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जमीन उगलती मूर्तियां: यहां शिवलिंग नहीं बल्कि भोले के इस रूप की होती है पूजा

कहा जाता है कि दक्ष के यज्ञ से वापस लौटने पर वहां के घटना से शिव इतने खिन्न हुए कि यहाँ अगोरी क्षेत्र में उन्होंने अज्ञातवास का निर्णय ले लिया। शिव के गुप्त स्थान पर अज्ञातवास करने के चलते इस क्षेत्र को ‘गुप्तकाशी’ के नाम से जाना जाता है।

Shivakant Shukla
Published on: 16 Feb 2020 1:13 PM GMT
जमीन उगलती मूर्तियां: यहां शिवलिंग नहीं बल्कि भोले के इस रूप की होती है पूजा
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बृजेन्द्र दुबे

मिर्जापुर: सिद्धपीठ विंध्य क्षेत्र है जो अपने आप मे रहस्यों और साधना का केन्द्र रहा है। जहाँ विंध्य क्षेत्र में प्राकृतिक सुंदरता को समेटे जहाँ अनेको प्राकृतिक संपदा, रहस्य, मंदिर, पौराणिक और ऐतिहासिक किले, खूबसूरत झरने और रोमांचित कर देने वाली तिलिस्मी गुफाओ से लैस सबसे पिछड़ा जिला मिर्जापुर और सोनभद्र एक हो जाता है।

मिर्ज़ापुर मुख्यालय से करीब 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शिवद्वार एक ऐसा ही पवित्र स्थल है जहां हिन्दुओ की आस्था का केंद्र है। जहां खेतों से सिर्फ अनाज ही नहीं बल्कि पुरातन काल की मूर्तियां भी धरती के गर्भ से प्रकट होती हैं। बात 11वीं शताब्दी की है एक खेत की जुताई करते समय शिव पार्वती की पत्थर की एक ऐसी मूर्ति मिली जिस पर जादूगर की तरह अद्भुत अकल्पनीय एवं अविश्वसनीय है। यह पत्थर की मूर्ती अद्भुत,अनोखी, रहस्यमयी है।

इस पत्थर की मूर्ती में महादेव देवी पार्वती प्रेम करने की मुद्रा में हैं वहीं इसी पत्थर की मूर्ति में महादेव के गणों के साथ अन्य देवी देवताओं की छोटी-छोटी मुद्राओं को भी मूर्ती रूप में उकेरा गया है। शिव पार्वती की मूर्ति को मन्दिर के गर्भ गृह में रखा गया है।

11 वीं सदी की काले पत्‍थर की मूर्ति स्थापित की गयी

मिर्जापुर मुख्यालय से करीब 55 किलोमीटर स्थित घोरावल से 10 किमी दूरी पर शिवद्वार धाम स्थित है।यहाँ अकल्पनीय पत्थर की मूर्ति महादेव-पार्वती का अद्भुत रहस्यमयी मन्दिर है। इस मंदिर के गर्भगृह में महादेव और देवी पार्वती की 11 वीं सदी की काले पत्‍थर की मूर्ति स्थापित की गयी है जो अपने आप में ही अद्भुत नजर आती है। तीन फुट ऊंची मूर्ति सृजन मुद्रा में निर्मित की गयी है। एक रचनात्‍मक मुद्रा है। यह विशाल प्रतिमा उस काल के शिल्‍प कौशल को अद्भुत और शानदार कला का प्रदर्शन करता है। यह मंदिर, क्षेत्र के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस क्षेत्र के निवासी इस मंदिर को धार्मिक महत्‍व के कारण दूसरी काशी के रूप में मानते है।

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कई सदियां बीत जाने के बाद ऐसे पौराणिक स्थलों का कोई लिखित साक्ष्य तो नहीं मिलता किन्तु पीढ़ियों से चली आ रही किंव​दन्तियों को ही सत्य मान लिया जाता है। मंदिर से जुड़े शैलेन्द्र गिरी ने बताया कि इस मंदिर का देखरेख और पूजा पाठ सात पीढ़ियों से उनके ही परिवार के हाथ में है।

खेत मे हल चलाते किसानों ने जमीन के अंदर से निकाली गई मूर्तियां।

खेत में किसान हल चला रहे थे, अचानक एक हल के नीचे का लौह भाग जमीन में किसी पत्थर से फंसकर रूक गया। हल जहां पर रूका था वहां से अचानक रक्त, दूध और जल की धारा प्रवाहित होने लगी। जिसको देख किसान डर गया और भाग कर गांव में गया और लोगों को इस अद्भुत घटना के बारे में बताया तो गावं वाले जब उस स्थान की मिट्टी को ​हटाये तो वहां पर काले पत्थरो से से बनी महादेव और पार्वती की मूर्ति मिट्टी में दबी पड़ी थी। लोगों ने मिट्टी हटाकर मूर्ति को हटाने का प्रयास किया किन्तु कोई भी मूर्ति को तनिक भी हिला नही पाया। जिससे गाँव वाले मायूस होकर लौट आये।

एक रात गाँव के एक किसान को सोते समय स्वप्न आया, जिसमें महादेव ने कहा पास के श्मशान भूमि में उनका मंदिर बनाकर प्रतिमा को स्थापित किया जाये। उसके बाद उस किसान ने सुबह स्वप्न की बात सभी को बतायी और स्वप्न में बतायी गयी जमीन पर जहां एक घना बगीचा भी था, वहीं एक पेड़ के नीचे लोगों ने प्रतिमा लाकर स्थापित कर पूजा पाठ शुरू कर दिया धीरे धीरे 1942 में मंदिर का निर्माण हुआ।

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धार्मिक कथा

धार्मिक कथा है कि अहंकार के कारण दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में देवाधिदेव शिव को अनुष्ठान में नहीं बुलाया और पति के अपमान से दुखी सती ने पिता के अहंकार का नाश करने के लिए अपनी देह का त्याग कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र की उत्पत्ति की और उसे दक्ष का वध करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष का वध किया तो शिव के गणों ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंश कर दिया। बाद में देवताओं के समझाने पर शिव ने दक्ष के कटे सर की जगह बकरे का सर लगा दिया।

दक्ष के अहंकार का मर्दन करने के पश्चात भगवान शंकर पार्वती के सती होने के चलते बड़े ही खिन्न मन से वहां से चले गए। कहते हैं शिव ने सिद्धपीठ विंध्याचल के पास सोनभूमि सोनभद्र का रुख किया। यहाँ शिव ने सोनभूमि के अगोरी क्षेत्र में कदम रखा। जहाँ शिव ने इस इलाके में सबसे पहले चरण रखे, उसे आज शिवद्वार के नाम से जाना जाता है।

कहा जाता है कि दक्ष के यज्ञ से वापस लौटने पर वहां के घटना से शिव इतने खिन्न हुए कि यहाँ अगोरी क्षेत्र में उन्होंने अज्ञातवास का निर्णय ले लिया। शिव के गुप्त स्थान पर अज्ञातवास करने के चलते इस क्षेत्र को ‘गुप्तकाशी’ के नाम से जाना जाता है।

यहां शिवलिंग नहीं शिवप्रतिमा पर होता है जलाभिषेक

हर वर्ष महाशिवरात्रि और बसंतपंचमी पर विशाल मेला लगाता है किन्तु श्रावण माह पूरे महीने मेला नगा रहता है। सावन के महीने में पूरे देश में भगवान शंकर के लिंग पर जल चढ़ाने की प्रथा है, लेकिन शिवद्वार में ही मूर्ति पर जल चढाने की प्रथा है। बताते हैं यहाँ कि काले पत्थर से बनी शिव-पार्वती की मूर्ति अलौकिक है।

देश में शायद ही कहीं और शिव की ऐसी प्रतिमा देखने को मिले और शायद ही कहीं यिाव प्रतिमा पर जलाभिषेक होता हो। सावन के महीने में यहाँ कांवड़िए मीरजापुर में गंगा नदी से और विजयगढ़ किले में स्थित तालाब से जल लाकर मूर्ति पर चढाते हैं। यहाँ मंदिर परिसर में श्रद्धालु अपनी मनौतियाँ पूरी होने पर कथा के साथ-साथ मुंडन, शादी जैसे आयोजनों के लिए भी आते हैं।

अधिकतर मूर्तियां खण्डित हैं

बताते हैं कि यहां आसपास के जितने भी गांव है सबके घर और दरवाजे पर मूर्तिंया पड़ी दिखायी दे जायेंगी। अधिकतर मूर्तियां खण्डित हैं जो खुदायी में या फिर खेतों में हल चलाते समय मिली है। 2018 में ही गांव के एक धोबी परिवार को भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की क्षीर सागर में श्यन करने वाली मुद्रा में मूर्तियां मिली है। उक्त व्यक्ति अपने जमीन पर मंदिर बना रहा है जिसमें उन मूर्तियों को स्थापित करेगा। मंदिर के आसपास भी कई खंडित मूर्तियां रखी गयी हैं। इन्हें देख कर लगता है कि यह सभी या तो सोढरीगढ़ दुर्ग में मिलीं थीं या आस पास के खेतों से खुदाई के दौरान मिली जिन्हें लोग मंदिर के पास छोड़ गए। यहाँ पहाड़ों में मिलने वाली मूर्तियों को देखकर ऐसा लगता है कि प्राचीन काल से यह इलाका शिव साधना का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। सोढ़रीगढ़ दुर्ग अब पूरी तरह तहस नहस हो चुका है। कुछ अवशेष ही बचे हैं।

इस दुर्ग को आल्हा उदल ने बनवाया था

कहा जाता है कि इस दुर्ग को आल्हा उदल ने बनवाया था। बताया जाता है कि इस दुर्ग से मैहर तक एक सुरंग बनायी गयी थी जो अब नहीं रही। दुर्ग के आसपास खेतों में मिलने वाली मूर्तियों को देखकर यही कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र शिल्प कला का केन्द्र रहा होगा। आश्चर्य करने वाली एक बात और है कि यहां मिलने वाली सभी मूर्तियां अपनी प्राकृतिक अवस्था में निर्मित हैं। किसी मूर्ति पर कलाकार ने वस्त्र नहीं बनाये हैं। हालांकि यहां जो भी मूर्तियां मिली हैं वे देवी देवताओं की हैं किन्तु उसकी कला अजंता एलोरा में स्थापित मूर्तियां से मेल खाता है। इस क्षेत्र को देखने के बाद यह महसूस होता है कि यहां कभी मंदिरों की विशाल श्रृंखला रही होगी जो मुगल आक्रमण के दौरान तहस नहस कर दी गयी।

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शिवद्वार में हुई प्रशासनिक उपेक्षा

शिवद्वार आस्था और भक्ति का केन्द्र बनने के बाद एक ऐतिहासिक स्थल भी रहा है किन्तु यहां आने के बाद प्रशानिक उपेक्षा साफ नजर आती है। सोढ़रीगढ़ किले को पुरातत्व विभाग ने अपने कब्जे में जांच के लिये लिया था किन्तु उस संस्कृति को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। यहां पर बना एकमात्र संग्रहालय भगवान भरोसे ही चल रहा है। घोरावल से मंदिर तक आने वाला मार्ग अपनी दुर्दशा पर आंसम बहा रहा है। यदि प्रशासनिक स्तर पर इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाये तो काफी लोगों को रोजगार मिल सकता है।

Shivakant Shukla

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