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Bhagavad Gita: अर्जुन को दिखने लगे थे दोनों तरफ़ के अपने लोग, भागवद्गीता-(अध्याय-1/ श्लोक संख्या- 26 - 27 (भाग-1)
Shreemad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 26 and 27: भगवद् गीता के अंतर्गत संजय द्वारा कहे गए सभी श्लोकों ( वचनों ) में ये दो श्लोक बहुत ही अद्भुत हैं। अब तक युद्ध- क्षेत्र में जितनी भी घटनाएं हुई थीं, उन सब का वर्णन संजय ने किया था।
Shreemad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 26 and 27:
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सरलार्थ - इसके पश्चात् पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में स्थित हुए ताऊ, चाचाओं, दादा - परदादाओं, आचार्यों, मामाओं, भाइयों, पुत्रों - पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और सुहृदों को देखा।
निहितार्थ - भगवद् गीता के अंतर्गत संजय द्वारा कहे गए सभी श्लोकों ( वचनों ) में ये दो श्लोक बहुत ही अद्भुत हैं। अब तक युद्ध- क्षेत्र में जितनी भी घटनाएं हुई थीं, उन सब का वर्णन संजय ने किया था। जैसे - दुर्योधन का द्रोणाचार्य के निकट जाना तथा उनसे कहना, भीष्म का शंखनाद करना, पांडव - पक्ष की ओर से भी घोष - निनाद का किया जाना, अर्जुन का युद्ध के लिए प्रस्तुत होकर श्रीकृष्ण को दोनों सेनाओं के बीच रथ को ले जाने का निर्देश देना तथा श्री कृष्ण द्वारा रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले जाकर अर्जुन को "कुरुओं को देख" यह वाक्य कहना। यहां तक संजय ने युद्धक्षेत्र की प्रत्येक बाह्य गतिविधियों की जानकारी धृतराष्ट्र को दी है।
हमें यह ध्यान में रखना बहुत ही जरूरी है कि उपर्युक्त दोनों श्लोकों को अर्जुन ने नहीं कहा है। ये अर्जुन के वक्तव्य नहीं है कि उसने क्या देखा ? बल्कि ये संजय के वक्तव्य हैं कि भगवान श्री कृष्ण के कहने के बाद अर्जुन ने दोनों सेनाओं के बीच क्या देखा ? युद्ध के प्रारंभ में दोनों सेनाओं में दुर्योधन को जो दिखा था, उसे स्पष्ट रूप से द्रोणाचार्य को बताया था। उसी तरह अर्जुन को जो दिखा था, उसे श्रीकृष्ण को बताना चाहिए था, पर अर्जुन ने ऐसा नहीं किया।
अर्जुन ने अपने भीतर आए परिवर्तन का एहसास तक श्री कृष्ण को होने नहीं दिया। श्री कृष्ण से अर्जुन स्वयं को छिपा रहे हैं, तो संजय के लिए चुप रहना कठिन हो गया। अर्जुन की दृष्टि में आए मानसिक परिवर्तन के फलस्वरूप उसे क्या दिख रहा था ? - उसी की चर्चा संजय उपर्युक्त दोनों श्लोकों में कर रहे हैं। श्रीकृष्ण के कथन के पूर्व अर्जुन कुछ और ही देख रहा था और अब श्री कृष्ण के कहने के बाद कुछ और ही देख रहा है।
हम सभी जानते हैं कि एक ही कुल दो भागों में बंट कर युद्ध के मैदान में उपस्थित हुआ है। यह बंटवारा ऐसा नहीं है कि एक तरफ दुश्मन है और दूसरी ओर अपने घनिष्ठ मित्र इस तरफ हैं, तो कम मित्रता वाले लोग उस तरफ हैं। इस मानसिक दृष्टिकोण के कारण अर्जुन को अपने पक्ष के मित्र, सुहृद, संबंधी तो दिख ही रहे थे, अब दूसरे पक्ष में भी वही दिखने लग गए हैं। दोनों तरफ अपने लोग ही हैं, किसी भी पक्ष के लोग मरते, तो आखिर अपने लोग ही मरते - ऐसा आभास अर्जुन को होने लगा। जो कल तक शत्रु थे, वह आज मित्र हो गए तथा जो कल तक मित्र थे, वे आज शत्रु हो गए अर्थात् शत्रु भी कभी मित्र ही थे।
इसका एक बड़ा अच्छा उदाहरण अपने सामने है - राजा द्रुपद एवं गुरु द्रोणाचार्य का। अर्जुन का पहला युद्ध गुरु द्रोणाचार्य के आदेश पर राजा द्रुपद के विरुद्ध हुआ था। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को राजा द्रुपद को पकड़कर ले आने को कहा था। अर्जुन ने युद्ध कर द्रुपद को पकड़कर द्रोणाचार्य के हाथों सौंप दिया था। अर्जुन के बदौलत ही राजा द्रुपद के आधे राज्य को लेकर द्रोणाचार्य एक राज्य के स्वामी बने थे। कुरुक्षेत्र के मैदान में आज वही द्रोणाचार्य अर्जुन की कृतज्ञता को भुलाकर धृतराष्ट्र - पक्ष की ओर से अर्जुन से ही लड़ने को तत्पर हैं तथा जिस द्रुपद को अर्जुन के कारण अपना राज्य खोना पड़ा था, वही द्रुपद अपने पुत्रों धृष्टद्युम्न एवं शिखंडी सहित अर्जुन की ओर से कौरवों के विरुद्ध लड़ने को उद्यत हैं।
है न ! अद्भुत पक्ष - विपक्ष के लोग ! ऐसा देख, क्यों न चकराए अर्जुन का सिर ! कहने का अर्थ यह है कि एक समय सभी मित्र ही थे, बंधु ही थे। परिस्थितिवश आज पक्ष या विपक्ष में लड़ने चले आए हैं। अर्जुन के मानस - पटल पर क्या चल रहा है ? इसे संजय बताने में क्यों सक्षम हुए ? इस पर अगले अंक में चर्चा की जाएगी।