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भगवान का नाम जपने से मिलती है मुक्ति

Bhagavad Gita: वेद-पुराणादि धार्मिक ग्रंथों एवं संतों के वचनामृत में नाम की महिमा का उल्लेख मिलता है। इसमें भगवान् के नाम स्मरण-जप को कलियुग का मुख्य धर्म (ऐहिक-पारलौकिक कल्याणकारी कर्तव्य) माना गया है, क्योंकि कलियुग में मानव कल्याण और विश्वशांति के लिए श्री हरि के नाम के अतिरिक्त दूसरा सुलभ साधन नहीं है।

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Published on: 23 April 2023 6:17 PM GMT
भगवान का नाम जपने से मिलती है मुक्ति
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भगवान का नाम जपने से मिलेगी मुक्ति (Pic: Social Media)

Bhagavad Gita: भगवन नाम जप की महिमा अनंत अतुलनीय है। इसीलिए इसे माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान कहा गया है। भक्तशिरोमणि नारद, भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, जटायु, अजामिल, केवट, हनुमान, शबरी, अम्बरीष, गणिका आदि ने इस भगवन्नाम जप के द्वारा भगवत्प्राप्ति की है। इस नाम जप के प्रभाव से शिवजी अविनाशी हैं। मुनिजन, समस्त योगीजन, शुकदेव, सनकादि नाम जप के प्रभाव से ही ब्रह्मानंद का भोग करते हैं। वेद-पुराणादि धार्मिक ग्रंथों एवं संतों के वचनामृत में नाम की महिमा का उल्लेख मिलता है। इसमें भगवान् के नाम स्मरण-जप को कलियुग का मुख्य धर्म (ऐहिक-पारलौकिक कल्याणकारी कर्तव्य) माना गया है, क्योंकि कलियुग में मानव कल्याण और विश्वशांति के लिए श्री हरि के नाम के अतिरिक्त दूसरा सुलभ साधन नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास का कहना है

नाम निरूपन नाम जतन तें।

सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥ रामचरितमानस 1/22/8

अर्थात् नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धापूर्वक नाम जप करने से वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न को जानने से उसका मूल्य।

श्रीमद्भागवत में कहा गया है

सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोत्रं हेलनमेव वा।

वैकुण्ठनाम ग्रहणमशेषाघहरं विदुः ॥

पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहत: ।

त्वामनुबध्नामि हरिरित्यवशेनाह पुमानार्हति यातनाम् ॥

श्रीमद्भागवत 6 214-15

अर्थात् भगवान् का नाम चाहे जैसे लिया जाए यानी किसी बात का संकेत करने के लिए, हंसी करने के लिए अथवा तिरस्कारपूर्वक ही क्यों न हो, वह संपूर्ण पापों का नाश करने वाला होता है। पतन होने पर, गिरने पर, कुछ टूट जाने पर, डसे जाने पर, बाह्य या आंतर ताप होने पर और घायल होने पर जो पुरुष विवशता से भी हरि नाम का उच्चारण करता है, वह यम यातना के योग्य नहीं। भगवान् वेदव्यास का कहना है।

हरेर नाम हरेर नाम हरे नामैव केवलम् ।

कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

बृहन्नारदीयपुराण 38/127

अर्थात् इस नानाविध आदि-व्याधि से ग्रस्त कलियुग में हरिनाम जप संसार सागर से पार होने का एकमात्र उत्तम सहारा है। महर्षि पतंजलि कहते हैं

स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।

योगदर्शन 2/44

अर्थात् नामोच्चारण से इष्ट देव परमेश्वर के साक्षात् दर्शन होते हैं।

पद्मपुराण में लिखा है कि जो मनुष्य परमात्मा के 'हरि' नाम का नित्य उच्चारण करता है, उसके उच्चारण मात्र से वह मुक्त हो जाता है। भगवान् वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत 12.3.52 में कहा है कि सत्युग में भगवान् विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान् की पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान् के नाम-कीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड 102, ख में कहा है कि कलियुग में तो केवल भगवान् के नाम से वही गति मिलती है जो सत्युग, त्रेता और द्वापर में पूजा, यज्ञ और योग से है। तुलसीदास भगवान् श्रीराम के नाम जपने पर विशेष बल देते हैं।

भाव कुभाव अनख आलसहू।

नाम जपत मंगल दिसि दसहू ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥

श्रीमद्भगवद्गीता 8/5 |

अर्थात् जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है-इसमें कोई भी संदेह नहीं है।

अजामिल की कथा आपने सुनी होगी वह बहुत बड़ा पापी था। संयोग से उसने अपने छोटे बेटे का नाम नारायण रख दिया था। अंत समय में अजामिल ने यमदूतों के भय और प्यास के कारण अपने बेटे नारायण को पुकारा। श्रीमद्भागवत 6/2/8, 18 के अनुसार जिस समय उसने 'ना-रा-य-ण' इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय (केवल नामोच्चारण मात्र से ही) उस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो जाता है, वैसे ही जानबूझ कर या अनजाने में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। नारायण का नाम लेने मात्र से नारायण के दूत आ गए और यमदूतों से छुड़ाकर उसे स्वर्ग ले गए। अंतिम समय की मानसिक स्थिति के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं।

यं यं वाऽपि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥

श्रीमद्भगवद्गीता 8/6

अर्थात् जो मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसको ही प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है, अर्थात् अंत समय में देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सजीव पदार्थों का स्मरण करते हुए मरने वाला मनुष्य उन-उन योनियों को प्राप्त हो।

(कंचन सिंह)

( लेखिका प्रख्यात ज्योतिषी हैं ।)

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