gita Satsang: परन्तु सत्संग करते-करते वह क्रोध कम होता है, थोड़ी-सी बात में नहीं आता, जोर से नहीं आता और कम देर ठहरता है। जब छोटी-छोटी कई बातें इकट्ठी हो जाती हैं, तब सहसा किसी बात पर जोर से क्रोध का भभका आता है। परन्तु सत्संग करते-करते वह भी मिट जाता है।
Bhagavad Gita Satsang: जैसे, हमारी वृति में क्रोध ज्यादा था। अत: थोड़ी-सी बात में क्रोध आ जाता था, बड़े जोर से आता था और काफी देर तक रहता था। परन्तु सत्संग करते-करते वह क्रोध कम होता है, थोड़ी-सी बात में नहीं आता, जोर से नहीं आता और कम देर ठहरता है। जब छोटी-छोटी कई बातें इकट्ठी हो जाती हैं, तब सहसा किसी बात पर जोर से क्रोध का भभका आता है। परन्तु सत्संग करते-करते वह भी मिट जाता है। क्रोध का स्वरूप है कि जिस पर क्रोध आता है, उसका अनिष्ट चाहता है। सत्संग करते-करते किसी का अनिष्ट करने की चाहना मिट जाती है। सत्संग करने वाले को क्रोध आ जाय तो उसमे होश रहता है और वह नरक देने वाला नहीं होता। काम, क्रोध और लोभ ये तीनों नरकों के दरवाजे हैं ( गीता 16/21) । इनमे फँसे हुए मनुष्य सीधे नरकों में जाते हैं। उनको नरकों में जाने से कोई अटकाने वाला नहीं है। परन्तु सत्संग करने वालों में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष कम हो जाते हैं। वह काम-क्रोधादि के वशीभूत नहीं होता। वह अन्यायपूर्वक, झूठ, कपट, जालसाजी, बेईमानी से धन इकट्ठा नहीं करता। वह उतना ही लेता है, जितने पर उसका हक़ लगता है। पराये हक की चीज नहीं लेता।
काम-क्रोधादि के वशीभूत होने से अन्याय-मार्ग में प्रवेश हो जाता है, जिसके फलस्वरूप नरकों की प्राप्ति होती है। परन्तु सत्संग करने से ये काम-क्रोधादि दोष क्रमश: पत्थर, बालू, जल और आकाश की लकीर की तरह कम होते-होते मिट जाते हैं। पत्थर पर जो लकीर पड़ जाती है, वह कभी मिटती नहीं। बालू की लकीर जब हवा चलती है, तब बालू से ढककर मिट जाती है। जल पर लकीर खींचती हुई तो दीखती है, पर जल पर लकीर बनती नहीं। परन्तु आकाश में लकीर खींचें तो केवल अँगुली ही दीखती है, लकीर बनती ही नहीं। इस प्रकार जब काम-क्रोधादि दोष किंचिन्मात्र भी नहीं रहते, तब बन्धन मिट जाता है और परमात्मा में स्थिति हो जाती है।
सत्संग करता है राग द्वेष से मुक्त
इस प्रकार सत्संग करने से दोष कम होते हैं। अगर दोष कम नहीं होते तो असली सत्संग नहीं मिला है । भगवान् की कथा तो किसी से भी सुने, सुनने से लाभ होता है। यदि कथा कहने वाला प्रेमी भक्त हो तो बहुत विलक्षणता आती है। परन्तु तात्विक विवेचन जीवन्मुक्त, तत्वज्ञ महापुरुष से सुनने पर ही लाभ होता है। जीवन्मुक्त, तत्वज्ञ सन्त-महात्माओं के संग से बहुत विलक्षण एव ठोस लाभ होता है।
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प्रेमी भक्त के विषय में आया है – ‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीला का वर्णन करती-करती गदगद हो जाती है, जिसका चित मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओं को याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बार-बार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है ।’ ( श्रीमद. 11/14/24) |
चाहे मेरे निर्गुण स्वरूप का चित से उपासना करने वाला हो अथवा मायिक गुणों से अतीत मेरे सगुण स्वरूप की सेवा-अर्चना करने वाला हो, वह भक्त मेरा ही स्वरूप है। वह सूर्य की भाँति विचरण करता हुआ अपनी चरण-रज के स्पर्श से तीनों लोकों को पवित्र कर देता है। ’( अध्यात्म. उतर5/61) ।
तात्पर्य है कि चाहे भक्त हो या ज्ञानी, उसके चरणों के स्पर्श से पृथ्वी पवित्र हो जाती है। जैसे सूर्य जहाँ जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, ऐसे ही वह महात्मा जहाँ जाता है, वहाँ ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, आनन्द हो जाता है। कारण कि उसके भीतर राग-द्वेष हर्ष-शोक आदि बिलकुल नहीं होते। इसलिये हमारी चेष्टा होनी चाहिये कि राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि से पिण्ड छूट जाय। जब तक ये कम न हों, तब तक समझें कि असली सत्संग मिला नहीं है।