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अर्जुन के मन की करुणा को ख़त्म करना अनिवार्य, भगवद्गीता - (अध्याय-1/श्लोक संख्या- 25 (भाग - 2)
Shreemad Bhagavad Gita Adhyay 1: भगवद्गीता का 25 वां श्लोक बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने प्रथम बार अपनी वाणी मुखरित की है। भगवान ने ऐसा आखिर क्यों कहा ? आइए! इस पर विचार करते हैं। भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि अर्जुन के अंतः करण में सुप्त - अवस्था में करुणा एवं दया व्याप्त थी।
Shreemad Bhagavad Gita Adhyay 1: “पार्थ, पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति"
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अर्थ - पार्थ ! यहां पर एकत्र सारे कौरवों को देखो।
निहितार्थ - भगवद्गीता का 25 वां श्लोक बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने प्रथम बार अपनी वाणी मुखरित की है। भगवान ने ऐसा आखिर क्यों कहा ? आइए! इस पर विचार करते हैं। भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि अर्जुन के अंतः करण में सुप्त - अवस्था में करुणा एवं दया व्याप्त थी। इसे हम दो घटनाओं से समझने का प्रयास करें।
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पहली घटना महाभारत के वनपर्व की है। वनवास के दौरान द्रौपदी सहित सभी पांडव द्वैतवन पहुंचे थे। जंगल में शीत, उष्ण एवं वृष्टि का मौसम गुजारने के कारण पांडवों के शरीर बहुत कृश ( दुबले ) हो चुके थे, क्योंकि जंगल में कष्ट ही सहना पड़ता है। द्रौपदी की हालत तो सबसे दयनीय थी। वह सब ओर से दु:खों से दबी हुई थी। यह सब जानकारी एक ब्राह्मण ने महाराज धृतराष्ट्र को दिया। यह समाचार सुनकर शकुनि, दुर्योधन आदि बड़े प्रसन्न हुए।
पांडवों की इस कष्टमय स्थिति को देखने के लिए दुर्योधन मंत्रियों सहित भारी सेना लेकर चल पड़ा। जब दुर्योधन के सेवक द्वैतवन के सरोवर के निकट पहुंचे, तो गंधर्वों ने उन सब को रोक दिया और कहा कि इस समय गंधर्वराज चित्रसेन जल - क्रीड़ा करने आए हैं। जब यह समाचार दुर्योधन ने सुना, तो उसने गंधर्व पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। चित्रसेन ने अपने गंधर्वों को आज्ञा दी - जाओ ! नीच कौरवों की अच्छी तरह से मरम्मत कर दो। फिर क्या था ? गंधर्वों ने भयंकर हमला कर दिया। शकुनी, कर्ण, दु:शासन आदि मार खाकर घायल हुए। दुर्योधन को जीवित ही पकड़ कर कैद कर लिया गया।
दुर्योधन के मंत्री भागकर पांडव - प्रमुख युधिष्ठिर के पास जाकर सब हाल सुनाये तथा कहे कि हमारी रक्षा कीजिए। युधिष्ठिर ने अर्जुन को गंधर्वों से दुर्योधन को छुड़ाने के लिए भेजा। अर्जुन के कारण ही चित्रसेन ने दुर्योधन सहित समस्त कौरव सेना को छोड़ दिया था। भीम ने युधिष्ठिर को कहा था कि जो काम हमें करना चाहिए था, उसे गंधर्वों ने पूरा कर दिया है। अतः दुर्योधन की मदद नहीं करनी चाहिए थी।
दूसरी घटना विराट पर्व की है। दुर्योधन जब भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, शकुनी, अश्वथामा, दु:शासन के साथ विराट राज्य पर भारी हमला कर दिया था, तब विराट राज्य के राजकुमार उत्तर को लेकर पांडव कौरवों का प्रतिकार करने के लिए युद्ध में उतर गए थे। अर्जुन ने सभी को एक-एक कर पराजित कर दिया था।
अंत में सभी पुनः इकट्ठे होकर अर्जुन पर आक्रमण कर दिए, तब अर्जुन ने सम्मोहन बाण चलाकर सभी को सम्मोहित कर निद्रा में सुला दिया था। उस समय अर्जुन चाहता, तो सभी का वध आसानी से कर सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया। उसने उत्तर को कहा कि तुम द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा एवं दुर्योधन के वस्त्र लेकर वापस आ जाओ। विराट पुत्र उत्तर ने ऐसा ही किया।
दुर्योधन जब होश में आया, तो उसने भीष्म से कहा - आपके रहते अर्जुन जीवित कैसे बच गया ? तब भीष्म ने कहा - दुर्योधन ! जब तू अपने धनुष बाण को त्याग कर अचेत पड़ा हुआ था, तब तेरा पराक्रम कहां चला गया था ? अर्जुन कभी निर्दयतापूर्वक व्यवहार नहीं कर सकता। अर्जुन की दया एवं करुणा के कारण ही दुर्योधन ! तू बच गया है।
उपर्युक्त दोनों घटनाएं बताती हैं कि दया, करुणा, संवेदनशीलता आदि सद्वृत्तियां अर्जुन के भीतर थीं। ये घटनाएं श्रीकृष्ण को ज्ञात थीं। अतः श्रीकृष्ण ने युद्ध शुरू होने के पहले ही इन वृत्तियों को उपर्युक्त वाक्य द्वारा अर्जुन के भीतर से निकालने का प्रयास किया ताकि युद्ध के समय यह उभरकर अर्जुन को अपने पथ से विचलित न कर दे, जिससे पांडव पक्ष का अनिष्ट हो जाए।