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Srimad Bhagavad Gita: स्वजन को मार कर आनंद की प्राप्ति संभव नहीं, भगवद्गीता-(अध्याय-1/ श्लोक संख्या-37)
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 37: अर्जुन के दिमाग में 'सुख' शब्द समाया हुआ है। उसके न चाहते हुए भी 'सुख' शब्द अंतः करण से बाहर प्रकट होता जा रहा है अर्थात् अर्जुन को सुख की आकांक्षा है। वह भी दूसरों की भांति सुखी रहना चाहता है।लेकिन अर्जुन का सुख सशर्त है। यदि स्वजन की हत्या न करनी पड़े, तो उसे सुख चाहिए।
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 37:
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।।
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सरलार्थ - हे माधव ! अपने ही बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने ही स्वजन की हत्या कर हम कैसे सुखी होंगे ?
निहितार्थ - इसके पूर्व अर्जुन ने 31वें श्लोक में यह कहा था कि स्वजन को मार कर हमें "श्रेय" (आनन्द) की प्राप्ति नहीं होगी। इसका साधारण अर्थ यह हुआ कि "प्रेय" ( सांसारिक सुख ) की प्राप्ति होगी। तब 32वें श्लोक में अर्जुन ने कहा कि मुझे सुख की आकांक्षा ही नहीं है। 33वें श्लोक में अर्जुन ने उसे सुधार कर कह दिया कि जिनके सुख के लिए युद्ध करने आए हैं, उन्हें कैसे मारूंगा ? अब पुनः 37 वें श्लोक में अर्जुन ने सुख की चर्चा की है और माधव से पूछा है कि हम अपने स्वजन की हत्या कर सुखी कैसे होंगे ?
अर्जुन के दिमाग में 'सुख' शब्द समाया हुआ है। उसके न चाहते हुए भी 'सुख' शब्द अंतः करण से बाहर प्रकट होता जा रहा है अर्थात् अर्जुन को सुख की आकांक्षा है। वह भी दूसरों की भांति सुखी रहना चाहता है।लेकिन अर्जुन का सुख सशर्त है। यदि स्वजन की हत्या न करनी पड़े, तो उसे सुख चाहिए। तो यहां सहज ही प्रश्न खड़ा होता है कि फिर क्या पर - जन अर्थात दूसरों की हत्या कर अर्जुन सुखी होना चाहता है। अर्जुन के सुखी होने में धृतराष्ट्र - पुत्रों का वध करना ही बाधक बना हुआ है।
यदि कोई अर्जुन को यह कह सके कि स्वजन को मारकर भी तुम सुखी हो सकते हो, तो अर्जुन तुरंत तैयार हो जाएगा। अर्जुन केवल यह चाहता है कि कौरवों की हत्या को कोई न्यायसंगत घोषित कर दे। श्री कृष्ण केवल इस बात की पुष्टि कर दें कि अर्जुन आततायी को दंड देने के लिए एवं स्वयं को सुखी रहने के लिए तथा बाकी लोगों को भी शांति से रहने के लिए कौरवों का वध करना परम आवश्यक है और इस कार्य को करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा। तुम्हारी कृति धूमिल नहीं होगी। उसके बाद अर्जुन अपने 'तथाकथित स्वजन' को गाजर - मूली की तरह काट दिया।
अर्जुन चाहता तो यही है परन्तु कह कुछ और रहा है। श्रीकृष्ण को अर्जुन यह अवसर ही नहीं दे रहा है कि वह अर्जुन के 'मौलिक विचार' के पक्ष या विपक्ष में अपना मन्तव्य प्रकट कर सकें। विषाद की अवस्था में अर्जुन के वक्तव्य प्राय: विरोधाभास से भरे हुए हैं। एक ओर अर्जुन लड़ने की अवस्था में नहीं है, वहीं दूसरी ओर यह भी कह रहा है कि मैं स्वजन के रुप में आए शत्रुओं की हत्या कर दूंगा। अर्जुन यहीं तक नहीं रुकता, वरन् एक कदम आगे बढ़कर यह भी कह डालता है कि इससे मुझे श्रेय की प्राप्ति नहीं होगी। और अब अर्जुन यह कह रहा है कि मुझे सुख भी प्राप्त नहीं होगा।