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Kartik Mahatmya Adhyay 29, 30: जानें किस के श्राप से बनीं नदियाँ, कार्तिक माहात्म्य/ अध्याय - 29, 30

Kartik Mahatmya Adhyay 29, 30: हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए। नारद जी बोले – हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है।

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Published on: 13 April 2023 9:11 PM IST
Kartik Mahatmya Adhyay 29, 30: जानें किस के श्राप से बनीं नदियाँ, कार्तिक माहात्म्य/ अध्याय - 29, 30
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Kartik Mahatmya Adhyay 29, 30 (Pic: Social Media)

Kartik Mahatmya Adhyay 29, 30: राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाये जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना। हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए। नारद जी बोले – हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है। इन दोनों नदियों के संगम का माहात्म्य श्रीब्रह्माजी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है फिर भी चूंकि आपने पूछा है इसलिए आपको इनकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो –

चाक्षसु मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत के शिखर पर यज्ञ करने का निश्चय किया। वह भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा समस्त देवताओं सहित यज्ञ की सामग्री लेकर उस पर्वत के शिखर पर गये। महर्षि भृगु आदि ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें दीक्षा देने का विचार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया। वह बड़ी धीमी गति से आ रही थी। इसी बीच में भृगु जी ने भगवान विष्णु से पूछा – हे प्रभु! आपने त्वरा को शीघ्रता से बुलाया था, वह क्यों नहीं आई? ब्रह्ममुहूर्त निकल जाएगा।

इस पर भगवान विष्णु बोले – यदि त्वरा यथासमय यहाँ नहीं आती है । तो आप गायत्री को ही स्त्री मानकर दीक्षा विधान कर दीजिएगा। क्या गायत्री पुण्य कर्म में ब्रह्माजी की स्त्री नहीं हो सकती? नारदजी ने कहा – हे राजन! भगवान विष्णु की इस बात का समर्थन भगवान शंकर जी ने भी किया। यह बात सुनकर भृगुजी ने गायत्री को ही ब्रह्माजी के दायीं ओर बिठाकर दी़क्षा विधान आरंभ कर दिया। जिस समय ऋषिमण्डल गायत्री को दीक्षा देने लगा, उसी समय त्वरा भी यज्ञमण्डल में आ पहुँची।

ब्रह्माजी के दायीं ओर गायत्री को बैठा देखकर ईर्ष्या से कुपित होकर त्वरा बोली – जहाँ अपूज्यों की पूजा और पूज्यों की अप्रतिष्ठा होती है वहाँ पर दुर्भिक्ष, मृत्यु तथा भय तीनों अवश्य हुआ करते हैं। यह गायत्री ब्रह्माजी की दायीं ओर मेरे स्थान पर विराजमान हुई है । इसलिए यह अदृश्य बहने वाली नदी होगी। आप सभी देवताओं ने बिना विचारे इसे मेरे स्थान पर बिठाया है ।इसलिए आप सभी जड़ रूप नदियाँ होगें।

नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! इस प्रकार त्वरा के शाप को सुनकर गायत्री क्रोध से आग-बबूला होकर अपने होठ चबाने लगी। देवताओं के मना करने पर भी उसने उठकर त्वरा को शाप दे दिया। गायत्री बोली – त्वरा! जिस प्रकार ब्रह्माजी तुम्हारे पति हैं उसी प्रकार मेरे भी पति हैं। तुमने व्यर्थ ही शाप दे दिया है इसलिए तुम भी नदी हो जाओ तब देवताओं में खलबली मच गई। सभी देवता त्वरा को साष्टांग प्रणाम कर के बोले – हे देवि! तुमने ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को जो शाप दिया है वह उचित नहीं है क्योंकि यदि हम सब जड़ रुप नदियाँ हो जाएंगे तो फिर निश्चय ही यह तीनों लोक नहीं बच पाएंगे। चूंकि यह शाप तुमने बिना विचार किए दिया है इसलिए यह शाप तुम वापिस ले लो।

त्वरा बोली – हे देवगण! आपके द्वारा यज्ञ के आरम्भ में गणेश पूजन न किये जाने के कारण ही यह विघ्न उत्पन्न हुआ है। मेरा यह शाप कदापि खाली नहीं जा सकता इसलिए आप सभी अपने अंगों से जड़ीभूत होकर अवश्यमेव नदियाँ बनोगे। हम दोनों सौतने भी अपने-अपने वंशों पश्चिम में बहने वाली नदियाँ बनेगी।

नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! त्वरा के यह वचन सुनकर भगवान विष्णु, शंकर आदि सभी देवता अपने-अपने अंशों से नदियाँ बन गये। भगवान विष्णु के अंश से कृष्णा, भगवान शंकर के अंश से वेणी तथा ब्रह्माजी के अंश से ककुदमवती नामक नदियाँ उत्पन्न हो गई। समस्त देवताओं ने अपने अंशों को जड़ बनाकर वहीं सह्य पर्वत पर फेंक दिया। फिर उन लोगों के अंश पृथक-पृथक नदियों के रूप में बहने लगे। देवताओं के अंशों से सहस्त्रों की संख्या में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ उत्पन्न हो गई। गायत्री और त्वरा दोनों पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ होकर एक साथ बहने लगी, उन दोनों का नाम सावित्री पड़ा।

ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर की स्थापना की। दोनों देवता महाबल तथा अतिबल के नाम से प्रसिद्ध हुए। हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी की उत्पत्ति का यह वर्णन जो भी मनुष्य सुनेगा या सुनायेगा, उसे नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त होगा।

कार्तिक माहात्म्य/ अध्याय - 30

भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा से बोले – हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उनको विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी – यह तीन व्रत मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। वनस्पतियों में तुलसी, महीनों में कार्तिक, तिथियों में एकादशी और क्षेत्रों में प्रयाग मुझे बहुत प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है वह मुझे यज्ञ करने वाले मनुष्य से भी अधिक प्रिय है। जो मनुष्य विधिपूर्वक इनकी सेवा करते हैं, मेरी कृपा से उन्हें समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आपने बहुत ही अद्भुत बात कही है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गयी। अब यह प्रभावशाली कार्तिक मास आपको अधिक प्रिय है जिससे पतिद्रोह का पाप केवल स्नान के पुण्य से ही नष्ट हो गया। दूसरे मनुष्य द्वारा किया हुआ पुण्य उसके देने से किस प्रकार मिल जाता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण भगवान बोले – प्रिये! जिस कर्म द्वारा बिना दिया हुआ पुण्य और पाप मिलता है उसे ध्यानपूर्वक सुनो। सतयुग में देश, ग्राम तथा कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था । किन्तु कलियुग में केवल कर्त्ता को ही पाप तथा पुण्य का फल भोगना पड़ता है। संसर्ग न करने पर भी वह व्यवस्था की गई है और संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं, उसकी व्यवस्था भी सुनो।

पढ़ाना, यज्ञ कराना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का आधा फल मिलता है। एक आसन पर बैठने तथा सवारी पर चढ़ने से, श्वास के आने-जाने से पुण्य व पाप का चौथा भाग जीवमात्र को मिलता है। छूने से, भोजन करने से और दूसरे की स्तुति करने से पुण्य और पाप का छठवाँ भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा, चुगली और धिक्कार करने से उसका सातवाँ भाग मिलता है। पुण्य करने वाले मनुष्यों की जो कोई सेवा करता है ।वह सेवा का भाग लेता है और अपना पुण्य उसे देता है।

नौकर और शिष्य के अतिरिक्त जो मनुष्य दूसरे से सेवा करवाकर उसे पैसे नहीं देता, वह सेवक उसके पुण्य का भागी होता है। जो व्यक्ति पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह उसे( जिसकी पत्तल उसने लांघी है ) अपने पुण्य का छठवाँ भाग देता है। स्नान तथा ध्यान आदि करते हुए मनुष्य से जो व्यक्ति बातचीत करता है या उसे छूता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग दे डालता है।

जो मनुष्य धर्म के कार्य के लिए दूसरों से धन मांगता है, वह पुण्य का भागी होता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि दान करने वाला पुण्य का भागी होता है। जो मनुष्य धर्म का उपदेश करता है और उसके बाद सुनने वाले से याचना करता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग उसे दे देता है। जो मनुष्य दूसरों का धन चुराकर उससे धर्म करता है, वह चोरी का फल भोगता है। शीघ्र ही निर्धन हो जाता है।जिसका धन चुराता है, वह पुण्य का भागी होता है।

बिना ऋण उतारे जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उनको ऋण देने वाले सज्जन पुरुष पुण्य के भागी होते हैं। शिक्षा देने वाला, सलाह देने वाला, सामग्री को जुटाने वाला तथा प्रेरणा देने वाला, यह पाप और पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करते हैं। राजा प्रजा के पाप-पुण्य के षष्ठांश का भोगी होता है, गुरु शिष्यों का, पति पत्नी का, पिता पुत्र का, स्त्री पति के लिए पुण्य का छठा भाग पाती है। पति को प्रसन्न करने वाली आज्ञाकारी स्त्री पति के लिए पुण्य का आधा भाग ले लेती है।

जो पुण्यात्मा पराये लोगों को दान करते हैं, वह उनके पुण्य का छठा भाग प्राप्त करते हैं। जीविका देने वाला मनुष्य जीविका ग्रहण करने वाले मनुष्य के पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य अथवा पाप बिना दिये भी दूसरे को मिल सकते हैं किन्तु यह नियम जो कि मैंने बतलाये हैं, ये कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो एकमात्र कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। इस संबंध में एक बड़ा पुराना इतिहास है जो कि पवित्र भी है और बुद्धि प्रदान करने वाला कहा जाता है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।



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